Hastakshep.com-Opinion-1947 स्वतंत्रता की असलियत-1947-svtntrtaa-kii-asliyt

23 मार्च 2019 को भगत सिंह (Bhagat Singh), राजगुरू (Rajguru) और सुखदेव (Sukhdev) का 88वां शहादत दिवस था। उन्हें अँगरेज़ सरकार ने लाहौर जेल (अब पाकिस्तान में) इस जुर्म में फांसी दी थी की उन्हों ने अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद के चंगुल से देश को आज़ाद कराने के लिए मुक्ति-युद्ध छेड़ा था। गोरे शासकों को यक़ीन था कि इन इंक़लाबियों को जान से मरने के बाद मुक्ति-युद्ध समाप्त हो जाएगा और उनके द्वारा प्रसारित किए जा रहे एक आज़ाद भारत, जिस में बराबरी, प्रजातंत्र और धर्मनिरपेक्षता होगी, के सपने और विचारों पर विराम लग जाएगा। इतिहास इस बात का साक्षी है कि अँगरेज़ शासक, अन्य शासकों की तरह, पूरे तौर पर ग़लत साबित हुए। इन जवान इन्क़लाबियों की शहादत ने आज़ादी के विचारों को घर-घर तक पहुंचा दिया और आज भी उनकी क़ुर्बानियां लोगों को याद हैं और प्रेरित करती हैं ।

Martyrs Bhagat Singh, Rajguru, Sukhdev and the shameless Hindutva Gang

गोरे शासकों ने सूली चढ़ाया और काले अँगरेज़ तमाशा देखते रहे

लेकिन इन महान शहीदों की क़ुर्बानी की 88वीं बरसी पर हमें यह क़तई नहीं भूलना चाहिए कि यह गोरे अँगरेज़ थे जिन्हों ने इन इन्क़लाबियों को फांसी दी थी लेकिन उस समय मुस्लिम लीग, हिंदू-महासभा और आरएसएस से जुड़े काले अँगरेज़ या हिंदुस्तानी भी थे जो गोरे शासकों की सेवा में लगे थे। इन काले अंग्रेज़ों ने न सिर्फ़ इन क्रांतिकारियों के उद्देश्यों और आंदोलनों से दूरी बनाये रखी बल्कि उनकी शहादत के मौक़े पर शर्मनाक चुप्पी बनाये रखी। आरएसएस के दो बड़े विचारक और सर्वसर्वा, के बी हेडगेवार (1889-1940)और एम् एस गोलवलकर (1906-1973) थे लेकिन इन शहीदों के बारे में, उनके संघर्ष को लेकर एक चुप्पी साधे रखी। आजकल हिन्दुत्ववादी टोली के सरग़ना, आरएसएस को भी इन शहीदों की याद आ रही है। इन के फोटो आरएसएस

आयोजनों में देखे जा सकते हैं।

आरएसएस के दस्तावेज़ों में निहित शर्मनाक सच्चाईयां

Embarrassing truths contained in RSS documents

उन के इस झूठे प्यार की असलियत जानने के लिए इन शहीदों से प्यार करने वाले दुनिया भर में फैले लोगों को उस काल की आरएसएस की कथनी-करनी से अवगत होना होगा। आईये हिंदुत्व टोली की कुछ शर्मनाक कारनामों को जानें।

आरएसएस के सब से प्रमुख विचारक और दूसरे मुखिया, गोलवलकर ने आज़ादी के बाद भी कभी यह दावा नहीं किया कि आरएसएस अंग्रेज़ विरोधी था। अंग्रेज़ शासकों के चले जाने के बहुत बाद गोलवलकर ने 1960 में इंदौर (मध्य प्रदेश) में अपने एक भाषण में कहाः

“कई लोग पहले इस प्रेरणा से काम करते थे कि अंग्रेज़ों को निकाल कर देश को स्वतंत्र करना है। अंग्रेज़ों के औपचारिक रीति से चले जाने के पश्चात् यह प्रेरणा ढीली पड़ गयी। वास्तव में इतनी ही प्रेरणा रखने की आवश्यता नहीं थी। हमें स्मरण होगा कि हमने प्रतिज्ञा में धर्म और संस्कृति की रक्षा कर राष्ट्र की स्वतंत्रता का उल्लेख किया है। उसमें अंग्रेज़ों के जाने न जाने का उल्लेख नहीं है।“

आरएसएस ऐसी गतिविधियों से बचता था जो अंग्रेज़ी सरकार के खि़लाफ़ हों। संघ द्वारा छापी गयी डाक्टर हेडगेवार की जीवनी में भी इस सच्चाई को छिपाया नहीं जा सका है। स्वतंत्रता संग्राम में डाक्टर साहब की भूमिका का वर्णन करते हुए बताया गया हैः

“संघ-स्थापना के बाद डा. साहब अपने भाषणों में हिन्दू संगठन के संबंध में ही बोला करते थे। सरकार पर प्रत्यक्ष टीका नहीं के बराबर रहा करती थी।“

ग़ौरतलब है कि ऐसे समय में जब भगत सिंह, राजगुरु, अशफाक़ुल्लाह, रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आज़ाद, राजेन्द्र लाहिड़ी जैसे सैकड़ों नौजवान जाति और धर्म को भुलाकर भारत मां को अंग्रेज़ों की गुलामी से आज़ाद कराने के लिए अपने प्राण दे रहे थे, उस वक़्त हेडगेवार और उनके सहयोगी देश का भ्रमण करते हुए केवल हिंदू राष्ट्र और हिंदू संस्कृति तक अपने को सीमित रखते थे। यही काम इस्लाम की झण्डाबरदार मुस्लिम लीग भी कर रही थी। ज़ाहिर है इसका लाभ केवल अंग्रेज़ शासकों को ही मिलना था।

आरएसएस का आदरभाव! शहीदों के प्रति...?

RSS respect! To the martyrs ...?

कोई भी हिंदुस्तानी जो स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों को सम्मान (Respect for the martyrs of the freedom struggle) देता है उसके लिए यह कितने दुःख और कष्ट की बात हो सकती है कि आरएसएस अंग्रेज़ों के विरुद्ध प्राण न्योछावर करने वाले शहीदों को अच्छी निगाह से नहीं देखता था। श्री गुरुजी ने शहीदी परम्परा पर अपने मौलिक विचारों को इस तरह रखा हैः

“निःसंदेह ऐसे व्यक्ति जो अपने आप को बलिदान कर देते हैं श्रेष्ठ व्यक्ति हैं और उनका जीवन दर्शन प्रमुखतः पौरुषपूर्ण है। वे सर्वसाधारण व्यक्तियों से, जो कि चुपचाप भाग्य के आगे समर्पण कर देते हैं और भयभीत और अकर्मण्य बने रहते हैं, बहुत ऊंचे हैं। फिर भी हमने ऐसे व्यक्तियों को समाज के सामने आदर्श के रूप में नहीं रखा है। हमने बलिदान को महानता का सर्वोच्च बिन्दु, जिसकी मनुष्य आकांक्षा करें, नहीं माना है। क्योंकि, अंततः वे अपना उदे्श्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गंभीर त्रुटि थी।“

यक़ीनन यही कारण है कि आरएसएस का एक भी स्वयंसेवक अंग्रेज़ शासकों के ख़िलाफ़ संघर्ष करते हुए शहीद होना तो दूर की बात रहीजेल भी नहीं गया।

गोलवलकर भारत मां पर अपना सब कुछ क़ुर्बान करने वालों को कितनी हीन दृष्टि से देखते थे इसका अंदाज़ा निम्नलिखित शब्दों से भी अच्छी तरह लगाया जा सकता है। श्री गुरुजी वतन पर प्राण न्यौछावर करने वाले महान शहीदों से जो प्रश्न पूछ रहे हैं ऐसा लगता है मानो यह सवाल अंग्रेज़ शासकों की ओर से पूछा जा रहा होः

“अंग्रेज़ों के प्रति क्रोध के कारण अनेकों ने अद्भुत कारनामे किए। हमारे मन में भी एकाध बार विचार आ सकता है कि हम भी वैसा ही करें। वैसा अद्भुत कार्य करने वाले निःसंदेह आदरणीय हैं। उसमें व्यक्ति की तेजस्विता प्रकट होती है। स्वातंत्र्य प्राप्ति के लिए शहीद होने की सिद्धता झलकती है। परन्तु सोचना चाहिए कि उससे (अर्थात बलिदान से) संपूर्ण राष्ट्रहित साध्य होता है क्या? बलिदान के कारण पूरे समाज में राष्ट्र-हितार्थ सर्वस्वार्पण करने की तेजस्वी वृद्धिगत नहीं होती है। अब तक का अनुभव है कि वह हृदय की अंगार सर्व साधारण को असहनीय होती है।“

1 जून, 1947 को हिन्दू साम्राज्य दिवस के अवसर पर बोलते हुए ‘महान देशभक्त’ गोलवलकर ईस्ट इंडिया कंपनी के ख़िलाफ़ भारतीय जनता की लड़ाई के प्रतीक बहादुर शाह ज़फ़र का जिस तरह मज़ाक उड़ाते हैं वह जानने लायक़ हैः

“1857 में हिन्दुस्थान के तथाकथित अंतिम बादशाह बहादुरशाह ने भी निम्न गर्जना की थी...

‘गाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की।

तख़्ते लंदन तक चलेगी तेग़ हिंदोस्तान की।।’

परंतु आख़िर हुआ क्या? सभी जानते हैं वह।“

यहां पर यह बात भी क़ाबिले जिक्र है कि आरएसएस जो अपने आप को भारत का धरोहर कहता है उसके 1925 से लेकर 1947 तक के पूरे साहित्य में एक वाक्य भी ऐसा नहीं है जिसमें जलियांवाला बाग़ जैसे बर्बर दमन की घटनाओं की भर्त्सना हो। इसी तरह आरएसएस के समकालिक दस्तावेजों में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को गोरे शासकों द्वारा फांसी दिये जाने के खिलाफ़ किसी भी तरह के विरोध का रिकार्ड नहीं है।

शम्सुल इस्लाम

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