Hastakshep.com-राजनीति-Election commission-election-commission-Electoral scenario-electoral-scenario-Lok Sabha Elections 2019-lok-sabha-elections-2019-Narendra Modi-narendra-modi-Seventh Lok Sabha-seventh-lok-sabha-चुनाव आयोग-cunaav-aayog-चुनावी परिदृश्य-cunaavii-pridrshy-नरेंद्र मोदी-nrendr-modii-पिष्ठ पेषण-pisstth-pessnn-लोकसभा चुनाव 2019-loksbhaa-cunaav-2019-सत्रहवीं लोकसभा-strhviin-loksbhaa

एक ओर अभूतपूर्व शोर-शराबा, दूसरी तरफ असाधारण चुप्पी। सत्रहवीं लोकसभा (Seventh Lok Sabha) के चुनावी परिदृश्य (Electoral scenario) को शायद इस एक वाक्य में समेटा जा सकता है! इतना शोर क्यों है, कारण समझना शायद कठिन नहीं है।  एक तो चुनाव आयोग (Election Commission) ने पूरी प्रक्रिया संपन्न होने के लिए बेहद लंबा वक्त दे दिया। 10 मार्च को चुनावों की घोषणा की, जबकि नतीजे आएंगे 23 मई को। इन दस हफ्तों में राजनैतिक दलों के पास बातें करने के सिवाय काम ही क्या है? आज यहां, कल वहां। आज इसकी रैली, कल उसकी। आज एक का रोड शो, कल दूसरे का। नया कुछ कहने को है नहीं, तो वही-वही बातें बार-बार की जा रही हैं। तिस पर चौबीस घंटा माथा गरम कर देने वाले टीवी चैनल। सुबह से कथित विशेषज्ञ स्टूडियो में आकर बैठ धागे उधेड़ने में जुट जाते हैं। संस्कृत का एक बढ़िया शब्द है- पिष्ठ पेषण। याने उसी आटे को बार-बार गूंधना।  अंतहीन, दिशाहीन, अर्थहीन बहसों के अंबार तले समाचार और तथ्य कहां दब जाते हैं, पता ही नहीं चल पाता। भारत की जनता मानों इस निरर्थक कवायद को झेलने के लिए अभिशप्त है।

तो क्या आम मतदाता ने इस घनघोर शोर से स्वयं को अलग रखने के लिए मौन धारण कर लिया है। वह क्यों अपने आपको फिजूल की बहसों में उलझाए?

जब देश का प्रधानमंत्री बार-बार दर्प भरे स्वर में खुद के चौकीदार होने का बखान करे, जिसके मुकाबले विपक्षी दल का अध्यक्ष चौकीदार को चोर सिद्ध करने की चुनौती बारंबार फेंके तो सामान्य जन इस वाक्युद्ध में कहां तक दिलचस्पी ले? टीवी पर, फेसबुक पर, यू ट्यूब पर, अखबारों में जब ऐसी ही बातें दोहराई जाएं तो वह कितना बर्दाश्त करे? हां, यह तो वह जानता है कि उसे अपने मताधिकार का प्रयोग करना है, उसने

शायद यह तय भी कर लिया है कि उसका वोट किसे जाएगा और क्यों जाएगा, लेकिन मन की बात सार्वजनिक कर वह क्यों अपना समय और शक्ति व्यर्थ करे? उसने पिछले पांच साल में जो देखा, सुना और भुगता है, उसके आधार पर भी शायद वह चुप रहना बेहतर समझता है! आज के वातावरण में शायद इसी में उसे समझदारी प्रतीत होती है!

यह स्थिति सुखद नहीं है।

This situation is not pleasant.

इसलिए कि आम चुनाव (लोकसभा चुनाव 2019 - Lok Sabha Elections 2019) को लेकर जनता के मन में जो उमंग, स्फूर्ति, उत्साह के भाव होते हैं, उनका यहां अता-पता नहीं है। मतदाता आम चुनाव को एक त्यौहार मान उसके माध्यम से बेहतर भविष्य के प्रति आशा संजोता है, वह जैसे कहीं खो गई हैं। राजनेता एक दूसरे पर कीचड़ उछालें, अपशब्दों का प्रयोग करें; हर समय नीचा दिखाने की कोशिश करें तो जनता के बीच इन नकारात्मक बातों का क्या संदेश जाता है? यही न कि आपको जनता की नहीं, खुद की चिंता है।

कहना होगा कि 2014 के आम चुनाव के पूर्व जब प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के नेतृत्व में भाजपा ने भ्रष्टाचार, परिवारवाद आदि के मुद्दे उठाकर इस तरह के नकारात्मक प्रचार की शुरूआत की थी, तब मतदाता ने भाजपा पर विश्वास कर उसे भारी बहुमत से विजय प्रदान की थी, लेकिन आज पांच साल बाद उनके तमाम वायदे खोखले सिद्ध हो रहे हैं और जनता स्वयं को ठगी गई महसूस कर रही है।

इस दरमियान लोकतांत्रिक संस्थाओं की जिस तरह दुर्गति हुई है, उसने भी चिंता उत्पन्न की है।

एक समय था जब चुनाव आयोग पर जनता को अटूट विश्वास था। वह विश्वास अब खंडित हो चुका है।

ऐसे प्रसंग बार-बार सामने आ रहे हैं, जिससे विपक्षी दलों को चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लगाने का मौका मिल रहा है। एक उदाहरण राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह का है। 1993 में जब हिमाचल के तत्कालीन राज्यपाल बैरिस्टर गुलशेर अहमद ने रीवां (मप्र) में अपने बेटे के लिए वोट मांगे थे तो उन्हें पद छोड़ना पड़ा था, लेकिन 2019 में जब राज्यपाल कल्याण सिंह ने खुलकर भाजपा को जिताने की अपील की तो चुनाव आयोग ने कोई ठोस कार्रवाई नहीं की। योगी आदित्यनाथ, मेनका गांधी सहित अनेक नेताओं को इसी तरह सस्ते में छोड़ दिया गया। नमो टीवी पर आवश्यक कार्रवाई करने में भी आयोग ने विलंब किया। (यह लिख लेने के बाद सोमवार रात सूचना मिली कि आयोग ने चार नेताओं पर अनुशासन की कार्रवाई की है।) लेकिन उधर मोदीजी अपने चुनावी भाषणों में सैन्यबलों का उल्लेख कर आयोग की अवमानना करते रहे।

Role of media in democracy

मीडिया की लोकतंत्र में जो अहम भूमिका हो सकती है, उसके बारे में अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। परंतु आज जैसी स्थिति है,  उसे देखकर लगता है कि मैं शायद किसी गलत जगह आ गया हूं!

चुनाव आयोग ने ओपिनियन पोल, एक्जाट पोल, सर्वे आदि पर रोक लगा रखी है, लेकिन मीडिया कोई न कोई तरकीब खोज कर इस प्रतिबंध का लगातार उल्लंघन कर रहा है।

एक चैनल पर किसी प्रवक्ता ने सही कहा कि यह ओपिनियन पोल नहीं, बल्कि ओपिनियन मेकिंग पोल है।

दरअसल होना तो यह चाहिए कि जिस दिन चुनावों की तिथियां घोषित हों, उसी दिन प्रच्छन्न प्रचार के इन उपायों पर भी रोक लग जाए। लेकिन यह राजनैतिक दलों के लिए भी आत्मपरीक्षण का विषय होना चाहिए। उन्हें क्यों लगता है कि सच्चे-झूठे प्रचार के भरोसे चुनाव जीता जा सकता है?

जसगीत में, गणगौर के गीतों में, भजनों में, सीरियलों में, चाय के प्यालों पर, रेलवे और विमान के टिकिटों पर प्रचार करने वाले एक तरह से अपने मन की दुर्बलता ही व्यक्त करते हैं। वे भूल जाते हैं कि 2004 के आम चुनावों में ''शाइनिंग इंडिया'' का लुभावना नारा निष्फल सिद्ध हुआ था।

Lalit Surjan ललित सुरजन। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, स्तंभकार व साहित्यकार हैं। देशबन्धु के प्रधान संपादक
ललित सुरजन। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, स्तंभकार व साहित्यकार हैं। देशबन्धु के प्रधान संपादक

सच तो यह है कि भारत की जनता अपने राजनैतिक दलों को बार-बार कसौटी पर कसती है। जवाहरलाल नेहरू के निधन के उपरांत 1967 के चुनावों से ही यह प्रक्रिया प्रारंभ हो गई थी। जब चुनाव आयोग एक सदस्यीय था, तब भी मतदाता ने केंद्र और प्रदेशों में सरकारें बदली हैं। याद कर सकते हैं कि 1957 में नेहरू की विराट उपस्थिति के बावजूद केरल विधानसभा में कम्युनिस्ट पार्टी को विजय हासिल हुई थी। आने वाले वर्षों में ऐसे अनेक प्रमाण लगातार मिलते गए हैं। इसलिए न तो किसी भी दल को अपनी सफलता पर एक हद से बढ़कर अहंकार करना चाहिए और न अपने को अपराजेय मानने की भूल करना चाहिए।

चुनावों में पैसा और प्रचार की भूमिका को बढ़-चढ़ कर आंकना भी मेरी दृष्टि में गलत है। जो समझते हैं कि गरीब जनता को पैसों के बल पर खरीदा जा सकता है, मानना होगा कि उनका भरोसा जनतंत्र में नहीं, बल्कि पूंजीतंत्र में है। वोटर उनसे पैसा लेकर भी उन्हें धूल चटा सकता है और चटाता है। इसके उदाहरण कम नहीं हैं।

एक सवाल इन दिनों बार-बार उछाला जा रहा है कि विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन है। जाहिर है कि नरेंद्र मोदी के समर्थक और भक्त ही यह प्रश्न कर रहे हैं। ये भूल जाते हैं कि भारत में संसदीय जनतंत्र है, राष्ट्रपति शासन प्रणाली नहीं।

यह ठीक है कि भावी प्रधानमंत्री के लिए प्रमुख नेताओं के नाम उठते हैं किंतु आवश्यक नहीं कि हर बार ऐसा ही हो। 2014 में भले ही आरएसएस के आदेश पर भाजपा ने मोदीजी का नाम आगे कर दिया हो, किंतु क्या आज भी वही स्थिति है? भाजपा में ही कम से कम दो नामों पर तो चर्चा चल ही रही है कि अब की जीते तो राजनाथ सिंह या नितिन गड़करी प्रधानमंत्री बनाए जाएंगे, क्योंकि उनकी स्वीकार्यता घटक दलों के बीच नरेंद्र मोदी के मुकाबले अधिक हो गई है।

भाजपा के बीच ही दबे स्वर में कहा जा रहा है कि नितिन गड़करी को हटाने के लिए काफी भीतरघात किया गया है। जहां तक कांग्रेस की बात है, नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह दोनों अप्रत्याशित ढंग से प्रधानमंत्री बनाए गए थे। कुल मिलाकर यह एक व्यर्थ प्रश्न है।

यद्यपि मोदीजी दुबारा प्रधानमंत्री बनने की अभिलाषा रखते हैं तो यह उनका अधिकार है, जिस पर निर्णय एनडीए को लेना होगा। तथापि अपनी सभाओं में वे जिस तरह ''अबकी बार, मोदी सरकार'' के नारे लगा और लगवा रहे हैं; उन्हें सुनकर प्रतीत होता है कि नरेंद्र मोदी को न एनडीए की परवाह है, न भाजपा की, और न पितृसंस्था संघ की। अपने को सर्वोच्च व निर्विकल्प मान बैठने का यह अहंकार उन पर भारी बैठ सकता है। जनता जानती है कि ऐसी भाषा जनतांत्रिक नेता नहीं, तानाशाह बोलते हैं।

ललित सुरजन

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Narendra Modi does not care about the NDA, neither BJP nor the patriarchy's Sangh.

(देशबन्धु )