80 के अंतिम सालों में कांग्रेस के कमज़ोर होने के साथ ही राजनीति मुख्यतः दो ध्रुवीय होने लगी। धर्मनिरपेक्ष और साम्प्रदायिक। पहले खेमे में लगभग सभी ग़ैर भाजपा दल होने लगे और दूसरे खेमे में भाजपा और शिवसेना होने लगी। इससे पहले, यानी कांग्रेस के एकक्षत्र प्रभुत्व के 40 सालों में राजनीति कभी विचार के स्तर पर दो ध्रुवीय नहीं रही। पक्ष-विपक्ष सब मूलतः संविधान को मानने वालों, प्रगतिशील दलों के ही बीच थी। तब कांग्रेस जैसी मध्यमार्गी पार्टी का विकल्प वाम और समाजवादी धारा ही मानी जाती थी। यानी साम्प्रदायिक राजनीति को प्रगतिशील राजनीति का विकल्प नहीं माना जाता था। राजनीति में मुसलमानों के समक्ष कोई पहचान का संकट नहीं था और ना ही उन पर धार्मिक पहचान के कारण कोई बड़ा हमला ही हो पाता था। इसलिए धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को बचाने के लिए किसी जातीय समीकरण की ज़रूरत नहीं थी। यह सभी धर्मों और जातियों के अधिकांश लोगों की सामूहिक ज़िम्मेदारी हुआ करती थी।
भगवा गिरोह द्वारा बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद कांग्रेस के कमज़ोर होने के साथ राजनीति दो ध्रुवीय होने लगी, जिसके चलते अब भारत के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को बचाना सभी भारतीयों की सामूहिक ज़िम्मेदारी नहीं रह गयी। अब धर्मनिरपेक्षता राष्ट्रीय विचार और उद्देश्य नहीं रह गया। बल्कि मुसलमानों के लिए अपनी जान-माल बचाने के लिए निजी सुरक्षा उपाय बन गया। इसलिए अब मुसलमान ही धर्मनिरपेक्षता के अकेले रक्षक बनते गए। यह
यानी कांग्रेस के कमज़ोर होते ही आम भारतीय के लिए संविधान प्रदत मूल्यों की रक्षा प्रमुख वरीयता नहीं रह गयी। दूसरे शब्दों में कहें तो अपने राष्ट्रीय चरित्र में बदलाव आने लगा। यानी हम राष्ट्र और उसको परिभाषित, मर्यादित करने वाली मूल भावनाओं और सामूहिक उद्देश्यों से विरत होने लगे। इन मूल्यों से दूरी, जिसे धीरे-धीरे नफ़रत में बदलने की योजना पर संघ काम कर रहा था, हमें एक उद्देश्यहीन समाज में बदलने लगा। अगर हम कांग्रेस पर भाजपा के हमले में इस्तेमाल भाषा और तर्क देखें तो उसमें मुख्य तौर पर धर्मनिरपेक्षता, समाजवाद, उदारवाद और प्रगतिशीलता को टारगेट किया जाता है। भाजपा सांसद राकेश सिन्हा तो संविधान की प्रस्तवना से ही समाजवाद शब्द हटाने के लिए निजी बिल लाने की बात कर चुके हैं।
अब ज़रा ये भी सोचिए कि क्या किसी भी आधुनिक राष्ट्र राज्य की कल्पना बिना धर्मनिरपेक्षता, तार्किकता,समाजवादी और प्रगतिशील मूल्यों के हो सकती है ? यानी भाजपा का कांग्रेस के ऊपर हमला भारत के आधुनिक राष्ट्र राज्य की हौसियत पर हमला है।
अगर यहां आप भारत के स्वतंत्र होने के दिनों के संघी मुखपत्रों को देखें तो उसमें आपको बार-बार भारत के एक समाजवादी, प्रगतिशील राष्ट्र बनने, मनुस्मृति के बजाए नया संविधान मानने, भगवा झंडे के बजाए तिरंगा को राष्ट्र ध्वज मानने के ख़िलाफ़ ख़ूब कुतर्क मिल जाएंगे। इसी तरह 42 वां संविधान संशोधन करके प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़कर पहली दुनिया के मानकों वाले देशों की सूची में आ जाने के ख़िलाफ़ भी संघ ने ख़ूब कैंपेन चलाया। यानी भारत के बुनियादी मूल्यों पर संघ का हमला आज़ादी बाद से ही चल रहा है।
कहने का मतलब ये कि भाजपा का कांग्रेस पर हमला सिर्फ़ सत्ता के लिए नहीं है। बल्कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र जिन आधुनिक मूल्यों के मिश्रण से निर्मित हुआ है उनसे लोगों को दूर करना है। राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन से निकले राष्ट्रीय मूल्यों को कमज़ोर करना है।
आप अपने आसपास के भाजपा समर्थकों को याद करिये उन्हें कभी आप देश की आर्थिक, सामाजिक उद्देश्यों पर बात करते नहीं देखेंगे। हां, वो विश्व गुरु टाइप के उद्देश्य की बात करता दिख जाएगा, जिसको नापने के कोई पैमाना नहीं होगा। यानी भाजपा की कोशिश कांग्रेस पर हमले के बहाने एक उद्देश्यहीन नागरिक झुंड खड़ा करना रहा है। उसके इस लक्ष्यहीन समाज निर्माण के उद्देश्य को आप अर्थव्यवस्था से लेकर हर क्षेत्र में देख सकते हैं। मसलन, योजना आयोग जब तक था हम हर पांच साल के लिए विकास का एक पंच वर्षीय राष्ट्रीय उद्देश्य रखते थे। अब हमारे पास ऐसा कोई आर्थिक लक्ष्य नहीं है।
जब लक्ष्य नहीं होगा तो जवाबदेही भी नहीं होगी। सरकार सवालों से ऊपर होगी। मोदी सरकार में इसीलिए सवाल पूछना अच्छा नहीं माना जाता। वहीं कांग्रेस ने आरटीआई के ज़रिए सवाल पूछने का अधिकार तक जनता को दिया था। अगर कांग्रेस और मौजूदा भाजपा सरकार के बीच कोई तुलना करे तो आसानी से इस फ़र्क़ को देख सकता है कि भारत कांग्रेस की सरकारों में ज़्यादा सवाल पूछता था। अमर्त्य सेन ने यूं ही अपनी एक किताब का नाम 'अर्गमेंटटीव इंडियन' नहीं रखा था।
याद रखना होगा कि हमारा देश बहुत सारे अच्छे सार्वभौमिक, बुनियादी विचारों के समावेश से बना है। इन विचारों का कमज़ोर होना देश का कमज़ोर होना है।
कांग्रेस के कमज़ोर होने से ये विचार कमज़ोर हुए थे। इसलिए देश को फिर से मजबूत करना है तो समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, उदारवाद, बहुलतावाद जैसे मूल्यों को मजबूत करना होगा। जिसके लिए कांग्रेस को मजबूत करना सभी का लक्ष्य होना चाहिए।
शाहनवाज़ आलम
लेखक अल्पसंख्यक विभाग, उत्तर प्रदेश कांग्रेस के चेयरमैन हैं