सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव (Seventh Lok Sabha election) में जनता ने नरेंद्र मोदी के पक्ष में निर्णायक फैसला (decisive decision in favor of Narendra Modi) दिया है। यह फैसला कितना नरेंद्र मोदी के पक्ष में है, कितना भाजपा के पक्ष में और कितना भाजपा के नेतृत्ववाले गठबंधन, एनडीए के पक्ष में, इस पर तो बहस हो सकती है। लेकिन, इस पर किसी बहस की गुंजाइश नहीं है कि जनादेश स्पष्ट और निर्णायक है। इस चुनाव में जनता ने भाजपा और उसके नेतृत्व में एनडीए को दोबारा बहुमत देने के जरिए, एक प्रकार से नरेंद्र मोदी के पांच साल शासन के रिकार्ड का अनुमोदन ही नहीं किया है, 2014 के चुनाव के मुकाबले उनकी ताकत में कुछ न कुछ बढ़ोतरी ही की है। अचरज नहीं कि इस तथ्य को खुद भाजपा नेताओं समेत प्राय: सभी टिप्पणीकारों ने रेखांकित किया है कि इंदिरा गांधी के 1971 के चुनाव के बाद पहली बार, एक पूर्ण बहुमत से चुनी गयी सरकार की सत्ता में वापसी हुई है।
विपक्षी एकजुटता हुई बेअसर
इस जनादेश की निर्णायकता के सिलसिले में यह जोड़ना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि भाजपा और उसके नेतृत्ववाले गठबंधन की पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में वापसी, उनकी सीटों से बढ़कर वोट में बढ़ोतरी के बल पर हुई है।
2014 के चुनाव के मुकाबले विपक्ष इस बार ज्यादा एकजुट था, फिर भी एनडीए ने अपने वोट में लगभग 7 फीसद की बढ़ोतरी दर्ज कराते हुए, 45.5 के अंक को छू लिया और इस तरह पिछली बार से ज्यादा विपक्षी एकजुटता को चुनावी लिहाज से बेअसर कर दिया।
कम हुआ सपा-बसपा का वोट
एनडीए के वोट में इस बढ़ोतरी का असर हिंदीभाषी राज्यों और पश्चिमी भारत में आम तौर पर दिखाई दिया है, जहां आम तौर पर
उत्तर प्रदेश में 2014 के चुनाव के एनडीए के वोट में इस बढ़ोतरी के मुकाबले में, सपा-बसपा का इस बार का वोट, उनके 2014 के वोट के योगफल से भी घट गया। इस बार सपा-बसपा गठबंधन के हिस्से में देश में पड़े कुल वोट का 6.4 फीसद ही आया, जो पिछले बार के उनके वोट के योग से 1.25 फीसद कम था।
अचरज की बात नहीं है कि एनडीए ने उत्तरी तथा पश्चिमी भारत में अपने 2014 के झाड़ूमार प्रदर्शन को कमोबेश दोहराया है और उसमें खासतौर पर उत्तर प्रदेश में आई कमी की, पूर्वी-भारत में ओडिशा तथा खासतौर पर बंगाल में लगाई कारगर सेंध से, पर्याप्त से ज्यादा भरपाई कर ली है।
एनडीए के पक्ष में जनादेश : देश के आधे मतदाताओं से भी कम की ही इच्छा का प्रतिनिधित्व
बेशक इस निर्णायक जनादेश के बावजूद यह तथ्य अपनी जगह है कि मोदी के नेतृत्व में एनडीए के पक्ष में यह जनादेश, देश के आधे मतदाताओं से भी कम की ही इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है।
55 फीसद से ज्यादा मतदाताओं ने तो इस चुनाव में भी इस देशव्यापी गठबंधन के खिलाफ ही वोट दिया है। लेकिन, इसके साथ ही यह भी सच है कि देश के पैमाने पर सत्ताधारी गठबंधन के लिए मुख्य चुनौती बनकर सामने आया कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूपीए, 2014 के चुनाव के मुकाबले अपनी सीटों में तथा वोट में मामूली बढ़ोतरी के बावजूद, जन-समर्थन में सत्ताधारी गठजोड़ से बहुत पीछे है। 2019 के चुनाव में उसे लगभग 28 फीसद वोट ही मिले हैं, जो सत्ताधारी एनडीए के दो-तिहाई से भी कम हैं।
बेशक, इन दो मोर्चों से बाहर भी वोट का एक बड़ा हिस्सा बिखरा हुआ है, लेकिन उसके बिखराव के अलावा जो कि उसके हस्तक्षेप को कमजोर करता है, वोट के इस हिस्से का मोदी की जीत के दो चुनावों के बीच गिरावट पर होना भी, एक महत्वपूर्ण सच्चाई है।
एनडीए और यूपीए, दोनों के मत फीसद में हुई बढ़ोतरी
जाहिर है कि एनडीए और यूपीए, दोनों के मत फीसद में बढ़ोतरी, इन 'अन्य' पार्टियों के वोट में कमी से ही आई है और इसमें वामपंथ के वोट में कमी भी शामिल है।
यह ध्यान दिलाने का आशय यह है कि सोलहवीं लोकसभा की ही तरह सत्रहवीं लोकसभा में संख्या संतुलन के चलते ही नहीं बल्कि जनमत के बीच समर्थन के संतुलन के चलते भी, मोदी-2 की सरकार पर विपक्ष का कारगर जनतांत्रिक अंकुश रहने के आसार कम ही नज़र आते हैं। इसलिए, यह उम्मीद नहीं की जा सकती है कि नरेंद्र मोदी को, जो पहले ही देश भर में 'एक-एक वोट नरेंद्र मोदी के लिए' मांग कर, प्रधानमंत्री व्यवस्था की जगह पर, व्यवहार में राष्ट्रपति प्रणाली रोप चुके हैं, बहुमत की निरंकुशता के रास्ते पर बढ़ने से आसानी से रोका जा सकेगा।
धर्मनिरपेक्षता पर प्रधानमंत्री मोदी की शेखी
2019 में मोदी ने नेतृत्व में जिस तरह उक्त जनादेश हासिल किया गया है और मोदी समेत आरएसएस-भाजपा द्वारा इस जनादेश का जो अर्थ लिया जा रहा है, दोनों से ही बहुमत की निरंकुशता की इन आशंकाओं को बल मिलता है। यह सिर्फ संयोग ही नहीं है कि अपनी 'ऐतिहासिक जीत' के फौरन बाद, नई-दिल्ली में भाजपा मुख्यालय पर हुए विजय समारोह में बोलते हुए, प्रधानमंत्री मोदी ने यह कहने की रस्म अदायगी तो की कि 'सरकार बहुमत से चुनी जाती है, पर देश जन सहमति से चलता है', कि वह चुनाव की कटुताएं पीछे छोड़ आए हैं तथा सब के हित के लिए काम करेंगे आदि, लेकिन इसके साथ ही वह यह ध्यान दिलाना नहीं भूले कि उनकी जीत, इस बहुधार्मिक देश में धर्मनिरपेक्षता की चिंताओं की हार है।
प्रधानमंत्री मोदी ने इसकी शेखी मारी कि उनके पांच साल के राज ने यह सुनिश्चित किया था कि जिस देश में बात-बात पर लोग धर्मनिरपेक्षता की तख्ती लगाए विरोध जताने निकल आते थे, इस बार चुनाव में किसी भी पार्टी की हिम्मत नहीं हुई कि धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा उठाए, 'सेकुलरिज्म शब्द का उच्चारण भी तक करे'।
बेशक, मुख्यधारा की पार्टियों ने और खासतौर पर कांग्रेस ने, इस चुनाव में जिस तरह से भाजपा के अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण (appeasement of minorities) करने के और वास्तव में हिंदू-विरोधी होने का आक्षेपों की काट, खुद को ज्यादा से ज्यादा हिंदू दिखाने के भोंडे करतबों से करने की कोशिश की थी, उससे प्रधानमंत्री मोदी के उक्त दावे की पुष्टि भी होती है।
अगर यह संयोग नहीं है कि मोदी-शाह की भाजपा ने मालेगांव आतंकी विस्फोट की मुख्य आरोपी, साध्वी प्रज्ञा को सोच-समझकर भोपाल से भाजपा का उम्मीदवार बनाया था और उसे उम्मीदवार बनाने का यह कहकर बचाव किया था कि यह 'भगवा आतंक' का नाम लेने के जरिए किए गए हिंदुओं के अपमान का जवाब था और अमित शाह ने तो इसे ''सत्याग्रह'' ही करार दे दिया था, वहीं यह भी सच है कि कड़े मुकाबले में उलझे पूर्व-मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह, इस मिली-जुली संस्कृति की पुरानी परंपरा वाले शहर में भी, अपने हिंदूविरोधी होने के आक्षेपों की काट के लिए सार्वजनिक प्रदर्शनात्मक तरीके से कथित संतों-महंतों का ही सहारा तलाश कर रहे थे। लेकिन, प्रधानमंत्री का यह दावा क्या सच होने की वजह से ही और भी चिंताजनक नहीं हो जाता है!
बेशक, मोदी के पांच साल के शासन के बाद धर्मनिरपेक्षता की चिंता (concern for secularism) के पहलू से देश की राजनीति को जिस मुकाम पर पहुंचा दिया गया है, वहां अब शायद ही कोई यह सवाल उठना जरूरी समझता है कि भाजपा के जो तीन सौ से ज्यादा सांसद इस बार चुने गए हैं, उनमें से इस बार भी एक भी मुसलमान क्यों नहीं है? ऐसे चरित्र के साथ भाजपा सबका साथ सबका विकास का दावा किस मुंह से करती है?
रेंगते हुए आगे बढ़ रहा है हिंदू राष्ट्र
यह सवाल भी शायद ही कोई उठाएगा कि संसद में मुसलमानों का हिस्सा 5 फीसद पर ही क्यों सिमट गया है, जबकि देश की आबादी में उनका हिस्सा पंद्रह फीसद के करीब है। लेकिन, प्रधानमंत्री मोदी के इस दावे के संकेतों की अनदेखी तो कोई नहीं कर सकता कि उनकी चुनावी जीत, धर्मनिरपेक्षता की हार है।
जाहिर है कि मोदी-द्वितीय की सरकार अपनी इस कामयाबी को और पुख्ता करने की कोशिश करेगी। उसने शुरूआत में ही धर्मनिरपेक्षता की चिंताओं को ही नहीं, अल्पसंख्यकों को ही और खासतौर पर मुसलमानों को, राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श से बाहर धकेलने के अपने एजेंडे का ऐलान कर दिया है।
हिंदू राष्ट्र, रेंगते हुए आगे बढ़ रहा है। नरेंद्र मोदी को उसकी उपयोगिता का बखूबी एहसास है। आखिरकार, 2019 का जनादेश उन्होंने पुलवामा-बालाकोट के राष्ट्रवादी विक्षोभ और 'हिंदुओं का अपमान' के बहुसंख्यकवादी विक्षोभ की कॉकटेल से ही तो गढ़ा है।
शासन के बहुसंख्यकवाद और जनतंत्र के साथ का तो एक ही नमूना संभव है—पाकिस्तान का नमूना! जनतंत्र की खातिर ही भारत के पाकिस्तान बनने के रास्ते पर बढ़ने का मुकाबला करना होगा। हम कवियित्री फहमिदा रियाज की इस आगही को सच नहीं होने दे सकते—'तुम बिल्कुल हम जैसे निकले, अब तक कहां छिपे थे भाई'!
राजेंद्र शर्मा
Is it really the mandate to defeat secularism?