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Advani had challenged the politics of social justice, not the politics of dynasty. 

दस साल में मोदी सरकार ने दिए 7 भारत रत्न सम्मान                 

मोदी सरकार ने इस वर्ष सामाजिक न्याय के महान योद्धा कर्पूरी ठाकुर के बाद भाजपा के वयोवृद्ध नेता और रामरथ के सारथी लालकृष्ण अडवाणी को 96 वर्ष की उम्र में देश के सबसे बड़े नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ देने की घोषणा कर देशवासियों को फिर चौंका दिया है। 2014 में सत्ता संभालने के बाद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा दिया गया यह सातवां भारत रत्न है। आडवाणी से पहले 23 जनवरी को बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न (मरणोपरांत) देने का ऐलान किया जा चुका है। इसके अलावा मदन मोहन मालवीय, अटल बिहारी वाजपेयी, प्रणब मुखर्जी, भूपेन हजारिका और नानाजी देशमुख को यह सम्मान मिल चुका है। 

अब तक भारत रत्न से सम्मानित होने वाले लोगों में आडवाणी 50 वीं शख्सियत हैं

बहरहाल लंबे समय से भाजपा में उपेक्षित आडवाणी के भारत रत्न के सम्मान से घोषित की खबर भाजपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं में खुशी की लहर दौड़ गई है। आखिर दौड़े क्यों नहीं, राजनीति के जानकारों के मुताबिक जनसंघ से भाजपा बनने की यात्रा में सबसे ज्यादा योगदान देने वाले आडवाणी के ही साये में आज की पीढ़ी के 90 प्रतिशत से ज्यादा भाजपा नेता तैयार हुए हैं। भाजपा कार्यकर्ताओं के साथ आड़वाणीं भी भारत रत्न की घोषणा से अभिभूत हैं। 

भारत रत्न मिलने पर आडवाणी ने क्या कहा

आडवाणी ने भारत रत्न मिलने पर कहा है, ’मैं अत्यंत विनम्रता और कृतज्ञता के साथ भारत रत्न स्वीकार करता हूं जो आज मुझे प्रदान किया गया है। यह न सिर्फ एक व्यक्ति के रूप में मेरे लिए सम्मान की बात है, बल्कि

उन आदर्शों और सिद्धांतों के लिए भी सम्मान है, जिनकी मैंने अपनी पूरी क्षमता से जीवन भर सेवा करने की कोशिश की। जब से मैं 14 साल की उम्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक के रूप में शामिल हुआ, तब से मैंने केवल एक ही कामना की है। जीवन में मुझे जो भी कार्य सौंपा गया है, उसमें अपने देश की समर्पित और निस्वार्थ सेवा की। जिस चीज ने मेरे जीवन को प्रेरित किया है वह आदर्श वाक्य है 'इदं न मम' ─ 'यह जीवन मेरा नहीं है, मेरा जीवन मेरे राष्ट्र के लिए है।‘

उन्होंने आगे कहा है, ‘आज मैं उन दो व्यक्तियों को कृतज्ञतापूर्वक याद करता हूं जिनके साथ मुझे करीब से काम करने का सम्मान मिला - पंडित दीनदयाल उपाध्याय और भारत रत्न श्री अटल बिहारी वाजपेयी।‘

आडवाणी ने सम्मान के लिए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और पीएम मोदी को भी धन्यवाद दिया। साथ ही भाजपा संघ और अपनी दिवंगत पत्नी कमला आडवाणी को भी याद किया। 

अडवाणी के लिए भारत रत्न की घोषणा होने से उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, गृह मंत्री अमित शाह, यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ इत्यादि ने भारी हर्ष व्यक्त किया है। विपक्ष की ओर से भी स्वागत हुआ है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा है कि लालकृष्ण आडवाणी जी को भारत रत्न देने की जो घोषणा हुई है, हम उसका स्वागत करते हैं। किन्तु कांग्रेस के ही जयराम रमेश ने थोड़ा तंज कसते हुए कहा है, ’2002 में लालकृष्ण आडवाणी ने गोवा में नरेंद्र मोदी का मुख्यमंत्री पद बचाया था। 2014 में गांधीनगर में आडवाणी ने कहा था- नरेंद्र मोदी मेरे शिष्य नहीं हैं, वे गजब के इवेंट मैनेजर हैं। जब मैं दोनों (लालकृष्ण आडवाणी और पीएम नरेंद्र मोदी) को देखता हूं तो मुझे ये दोनों बातें याद आ जाती हैं। लालकृष्ण आडवाणी ने 2014 में मोदी का वास्तविक चरित्र देश के सामने रखा था।‘ 

इसी तरह सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कहा है,’ ‘यह भारत रत्न वोट को बांधने के लिए दिया जा रहा है। यह सम्मान में नहीं दिया जा रहा।‘ 

बहरहाल आडवाणी को भारत रत्न मिलने की घोषणा पर जिन विभिन्न शख्सियतों की राय सामने आई है, उनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राय से इस लेखक सहित बहुतों को आपत्ति है। उन्होंने भारतीय राजनीति में आडवाणी के योगदान को याद करते हुए जो कुछ कहा है उसमे आंशिक सच्चाई है।

प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है, ’आडवाणी एक पार्टी के चंगुल से लोकतंत्र को मुक्त कराने के लिए लगातार लड़े और सबका मार्ग दर्शन किया। उन्होंने परिवारवाद की राजनीति को चुनौती दी और भारत के लोकतंत्र को सर्व- समावेशी एवं राष्ट्रवादी विचारधाराओं से जोड़ा’। उनका आशय काग्रेस से है। यह सच है कि आडवाणी ने संघ ब्रांड की राष्ट्रवादी विचारधारा को जोड़ा और तमाम विपक्षी दलों की भांति एक पार्टी( कांग्रेस) के चंगुल से लोकतंत्र को मुक्त कराने के लिए लड़े,पर यह लड़ाई कोई खास न होकर एक विपक्षी नेता की रूटीन लड़ाई थी। और यह तो सरासर झूठ है कि उन्होंने परिवारवाद को चुनौती दी! दरअसल उन्होंने जिस राजनीति को चुनौती दी, वह परिवारवाद की नहीं, सामाजिक न्याय की राजनीति रही! इसी सामाजिक न्याय की राजनीति के खिलाफ लड़ाई का उन्होंने मार्ग दर्शन किया। इसी सामाजिक न्याय की राजनीति को चुनौती देने के क्रम में भारतीय लोकतंत्र का सर्व- समावेशी चरित्र क्षतिग्रस्त हुआ! आडवाणी ने परिवारवाद नहीं, सामाजिक न्याय की राजनीति को चुनौती देकर भारतीय राजनीति में अपना चिरस्थाई जगह बनाया, इस बात का साक्ष्य उनके भारत रत्न की घोषणा के बाद आई राजनीतिक विश्लेषकों राय है। 

अधिकांश ने ही लिखा है कि मण्डल की काट के लिए भाजपा ने राममंदिर का मुद्दा उठाया जिसे आडवाणी ने नेतृत्व दिया और वह राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन में भाजपा का चेहरा बने।

25 सितंबर, 1990 सोमनाथ से शुरू होकर 30 अक्टूबर को अयोध्या पहुँचने वाली जिस राम रथ यात्रा ने आडवाणी को हिन्दुत्व की राजनीति का महानायक बना दिया, उसके विषय में विकिपीडिया में लिखा गया है, ’80 के दशक में विश्व हिंदू परिषद ने ‘राम मंदिर’ निर्माण आंदोलन शुरू किया। भाजपा मंडल कमीशन की काट के रूप में मंदिर मुद्दा लेकर आई और आडवाणी के रामरथ पर सवार होकर देश की मुख्य विपक्षी पार्टी के रूप में उभरी। राम रथ यात्रा एक राजनीतिक और धार्मिक रैली थी, जो 25 सितंबर से अक्टूबर 1990 तक चली थी। इसका आयोजन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और उसके हिंदू राष्ट्रवादी सहयोगियों द्वारा किया गया था। इसका नेतृत्व भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने किया था। यात्रा का उद्देश्य विश्व हिंदू परिषद (विहिप) और संघ परिवार में उसके सहयोगियों के नेतृत्व में आंदोलन का समर्थन करना था, ताकि बाबरी मस्जिद की जगह पर हिंदू देवता राम का मंदिर बनाया जा सके। मस्जिद, 1528 में इस क्षेत्र की मुगल विजय के बाद अयोध्या शहर में बनाई गई थी। यह राम को समर्पित एक मंदिर के ऊपर बनाया गया था, और उनके जन्म स्थल पर खड़ा था। 1980 के दशक में, विहिप और संघ परिवार के अन्य सहयोगियों ने इस स्थल पर राम का मंदिर बनाने के लिए एक आंदोलन शुरू किया और भाजपा ने उस आंदोलन को राजनीतिक समर्थन दिया। 1990 में, वीपी सिंह के नेतृत्व वाली भारत सरकार ने मंडल आयोग की कुछ सिफारिशों को लागू करने का फैसला किया, और घोषणा की कि सत्ताईस प्रतिशत सरकारी नौकरियों को निचली जाति की पृष्ठभूमि के लोगों के लिए आरक्षित किया जाएगा। इस घोषणा से भाजपा के चुनावी क्षेत्र को खतरा था, जिसने मुस्लिम विरोधी भावना को लामबंद करके हिंदू वोट को एकजुट करने के लिए अयोध्या विवाद का इस्तेमाल करने का फैसला किया।

इस आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए, भाजपा ने पूरे देश में अयोध्या तक ‘रथ यात्रा’ की घोषणा की। रथ यात्रा का नेतृत्व लालकृष्ण आडवाणी ने किया था, और इसमें संघ परिवार के हजारों स्वयंसेवक शामिल थे। सैकड़ों गांवों और शहरों से होकर गुजरी यात्रा 25 सितंबर 1990 को सोमनाथ में शुरू हुई। इसने प्रतिदिन लगभग 300 किलोमीटर की यात्रा की, और आडवाणी अक्सर एक ही दिन में छह जनसभाओं को संबोधित करते थे। इस यात्रा ने हिंदुओं में धार्मिक और उग्रवादी दोनों भावनाओं को उभारा, और यह भारत के सबसे बड़े जन आंदोलनों में से एक बन गया। यात्रा ने उत्तर भारत के शहरों में दंगों के साथ, इसके मद्देनजर धार्मिक हिंसा भी शुरू कर दी। यात्रा जहां-जहां से गुजरी, दंगे भड़के और लोगों की प्राण- हानि हुई। परिणामस्वरूप, आडवाणी को बिहार सरकार द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि यात्रा उस राज्य से गुजरती थी। उनके 150,000 समर्थकों को भी उत्तर प्रदेश सरकार ने गिरफ्तार कर लिया था। फिर भी हजारों कार्यकर्ता अयोध्या पहुंचे और मस्जिद पर धावा बोलने का प्रयास किया। जिसके परिणामस्वरूप सुरक्षा बलों के साथ घमासान युद्ध हुआ जिसमें 20 लोग मारे गए। 

इन घटनाओं के कारण पूरे देश में हिंदू-मुस्लिम दंगे भड़क उठे, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए। खासकर उत्तर प्रदेश राज्य में मुसलमान इन दंगों के शिकार होते थे। इन दंगों के बाद, भाजपा ने केंद्र सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया, जिससे जल्दी संसदीय चुनाव हुए। यात्रा के कारण हुए धार्मिक ध्रुवीकरण के बल पर भाजपा को राष्ट्रीय और राज्य दोनों स्तरों पर इन चुनावों में महत्वपूर्ण लाभ हुआ।‘आडवाणी के मंदिर अभियान के सिलसिले में ही ही 6 दिसंबर,1992 को बाबरी मस्जिद टूटी, जिसके फलस्वरूप परवर्ती काल में देश-विदेश में टूटे असंख्य मंदिर: टूटा सांप्रदायिक सौहार्द: इसके फलस्वरूप देश अपार संपदा और असंख्य लोगों की प्राणहानि हुई। 

बहरहाल आडवाणी को भारत रत्न दिए जाने के साथ जो मण्डल रिपोर्ट नए सिरे से चर्चा में आ गई है,वह स्वाधीनोत्तर भारत की सबसे युगांतरकारी घटना थी। इससे उस अम्बेडकरी आरक्षण का विस्तार हुआ था जिसके जरिए दुनिया के सबसे अधिकार विहीन मनुष्य प्राणी: दलित और आदिवासी सांसद- विधायक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफेसर इत्यादि बनकर हिन्दू धर्म- शास्त्रों को भ्रांत प्रमाणित करने के साथ पूरी दुनिया को विस्मित करने लगे थे। इस आरक्षण से प्रभावित होकर अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, फ्रांस, इंग्लैंड इत्यादि ने अपने-अपने देशों के वंचितों : अश्वेतों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं को उनके संख्यानुपात में नौकरियों के साथ सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, फिल्म-मीडिया इत्यादि में हिस्सेदारी देना शुरू किया। किन्तु देर से ही सही, जब 7 अगस्त को मण्डल की रिपोर्ट के जरिए आरक्षण का विस्तार हुआ तो पिछड़ों को नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण तो मिला ही, इससे आगे बढ़कर दलित, आदिवासी,पिछड़े व इनसे धर्मान्तरित तबके भ्रातृ- भाव लिए एक दूसरे के करीब आने लगे और उनके शासक वर्ग में उभरने के लक्षण दिखने लगे. इससे नाटकीय रूप से वंचित बहुजनों की जाति- चेतना का जो राजनीतिकरण हुआ, उससे इस देश के प्रभु वर्ग को राजनीतिक रूप से एक लाचार समूह में तब्दील होने के लक्षण दिखने लगे। तब मंडलवादी आरक्षण के खिलाफ हिन्दू आरक्षण के सुविधाभोगी वर्ग के सभी तबके : छात्र और उनके अभिभावक, साधु-संत, मीडिया कर्मी, लेखक- पत्रकार इत्यादि लामबंद होकर आन्दोलन चलाने लगे. आरक्षण के खिलाफ उमड़ी साधु- संतों और हिन्दू समाज के अग्रसर तबकों की भावना को आडवाणी ने अपनी रथ- यात्रा के जरिए गुलामी के सबसे बड़े प्रतीक राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन से जोड़ दिया। भाजपा के मंदिर अभियान से जो जनोंन्माद उमड़ा, वह मुख्यतः आरक्षण के खात्मे से प्रेरित था। राम जन्मभूमि मुक्ति आन्दोलन के जरिए आडवाणी ने लाखों साधु-संतों,लेखक- पत्रकारों, साध्वी उमा भारती- ऋतंभरा, विनय कटियार इत्यादि को साथ लेकर जिस तरह बाबर की संतानों के प्रति वंचित जातियों में वर्षों से संचित अपार नफरत और राम के प्रति दुर्बलता का जमकर सद्व्यवहार किया, उससे देखते ही देखते भाजपा धार्मिक चेतना के राजनीतिकरण के जरिए वंचितों की जाति चेतना का मुकाबला करने में सफल हो गई। 

आडवाणी के सहारे चुनाव दर चुनाव भाजपा राम मंदिर निर्माण का मुद्दा उठाकर राजनीतिक सफलता के नए-नए अध्याय रचती गयी. चूंकि राम मंदिर के प्रति उमड़े जनोन्माद के पीछे आरक्षण के खात्मे के भावना की क्रियाशीलता ज्यादा थी तथा संघ खुद भी पूना पैक्ट के जमाने से आरक्षण के खात्मे की ताक में रहा, इसलिए आडवाणी के सहारे राम मंदिर से मिली राजसत्ता का इस्तेमाल संघ प्रशिक्षित प्रधानमंत्रियों ने मुख्यतः आरक्षण के खात्मे में किया. इस मामले में प्रधानमंत्री मोदी ने वर्ग- संघर्ष का इकतरफा खेल खेलते हुए आरक्षित वर्गों को लगभग उस स्टेज में पहुंचा दिया है, जिस स्टेज में उन्हें रहने का निर्देश हिन्दू धर्म शास्त्र देते हैं.

बहरहाल कभी दो सीटों पर सिमटी भाजपा देखते ही देखते अप्रतिरोध्य बन गई तो उसमे सबसे बड़ा: संभवतः 1 से 5 तक योगदान आडवाणी का रहा। इसके फलस्वरूप आडवाणी को न सिर्फ भाजपा का निर्विवाद रूप से नंबर एक नेता का खिताब मिलना चाहिए था, बल्कि राम मंदिर आंदोलन को दूर से निहारने वाले अटल बिहारी वाजपेयी के पहले उनको ही प्रधानमंत्री बनना चाहिए था। किन्तु भाजपा और उसके पितृ संगठन आरएसएस ने उन्हें वाजपेयी के मुकाबले कमतर महत्व दिया। यही नहीं आडवाणी जब 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ओर से पीएम चेहरा बनकर उतरे, उन्हें भाजपा- संघ की ओर से योग्य समर्थन नहीं मिला।इस बात पर दुख प्रकट करते हुए तब भाजपा के रणनीतिकार सुधीन्द्र कुलकर्णी ने लिखा था, ’भाजपा नेतृत्व ने लालकृष्ण अडवाणी का वैसा साथ नहीं दिया जैसा कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने मनमोहन सिंह का दिया। आडवाणी को निर्णायक सरकार चला सकने वाले मजबूत नेता सिद्ध करने में सिवाय पोस्टर लगाने के भाजपा ने कोई मेहनत नहीं की। आडवाणी का राजनीतिक अनुभव और छवि बहुत शानदार रही है। वाजपेयी सिर्फ इसलिए प्रधानमंत्री बन सके क्योंकि इसके लिए संगठन के स्तर पर आडवाणी ने जमकर मेहनत की थी और अपनी किसी महत्वाकांक्षा से इंकार कर दिया था।‘ 

संघ-भाजपा की ओर से आडवाणी को उपेक्षा शायद उनके अब्राह्मण होने के कारण मिली थी। जिस तरह स्वामी विवेकानंद हिन्दू धर्म को विश्व चैंपियन बनाकर भी अब्राह्मण होने के कारण किसी धाम का शंकराचार्य न बन सके, उसी तरह आडवाणी अब्राह्मण होने के कारण भाजपा को फर्श से अर्श पर पहुंचाकर भी वह सम्मान न पा सके, जिसके वह हकदार रहे। उनकी यह दशा देखते हुए मैंने अपनी 1400 पृष्ठीय संपादित पुस्तक ‘ डाइवर्सिटी ईयर बुक : 2009 -10 ‘ को आडवाणी जी को इन शब्दों में समर्पित किया था, ’हिन्दुत्व की राजनीति के विवेकानंद लालकृष्ण आडवाणी को, जिन्होंने भारतीय राजनीति पर कांशीराम और इंदिरा गांधी की भांति गहरी छाप छोड़ा !‘ 

बहरहाल जो आडवाणी भाजपा में योग्य सम्मान से सदा महरूम रहे, उन्हें भारत रत्न मिलने की घोषणा से निश्चय ही उनके गुणानुरागियों को भारी राहत मिली होगी, ऐसा इस लेखक का ख्याल है। 

च एल दुसाध

(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)