मोदी सरकार ने यह समझा था कि 26 जनवरी की ट्रैक्टर रैली के दौरान, एक छोटे से तथा अलग-थलग ग्रुप से जुड़ी चंद घटनाओं को, मीडिया व प्रचार के साधनों पर अपने लगभग मुकम्मल नियंत्रण के जरिए अनुपातहीन तरीके से फुलाकर, वह किसानों के दुनिया के संभवत: सबसे बड़े प्रदर्शन को लोगों की नजरों से छुपाने कामयाब हो जाएगी। वह अपने प्रचार हमले के जरिए किसानों के समूचे आंदोलन की ही वैधता, उसके हिंसक होने के नाम पर खत्म करने में तथा जनता को उसके खिलाफ खड़ा करने में भी सफल हो जाएगी। यहां से आगे, शासन की दमनकारी ताकत का इस्तेमाल कर आंदोलन को कुचलना (Crush the movement using the government's repressive force), उसके लिए एक ही कदम दूर रह जाता था। आखिरकार, यह ऐसा आजमूदा तरीका है, जिसे मोदी-शाह की सरकार इससे पहले, सीएए-एनआरसी के खिलाफ ऐसे ही देशव्यापी, बहुत हद तक स्वत:स्फूर्त, अभूतपूर्व जनांदोलन को दबाने के लिए, आजमा कर देख भी चुकी थी।
सभी ने देखा कि किस तरह, लाल किले पर हिंसा (Violence on red fort) तथा तिरंगे के अपमान के अतिरंजित तथा अर्द्ध-सत्यों के सहारे खड़े किए गए आख्यान के प्रचार अंधड़ के बीच, न सिर्फ हिंसा के सिलसिले में अंधाधुंध गिरफ्तारियों और अधिकांश महत्वपूर्ण किसान नेताओं को एफआईआर में नामजद करने के जरिए, आंदोलन के नेतृत्व को छिन्न-भिन्न करने की कोशिश की गई, बल्कि करीब दो महीने से राजधानी के विभिन्न बार्डरों पर लगे विशाल सत्याग्रह जमावड़ों को जोर-जबर्दस्ती से हटाने की भी कोशिश की गई। पुन: इसके लिए भी एक तो 'स्थानीय' लोगों के नाम पर, संघ-नियंत्रित
'गोली मारो सालों को' और 'जय श्रीराम' के नारे लगाती ऐसी कथित रूप से विक्षोभ से उग्र भीड़, सबसे पहले यानी 28 गाजीपुर बार्डर पर पहुंची। इस भीड़ को भाजपा का लोनी का विधायक उकसा रहा था और खासतौर पर सिख सत्याग्रहियों के खिलाफ हिंसा कर के, जबर्दस्ती धरना हटाने की धमकियां दे रहा था।
इसके पूरक के रूप में, उत्तर प्रदेश की आदित्यनाथ सरकार ने पुलिस व प्रशासन को राज्य भर में तमाम किसान धरनास्थल आधी रात तक खाली कराने के मौखिक आदेश भी दे दिए थे। इसी आदेश के साथ, हमले के सारे साज-सामान से लैस हजारों पुलिस वाले गाजीपुर बार्डर पर बैठे सत्याग्रहियों को घेर चुके थे और गोदी मीडिया के गिद्ध, जाहिर है कि सरकारी सूत्रों से इशारा पाकर, आंदोलन का डेरा उठने की सबसे पहले, सबसे तेज कवरेज करने के लिए मंडराने भी लगे थे।
लेकिन, तभी कुछ ऐसा हुआ, जिसकी किसी ने भी कल्पना नहीं की थी, न किसान आंदोलनकारियों ने और आंदोलन को दबाने पर तुली मोदी सरकार ने। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान नेता राकेश टिकैत, जिनके पिता महेंद्र सिंह टिकैत, चौधरी चरणसिंह के बाद, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े किसान नेता थे, शासन और सत्ताधारी दल के हिंसा के इरादों के सामने, शांतिपूर्ण सत्याग्रह दे रहे किसानों की लाचारी देखकर, रो पड़े। और सोशल मीडिया की प्रभावी उपस्थिति के इस जमाने में, उनके रो पड़ने का वीडियो वाइरल हो गया। फिर क्या था, अधेड़ किसान नेता के आंसुओं से जैसे तूफान उठ खड़ा हुआ। यह किसान के आत्मसम्मान के लिए चुनौती थी।
कुछ ही घंटों में, जाहिर है कि पहले सोशल मीडिया पर ही इसकी खबरें आने लगी थीं कि अगले ही दिन, मुजफ्फरनगर में किसानों की महापंचायत बुलाई गई है।
फिर खबर आई कि हरियाणा में एक से ज्यादा जगहों पर किसानों ने सरकार के दमनकारी हथकंडों के खिलाफ राजमार्ग रोकने शुरू कर दिए थे। फिर खबर आई कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में और हरियाणा में जगह-जगह गांवों में किसानों ने रात में ही आपात बैठकें कर के, गाजीपुर बार्डर की ओर वाहनों से कूच करना शुरू कर दिया था। इसके बाद, कहां तो आधी रात तक आंदोलन के तंबू उखड़ने थे और कहां रात के ग्यारह बजे तक न्यूज चैनलों तक पर इसकी ब्रेकिंग न्यूज़ आनी शुरू हो गई कि गाजीपुर में लगाई गई अतिरिक्त पुलिस, वापस लौटनी शुरू हो गई है। रात साढ़े ग्यारह-बारह बजते-बजते, गोदी चैनलों के गिद्ध निराशा के साथ अपने डैने समेट कर उड़ चले थे।
फिर भी सीएए-एनआरसी फार्मूले की आजमाइश बंद नहीं हुई। अगले ही दिन, ये 'स्थानीय' विक्षुब्ध, बाकायदा पुलिस के मिलीभगत से सिंधू बार्डर पर सत्याग्रहियों से इलाका खाली करने की मांग करने पहुंच गए। लाठी-डंडों से लैस इन लोगों को, सत्याग्रहियों के कैंपों पर तोड़-फोड़ करने, तंबुओं को गिराने और वहां मौजूद हजारों सत्याग्रहियों को गालियां देकर भड़काने और रोकने के लिए आए कुछ नौजवान किसानों से भिड़ने का भी मौका दिया गया। लेकिन, जब किसान आंदोलनकारियों ने इन हमलावर गिरोहों को रोकने की कोशिश की, पुलिस ने उन पर ही डंडे बरसाना शुरू कर दिया। दर्जनों किसान आंदोलनकारियों के चोटें भी आईं और उनमें से अनेक को गिरफ्तार भी किया गया, लेकिन हमलावर उपद्रवियों में से किसी को भी पुलिस ने नहीं पकड़ा।
बाद में, ऐेसे ही 'विक्षुब्ध स्थानीय' टीकरी बॉर्डर पर भी पहुंचे। लेकिन, इस बीच 26 जनवरी की ट्रैक्टर परेड के बाद, इन धरनास्थलों पर आंदोलनकारी किसानों की संख्या में अगर कोई कमी आई भी थी, तो वह प्रक्रिया एकदम पलट चुकी थी और आंदोलनकारी किसानों की संख्या तेजी से बढ़ गई थी। इसलिए, टीकरी बार्डर पर ये 'प्रदर्शनकारी' सिर्फ प्रदर्शन कर के ही लौट गए।
लेकिन, भाजपाई राज के दुर्भाग्य से इस बीच हवा पलट चुकी थी। मुजफ्फरनगर से शुरू हुआ किसान महापंचायतों का सिलसिला, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ ही केंद्रों से होते हुए, जल्द ही एक ओर हरियाणा में और दूसरी ओर राजस्थान में पहुंच गया। नतीजा यह हुआ कि उत्तर प्रदेश में बड़ौत में और हरियाणा-उत्तरप्रदेश की सीमा पर पलवल में और कुछ अन्य जगहों पर भी पुलिस ने कथित स्थानीय लोगों यानी संघ गिरोह को साथ लेकर, जो सत्याग्रह स्थल खाली करा लिए थे, सत्याग्रहियों के लिए चल रहे लंगर बंद करा दिए थे और किसान आंदोलनकारियों द्वारा राजमार्गों पर बंद कराए गए टोला प्लाजा, जबरन खुलवा लिए थे, वहां तेजी से 26 जनवरी से पहले की स्थिति बहाल होने लगी।
सत्याग्रह स्थलों पर हमले की एक तरह से आखिरी घटना, भाजपा-शासित ग्वालियर में हुई, जहां संघी उपद्रवियों ने धरने पर बैठे लोगों से, जिनमें महिलाएं भी थीं, मार-पीट की। लेकिन, दो-दिन बाद ही न सिर्फ ग्वालियर का धरना और जोरदार तरीके से दोबारा चालू हो गया, बल्कि खुद कृषि मंत्री के अपने क्षेत्र, डबरा में किसानों की विशाल सभा ने तीनों काले कृषि कानून वापस लेने की जोरदार मांग उठाई। यह दूसरी बात है कि इस सबके बावजूद, झूठ को सच बनाकर चलाने में असीम विश्वास करने वाली मोदी सरकार के कृषि मंत्री (Agriculture Minister of Modi Government) को, राज्यसभा में यह दावा करने में हिचक नहीं हुई कि 'सिर्फ एक राज्य के कुछ किसानों को' विवादित कृषि कानूनों से दिक्कत है!
इस तरह, अब जबकि तीन नये कृषि कानूनों को वापस कराने की मांग को लेकर, दिल्ली की सीमाओं पर डटे किसानों का धरना/ सत्याग्रह अपने पिचहत्तरवें दिन के करीब पहुंच रहा है, एक बात बिल्कुल साफ-साफ देखी जा सकती है। इस अभूतपूर्व किसान आंदोलन को दबाने की, लाल किला प्रकरण को हथियार बनाने समेत मोदी राज की सारी कोशिशें न सिर्फ विफल हो गई हैं बल्कि वास्तव में उल्टी ही पड़ रही हैं। इन कृषि कानूनों के खिलाफ किसान पंचायतों के जरिए, किसानों की जैसी जबर्दस्त गोलबंदी 26 जनवरी के बाद से हुई है, वैसी कम से कम हरियाणा, राजस्थान तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इससे पहले नहीं हुई थी। इसके अलावा इन कानूनों के खिलाफ बिहार समेत लगभग पूरे देश में किसानों की जैसी व्यापक गोलबंदियां हुई हैं, खासतौर पर महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल तथा बंगाल में जैसे विशाल प्रदर्शन हुए हैं, उन्हें भी मोदी सरकार के अंधभक्तों के सिवा और कोई अनदेखा नहीं कर सकता है।
उधर, किसान आंदोलन के 'अराजनीतिक' दिखाई देने के अतिरिक्त आग्रह से, एक तरह की दुविधा में रहीं विपक्षी राजनीतिक पार्टियों ने भी, विपक्ष की अपनी भूमिका खोज ली है और संसद के चालू सत्र में एकजुट होकर और लगातार, किसान आंदोलन के मुद्दे पर मोदी सरकार को घेर रही हैं।
लेकिन, अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार जैसे हवाई घोड़े पर सवार हैं और जैसे सबसे बढ़कर मोदी को देवता के रूप में स्थापित करने में लगी है, वह पांव पीछे खींचती कैसे दिखाई दे सकती है? देश भर के किसान कहें तब भी वह कृषि कानूनों को वापस लेकर, उनके सामने झुकती हुई कैसे दिखाई दे सकती है? और इसका कोई बीच का रास्ता अब है नहीं कि किसान आंदोलन भी वापस ले लें और मोदी सरकार झुकती हुई भी दिखाई नहीं दे। इसीलिए, यह सरकार अब हताशा में अंधाधुंध कार्रवाइयां कर रही है। सुरक्षा सुनिश्चित करने के नाम पर दिल्ली में तीन सबसे बड़े आंदोलनकारी बार्डरों—सिंधू, टीकरी तथा गाजीपुर—पर कंटीले तारों से लेकर, सड़क पर स्थायी रूप से बहुत बड़ी-बड़ी कीलें गाड़ने तथा खाइयां खोदने व सड़कें काटने/ बंद करने तक के जरिए, ऐसे प्रबंध किए गए हैं जिनसे ये बार्डर, अंतरराष्ट्रीय सीमाओं से भी ज्यादा खतरे वाले लगने लगे हैं। और इन सुरक्षा प्रबंधों की आड़ में, न सिर्फ धरना स्थलों तक दिल्ली से लोगों का आना-जाना बहुत-बहुत मुश्किल बना दिया गया है बल्कि धरना स्थलों की बिजली, पानी की आपूर्ति बंद करने से आगे, उनकी शौचालयों आदि तक पहुंच को भी बहुत मुश्किल कर दिया गया है। एक भिन्न स्तर पर आंदोलनकारियों का टिकना मुश्किल बनाने का ऐसा ही काम, इन सभी इलाकों में और खासतौर पर हरियाणा में दूसरी अनेक जगहों पर भी, इंटरनेट बंद कराने के जरिए भी किया गया है।
जाहिर है कि यह इसकी झूठी उम्मीद में भी किया जा रहा है कि इस तरह सोशल मीडिया का तक पहुंच रुकवाकर, इस आंदोलन को देश-दुनिया से छुपाया जा सकता है। स्वतंत्र पत्रकारों को धरनास्थलों पर जाने से रोकने से लेकर जेलों में बंद करना तक, इसी कोशिश का हिस्सा है।
सारी दुनिया देख रही है इस किसान आंदोलन को
लेकिन, वास्तव में हो रहा है, वे जो चाहते हैं उससे उल्टा। सारी दुनिया इस आंदोलन को देख रही है और सरकार की हठधर्मिता को भी देख रही है। किसानों के ऐसे जबर्दस्त विरोध के बावजूद, वह ऐसे कानून थोपने पर बजिद है, जिनका औचित्य यही बताया जा रहा है कि उनसे किसानों का भला होगा! प्रजा के विरोध के बावजूद, जबरन उसकी कथित भलाई के कदम उठाने का यह मॉडल, किसी महाराजाधिराज और उसकी प्रजा के रिश्ते का ही मॉडल है, जिसे मोदी भक्तों को छोड़कर देश में भी कोई जनतंत्र का मॉडल मानने को शायद ही तैयार होगा और बाकी दुनिया में तो सवाल ही नहीं है।
नतीजा यह कि पॉप गायिका रियाना (Rihana) से लेकर पर्यावरणीय कार्यकर्ता ग्रेटा थुनबर्ग (Greta Thunburg) तक, किसान आंदोलन पर चिंता जता रहे हैं और मोदी सरकार का विदेश मंत्रालय आधिकारिक रूप से इस पर नाराजगी जताकर और दिल्ली पुलिस मुकद्दमा कायम कर, दुनिया भर में भारत की और ज्यादा हंसी उड़वा रहे हैं। ऐसा ही किस्सा, बिडेन प्रशासन से लेकर कनाडा के प्रधानमंत्री तक के बयानों पर विदेश मंत्रालय की शिकायती प्रतिक्रियाओं का है।
भारत सरकार के षड़यंत्र के दावों पर दुनिया हँस रही है। यह अहंकारी सरकार अपनी बौखलाहट में, देश का और न जाने कितना नुकसान कराएगी।
राजेंद्र शर्मा