बेगुसराय लोकसभा सीट(Begusarai Lok Sabha seat) का अन्य लोकसभा क्षेत्रों में सबसे महत्वपूर्ण हो जाना और सबसे अधिक चर्चा में होना अनायास ही नहीं है. यह लोक सभा सीट अपने परिणाम से अधिक प्रक्रिया के लिए भविष्य में लम्बे अरसे तक याद किया जाएगा. इसकी लोकप्रियता के बहुत सारे कारण हैं जिस पर विचार करना राजनैतिक शोध कर्ताओं के लिए काफ़ी दिलचस्प है.
इस चुनाव को महागठबंधन, कन्हैया (वामपंथ), और बीजेपी के कोण से समझने की जरुरत है. महागठबंधन की नींव में कन्हैया का योगदान और उसकी जरुरत को नकारा नहीं जा सकता है. अगर बीजेपी के विरोधियों को एकजुट करने की रणनीति की दृष्टि से देखा जाए तो कन्हैया एक महत्वपूर्ण इकाई जरुर है. लेकिन महागठबंधन द्वारा कन्हैया को सीट न दिया जाना सिर्फ इतनी सी घटना नहीं है कि महागठबंधन ने उसे लड़ने से तो नहीं रोका है? इसके पीछे की रणनीति को ठीक से समझना होगा.
जहाँ एक ओर तेजस्वी चुनावी आधार पर बीजेपी का विरोधी रहा है वहीं कन्हैया का संघर्ष सैद्धांतिक और व्यावहारिक स्तर पर भी तेजस्वी से मजबूत रहा है. तेजस्वी का विरोध पार्टी आधारित रहा है और कुछ हद तक व्यक्तिगत भी जबकि कन्हैया का संघर्ष सामाजिक अधिक और राजनैतिक कम रहा है. इस आधार पर देखें तो कन्हैया का लड़ना स्वाभाविक है.
महागठबंधन की मजबूती और एन.डी.ए. के विरोध के लिए कन्हैया को शामिल करना जरूरी था. लेकिन दलीलें दी जा रही है कि पिछली बार राजद के उम्मीदवार तनवीर हसन को लाखों वोट मिले थे और वह दूसरे नंबर पर रहे थे.
अब जरा बीजेपी के आधार पर देखिये. बीजेपी सत्ता पर किसी भी तरह कब्ज़ा के लिए उसी बिहार में अपनी पांच जीती हुई सीट से समझौता करते हुए गठबंधन करती है. इस दृष्टि से देखा जाए तो ‘दूसरे नंबर’ की यह दलील निराधार है.
अब इस स्थिति को थोडा गहराई से देखते हैं.
कन्हैया का चुनाव में
वहीं राहुल गाँधी और तेजस्वी के पास मोदी विरोध करने के लिए पर्याप्त संसाधन थे. राहुल गाँधी इस बात से भी परिचित थे कि कन्हैया किन स्थितियों में संघर्ष कर रहा है? यही कारण है कि वे बार-बार कन्हैया के पास जाते हैं.
लेकिन अचानक ऐसा क्या हुआ कि बीजेपी के ख़िलाफ लाइसेंसी (चुनावी) लडाई में अचानक से राहुल और तेजस्वी के गठबंधन में कन्हैया को लाइसेंस देने से रोका जाता है और उनके अंधभक्त समर्थक बुद्धिजीवी कन्हैया के फिट न बैठने के पक्ष में घबराहट में तर्क देने लगे कि – “वह बेगुसराय से ही क्यों लड़ना चाहता है, वह भूमिहार जाति का है और तेजस्वी कन्हैया से बड़ा चेहरा है.”
कहने की आवश्यकता नहीं कि यह तीनों तर्क कुतर्क हैं और इसका कोई आधार नहीं है. न तो कन्हैया जातिवादी है, न वह तेजस्वी से छोटा चेहरा है और जहाँ तक बात है बेगुसराय से लड़ने की तो इसके प्रयाप्त कारण हैं जिसका प्रयोग अन्य सभी दल नैतिकता के दायरे में प्रयोग करते रहे हैं फिर कन्हैया का वहां से लड़ना अचानक से अनैतिक कैसे हो जाता है?
आप ध्यान दें तो देखेंगे कि 2014 की लोक सभा में बिहार में मोदी लहर के बाद राज्यों के चुनाव में राजद अपनी स्थति दुबारा पाने में कामयाब रही. मसलन लोकसभा की हार को विधानसभा में बदला जा सकता है. इसका अर्थ यह भी कि यदि गिरिराज बेगुसराय से चुनकर आते हैं, बावजूद इसके तेजस्वी के लिए विधानसभा में इसे दुबारा प्राप्त का मौका शेष रह जाता है. लेकिन किसी भी स्थिति में कन्हैया के चुनकर आ जाने पर ऐसा नहीं होगा. उलटे लेने के देने पड़ सकते हैं. मसलन विधानसभा में कन्हैया सिर्फ बेगुसराय से ही नहीं बल्कि आस पास के इलाकों पर भी लेफ्ट के प्रभाव से प्रभावित कर सकता है. इसलिए यह कहा जाना तर्कसंगत ही जान पड़ता है कि ‘कन्हैया से तेजस्वी घबराए हुए हैं’.
अब जरा तेजस्वी के बीजेपी विरोध की प्रतिबद्धता देखिए. खगड़िया सीट से कृष्णा यादव और पप्पू यादव के साथ हुए कन्हैया के समीकरण की गुंजाईश तभी बनती है जब तेजस्वी इस प्रकार का बचकाना फैसला लेते हैं. इन नए समीकरणों से महागठबंधन को नुकसान ही पहुंचेगा यह बात तो राजनीति का क ख ग जानने वाला भी बखूबी समझता है.
मसलन आप ध्यान दें तो तेजस्वी की डगर मोदी विरोध पर कम और अपने राजनैतिक करियर को सँभालने की ओर अधिक है. कन्हैया के साथ ऐसी स्थिति नहीं है. मैंने पहले भी कहा है कि “कन्हैया और तेजस्वी में वही अंतर है जो क्रमशः प्रतिरोध और प्रतिशोध में है.”
अब जहाँ तक बात रही बौद्धिकों की तो उनके साथ मूल दो समस्या है. एक जो तेजस्वी की जाति से संबंधित हैं वे सभी नव-ब्राह्मणवाद की राह पर अग्रसर हैं जो किसी भी सूरत में अपनी जाति को छोड़ नहीं सकते. कईयों का भविष्य भी इसी चापलूसी पर निर्भर है. वे यह भी नहीं सोचते कि जिस समय नौकरी या अन्य भिक्षा पाने के लिए वे स्तुति गान कर रहे हैं उसी अवस्था में कन्हैया राज्य से संघर्ष करता रहा है. अब दूसरे वे हैं जो पत्र पत्रिकाओं के मालिक और अवैध रूप से पिछड़ों के बुद्धिजीवी बने हुए हैं. वे कहए हैं कि –“कन्हैया जाति पर क्यों नहीं बात करता ?” और कन्हैया कहता है कि “मैं नहीं करूँगा”. अब दिक्कत यह भी है कि वे यह तो बहुत पहले से मानते रहे हैं कि कन्हैया क्रांतिकारी है लेकिन अगर उसकी राजनीति परवान चढ़ती है और जाति विमर्श कमजोर होते हुए बदलाव होता है तब ऐसी स्थिति में समानता भले आ जाए लेकिन इन जाति-विमर्श की रोटियाँ सेंकने वालों की दुकानें बंद हो जाएगी. ऐसी स्थिति भारत देश में जब जब आती है तो इससे निपटने के लिए अंतिम दो ही ब्रह्मास्त्र लाभकारी सिद्ध होते हैं पहला ‘जाति’ का और दूसरा ‘चरित्र’ का. संभव है कि जाति के बंधन से निकलते ही कन्हैया ‘चरित्र’ के माया-जाल में जल्द ही उलझा दिया जाए. लेकिन संभव यह भी कि वह इस चरित्र के जाल को भी कहीं आसानी से उधेड़ न दे. ठीक वैसे जैसे वह जाति के जाल को लगातार उधेड़ रहा है.
2019 लोक सभा में बेगुसराय क्षेत्र के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जाति आधारित राजनीति और इनके चमचों से न तो पिछड़ी जातियों का भला होने वाला है और न कभी जातिवाद मिटने वाला है. अच्छी बात यह है कि धीरे धीरे आम जनता भी इस बात को महसूस करने लगी है और इसीलिए बौखलाहट भी अपने चरम पर है. यदि ऐसा नहीं होता तो कन्हैया के साथ बेगुसराय में मुस्लिम समाज भी खड़ा नहीं होता.
तेजस्वी भले 32 ए. सी. की हवा खाकर हुंकार भर रहे हों लेकिन कन्हैया अपनी लडाई के साथ साथ रोहित वेमुला, जुनैद, अख़लाक़, नजीब, उना के दलित, गोरखपुर के बच्चे, राजस्थान के अफराजुल और गरीबी-बेरोजगारी की लड़ाई भी लड़ता है. इसलिए जो बुद्धिजीवी बेशर्मों की तरह कन्हैया के संसद नहीं पहुचने का व्रत लिए हुए हैं उन्हें यह पता होना चाहिए कि यह आवाज सदन के बाहर भी गूंजता रहा है और पूर्व की यह गूंज इस बार अंदर भी गूंजेगी.
संजीव ‘मजदूर’ झा.