जीवन है तो जीवन में हमारा वास्ता चार चीजों से पड़ता है और वे तीन चीजें हैं -- लोग, घटनाएं, स्थितियां और चीजें। हमारे परिवार के लोगों के अलावा, हमारे अन्य रिश्तेदार, आसपास के लोग, हमारे सहकर्मी, हमारे पड़ोसी, हमारे सहपाठी, हमारे मित्र, हमारे ग्राहक, हमारे सप्लायर आदि कई तरह के लोगों से हमारा वास्ता पड़ता है। इसी तरह जीवन में हर रोज़ नई घटनाएं घटती हैं, कुछ सुखद होती हैं, कुछ दुखद होती हैं, कुछ परेशान करने वाली होती हैं, कुछ घटनाओं से हमारा मनोरंजन होता है, कुछ घटनाएं हमें बोर करती हैं, कुछ घटनाओं से हम नया कुछ सीखते हैं, कुछ घटनाएं हमारा जीवन ही बदल देती हैं। कुछ स्थितियां जोखिमपूर्ण होती हैं, कुछ स्थितियों पर हम जल्दी नियंत्रण पा लेते हैं, कुछ स्थितियां हमें असहाय कर देती हैं, कुछ स्थितियां हमारी कमज़ोरियां जाहिर करती हैं, जबकि कुछ स्थितियां हमारी मजबूती का कारण बन जाती हैं, हमारी ताकत का कारण बन जाती हैं। कुछ चीजें, कुछ वस्तुएं हमें प्रिय होती हैं, कुछ अप्रिय होती हैं, कुछ के प्रति हम बेपरवाह होते हैं। लोगों, घटनाओं, स्थितियों और चीजों में से किन्हीं दो या दो से अधिक के घालमेल से हमारे अनुभव बनते हैं।
लोगों से, घटनाओं से, स्थितियों से, चीजों से जब हमारा वास्ता पड़ता है तो हर बार कोई नया अनुभव होता है। अनुभव सुखद हो या दुखद पर अनुभव तो होता ही है। ये अनुभव ही हमारा जीवन बनते हैं।
हमारे अनुभव कैसे हों, यह हमारी मानसिकता
हम बहुत सी स्थितियों को बदल सकते हैं, बहुत सी चीजों को बदल सकते हैं, शायद कुछ लोगों की कुछ बातों को भी बदल सकते हैं, पर सब कुछ नहीं बदल सकते, लेकिन एक चीज़ ऐसी है जिस पर हमारा पूरा नियंत्रण संभव है और अगर हम जागरूक रहें तो हम उसे पूरा का पूरा बदल सकते हैं और वह एक चीज़ है, किसी भी हालात में हमारी प्रतिक्रिया क्या हो, इस पर हमारा पूरा नियंत्रण संभव है। इस वाक्य को दोहराना आवश्यक है ताकि हम इसे गहराई से समझ सकें। अगर हम जागरूक रहें तो हम किसी भी हालात में किसी भी घटना पर अपनी प्रतिक्रिया को नियंत्रित कर सकते हैं और उसे बदल सकते हैं। महत्वपूर्ण बात यह हे कि प्रतिक्रिया बदल देने मात्र से हमारे अनुभव बदल जाते हैं, और हमारे अनुभव बदलते हैं तो हमारा जीवन बदल जाता है। इसलिए यह समझना आवश्यक है कि अपनी प्रतिक्रियाओं पर नियंत्रण करना सीखा जाए।
हमारी प्रतिक्रिया बदलती है तो हमारी ऐक्शन बदल जाती है, ऐक्शन बदलती है तो हमारे जीवन की चिंताओं, अवसाद अथवा अकेलेपन से पार पाना आसान हो जाता है। सबसे पहले यह समझना आवश्यक है कि इस दुनिया में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो हमेशा खुश रह सके। कोई हमारा अपमान कर दे, कोई हमारा नुकसान कर दे या नुकसान हो जाए, हमारा कोई प्रिय व्यक्ति बिछुड़ जाए या दुनिया से ही चला जाए तो यह संभव नहीं है कि हम उदास न हों, दुखी न हों।
समझना सिर्फ यह है कि दुख के बावजूद, उदासी के बावजूद, चिंताओं के बावजूद हम कितनी जल्दी नार्मल हो पाते हैं, कितनी जल्दी हम उस से उबर पाते हैं। प्रतिक्रिया को बदलने की पूरी प्रक्रिया अगर हम समझ लें तो प्रतिक्रिया को बदलना और कठिन या दुख भरी स्थितियों से उबरना आसान हो जाता है।
यह समझना आवश्यक है कि सबसे पहले हमारे दिमाग में कोई विचार आता है। अगर हम उस विचार के बारे में, उस ख़याल के बारे में गंभीर हैं, हमें लगे कि वो हमारे काम का है और हमें उस पर आगे काम करना चाहिए तो वो विचार, वो ख़याल, सिर्फ ख़याल न रहकर हमारी बातचीत में उतर आता है, हम उसका ज़िक्र करने लगते हैं, उसके बारे में बातचीत करने लगते हैं, अपने आसपास के लोगों से उसकी चर्चा करने लगते हैं, वो ख़याल, ख़याल न रहकर हमारी चर्चा का विषय बन जाता है। कोई विचार, कोई ख़याल, जब हमारी चर्चा का विषय बन जाए तो वह हमारे दृष्टिकोण को प्रभावित करता है, हमारे नज़रिये को प्रभावित करता है, हमारे सोचने का अंदाज़ बदल देता है और हमारा विश्वास बन जात है, हमारा बिलीफ बन जाता है और जो विचार, जो ख़याल हमारा नज़रिया बदल दे, हमारा बिलीफ बन जाए, विश्वास बन जाए, वो ख़याल, वो विचार हमारा व्यवहार बन जाता है, हमारा आचरण बन जाता है जो विचार हमारा आचरण बन जाए, वो हमारी ऐक्शन बन जाता है। ये ख़यालों की यात्रा है, विचार से लेकर ऐक्शन बनने तक की यात्रा है। यही हमारी प्रतिक्रिया है। इस प्रक्रिया को समझ लें तो हम अपने विचारों की महत्ता को समझ जाते हैं, और उनकी इंप्लीकेशन को भी समझ जाते हैं, उनके परिणाम को भी समझ जाते हैं। तो हम सावधान हो जाते हैं, या जागरूक हो जाते हैं और अपने विचारों को नियंत्रित कर सकते हैं। अपनी सोच के बारे में, अपने नज़रिये के बारे में जागरूक होकर हम अपने व्यवहार को नियंत्रित कर सकते हैं और अपने व्यवहार से, अपनी प्रतिक्रिया से उपजने वाली अपनी ऐक्शन्स को भी नियंत्रित कर सकते हैं। व्यवहार को नियंत्रित कर लिया, ऐक्शन्स को नियंत्रित कर लिया तो जीवन को नियंत्रित कर लिया, फिर जीवन हमारे नियंत्रण में हो गया, हम जीवन में घटने वाली घटनाओं के नियंत्रण में नहीं रहे, जीवन हमारे नियंत्रण में हो गया। चिंता से और अवसाद से उबरने का एक ही तरीका है कि हम अपने विचारों पर नियंत्रण करें, ताकि प्रतिक्रिया पर नियंत्रण हो सके, हमारा व्यवहार बदल सके और हम खुशहाल जीवन जी सकें।
चिंता और अवसाद में एक बड़ा अंतर है। जब हम स्थितियों के हाथों विवश महसूस करें, हमारा लगातार अपमान होता रहे, हम मनचाही सफलता न पा सकें, हमारा कोई प्रियजन हमसे बिछुड़ जाए या कोई बड़ा नुकसान हो जाए तो हम दुखी हो जाते हैं, तनावग्रस्त हो जाते हैं और यह स्थिति लंबे समय तक चले तो अवसाद की स्थिति में जा सकते हैं। यानी, कोई पहले से घटी हुई घटना या दुर्घटना हमारे अवसाद का कारण बन सकती है। चिंता इससे बिलकुल अलग है। चिंता किसी अनहोनी की आशंका को लेकर होती है। हमारे साथ भविष्य में जो बुरा हो सकता है उसके खयाल के कारण चिंता होती है।
अवसाद क्यों होता है? | Why does depression happen?
अवसाद भूतकाल में घटी किसी घटना या दुर्घटना के कारण होता है जबकि चिंता भविष्य में हो सकने वाली किसी घटना या दुर्घटना की आशंका से आती है। हम किसी बदलाव से डरे हुए हों, किसी नुकसान से डरे हुए हों, किसी भी कारण से हमें डर लग रहा हो तो हम चिंतित हो जाते हैं। चिंता जिस कारण से होती है, वह अभी घटा नहीं है, पर हमें आशंका होती है कि हमारे साथ ऐसा हो सकता है और अगर सचमुच वैसा हो गया, जैसा कि हमें डर था तो हमारा क्या होगा? चिंता उस कारण से है जो अभी हुआ ही नहीं, पर भविष्य में हो सकता है। अवसाद उस कारण से है जो घट चुका है, हमारे साथ बीत चुका है, इसलिए अवसाद ज्यादा गहरा है। चिंता भी अगर लगातार चलती रहे तो दुर्घटना हमारे साथ घटे या न घटे, हमें अवसाद की स्थिति में ले जा सकती है। इसलिए चिंता के खतरे को समझना भी आवश्यक है।
अवसाद से उबरने के दो साधन हैं, पहला तो यह कि हम यह समझ लें कि जो घट चुका है, वह घट चुका है, वह बीत चुका है, वह बीते हुए कल की बात है और कल पहले ही जा चुका है। उसके कारण अपने आज को बिगाड़ने के बजाए हम यह सोचें कि हम आज ऐसा क्या कर सकते हैं जिससे बीती हुई घटना के कारण हो चुके नुकसान की भरपाई संभव हो। चिंता या अवसाद किसी समस्या का समाधान नहीं हैं। इसलिए दुखी होने के बजाए ऐक्शन मोड में आना जरूरी है।
अवसाद से बचने का दूसरा साधन यह है कि हम अपने किसी मनपसंद काम में व्यस्त हो जाएं ताकि अवसाद की ओर से हमारा फोकस हट जाए। इस तरह अवसाद पर काबू पाया जा सकता है। उसके लिए मित्रों और परिवार का सहयोग भी मिले तो काम बहुत आसान हो जाता हे।
चिंता से बचने का तरीका क्या है? | What is the way to avoid worry?
चिंता से बचने का तरीका यह है कि हम देखें कि समस्या क्या है, उसे कितने छोटे-छोटे टुकड़ो में बांटा जा सकता है, समस्या के उस छोटे टुकड़े के हल के लिए हम क्या कर सकते हैं, उसके लिए हमारे पास क्या साधन होने चाहिएं, समस्या के उस हिस्से के समाधान के लिए हम किसकी सहायता ले सकते हैं, इस चिंतन से, इस विश्लेषण से समस्या का समाधान संभव है। समस्या नहीं रहेगी तो चिंता खुद-ब-खुद गायब हो जाएगी। यानी, चिंता से बचने के लिए चिंतन की, समस्या के विश्लेषण की आवश्यकता है। चिंता तो हल है ही नहीं, चिंता तो हमारा दिमाग बंद कर देती है और हमें असहाय बना देती है जबकि चिंतन से हम नए हल खोज सकते हैं और समस्या का निदान पा सकते हैं।
अकेलापन दूर करना तो और भी आसान है। आपको जब भी अकेलापन महसूस हो, जब भी आपको यह लगे कि आप भीड़ में होते हुए भी अजनबी है, परिवार में रहकर भी अलग-थलग हैं तो आपको यह देखना चाहिए कि आपका कौन सा ऐसा मित्र है जिससे आपने लंबे समय से बात नहीं की, उन्हें फोन लगाइये, उनके पास चले जाइए, उनसे गपशप कीजिए, पार्क में सैर करने चले जाइए, हल्का व्यायाम कीजिए, किसी बच्चे के साथ या किसी पालतू पशु के साथ खेलने लग जाइये, इनमें से कोई भी तरीका अपनाइये या एक से अधिक तरीके अपनाइये, आपका अकेलापन दूर हो जाएगा।
इन छोटे-छोटे साधनों से, मुफ्त में उपलब्ध साधनों से हम चिंता से, अवसाद से और अकेलेपन से बच सकते हैं, समाज के लिए ज्यादा उपयोगी नागरिक बन सकते हैं, खुद खुश रह सकते हैं और अपने आसपास के लोगों को खुश कर सकते हैं। इसी में जीवन की सार्थकता है।
पी. के. खुराना
लेखक एक हैपीनेस गुरू और मोटिवेशनल स्पीकर हैं।