एड्स (AIDS) को एक महामारी (Epidemic) के तौर पर पेश करने की कोशिशें जारी है। पर एड्स विरोधी प्रचार अभियान (anti-AIDS propaganda campaigns) में जुड़े संगठन एवं संस्थाएं बहुगमिता की प्रवृति को हतोत्साहित नहीं करते हैं, जो एड्स के फैलाव का एक बड़ा कारण (a major reason for the spread of AIDS) है, इसके विपरीत इनका पूरा जोर इस बात पर है कि जो कुछ भी किया जाय, पूरे आनन्द से, निर्भय होकर किया जाय और इसके लिए जरुरी है कि सेक्स के दरम्यान कंडोम का प्रयोग (use of condoms) किया जाये।
देवेन्द्र कुमार
यदि एड्स विरोधी प्रचार-प्रसार अभियान की छानबीन की जाये, तो स्पष्ट हो जायेगा कि इसका इरादा लोगों को और खास कर युवाओं को एक मर्यादित और संयमित जीवन जीने की सीख देना नहीं है, वरन उन्हें और भी उन्मुक्त जीवन जीने की ओर अग्रसर करना है। उनमें उस संस्कृति और जीवन मूल्यों का प्रचार- प्रसार करना है जो यौन सम्बंध को एक कप चाय पीने से अधिक महत्व नहीं देता। ये शायद यह मान कर चलते हैं कि पर स़्त्री-गमन बिल्कुल हीसहज-स्वाभाविक है। नैतिक मूल्यों और सांस्कृतिक-सामाजिक पतन से इसका कोई खास श्ता नहीं हैं।
वैसे भी अब जीवन संगनी (living organisms) नहीं, लिव इन रिलेशन (live in relation) की बात की जा रही है। एकनिष्ठ रिश्ते की धारणा-परंपरा अब पचती ही नहीं। एड्स विरोघी अभियान में शामिल संस्थाओं का संबंध कंडोम निर्माता कंपनियों से साफ जुड़ा नजर आता है। इन संस्थाओं के द्वारा कंडोम अपनाने पर जोर और कंडोम निर्माता कंपनियों द्वारा इससे प्राकृतिक सहवास के सुखद एहसास होने के दावों के बीच इनके आपसी रिश्तों की कहानी को आसानी से समझा जा सकता है।
एड्स पर काम करने वाली किसी भी संस्था-संगठन ने युवक-युवतियों में इस भावना का विकास ही नहीं किया कि जीवन में काम की शुचिता स्थापित की जाये, कि पड़ोस की बीबी-पति, सहकर्मी-
एड्स को इस रूप में प्रचारित किया जा रहा है जैसे एड्स से भयानक और महामारी की तरह फैल रही और कोई दूसरी बीमारी है ही नहीं, जबकि अनेक भयानक और खतरनाक बीमारियां समाज में चतुर्दिक मौजूद हैं। मच्छरों का बढ़ता प्रकोप और उससे फैलने वाली विभिन्न बीमारियाँ, स्वच्छ पानी व प्रर्याप्त भोजन के अभाव के कारण समाज के निम्न वर्गों में भयंकर कुपोषण की स्थिति और उसे दूर करने के लिए दी जा रही मात्र लाल-पीली गोलियों की गैर मौजूदगी मुद्दा ही नहीं बनता।
ग्रामीण इलाके व शहरी औद्योगिक क्षेत्रों में कार्यरत श्रमिकों में टीबी की महामारी की उपेक्षा की जा रही है। हालात यह है कि कहीं-कहीं तो पूरा का पूरा परिवार, गांव मुहल्ला-टोला ही इसकी चपेट में है, मलेरिया तो आम बात है।
जाहिर है कि पर्याप्त भोजन, स्वच्छ पानी स्वच्छ आवास के कारण पनप रही बीमारियों को सामने लाने से सत्ता प्रतिष्ठान की छवि धूमिल होगी, उसकी असफलता सामने आयेगी, विश्वसनीयता का क्षरण होगा, विकास के जारी मॉडल पर सवालिया निशान लगेगा।
उसे पलटने के लिए जनदबाब बढ़ना शुरू हो जायेगा और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर छवि भी खराब होगी। एड्स के मामले में सरकार यह कह कर पल्ला झाड़ लेती है कि यह सामाजिकव्यभिचार से जुड़ा मामला है। और सामाजिक व्यभिचार रोकने की जिम्मेवारी सरकार नामक जीव की तो नहीं है, यह तो सामाजिक मसला है।
हाँ, सरकार कंडोम निर्माता कंपनियों के साथ सांठ- गांठ कर एड्स से सुरक्षा के नाम पर कंडोम के बाजार को विस्तृत करने में अपना अदृष्य सहयोग प्रदान कर सकती है। लोगोंमें इस भावना के प्रचार- प्रसार के लिए अपने तंत्र का प्रयोग कर सकती है कि वे पर स्त्री- पुरुष गमन करने के समय कंडोम का प्रयोग आवश्यक रूप से करें। पर यह स्थिति निर्मित ही नहीं हो, पर स्त्री- पुरुष गमन की इस उन्मुक्त संस्कृति पर विराम लगायी जाय, सरकार इसकी जिम्मेवारी अपने ऊपर नहीं मानती। वह इसे एक सामाजिक मसला मान चतुराई से अपना दामन छुड़ा लेती है।
ऐसा भी नहीं है कि एड्स सदा सामाजिक व्यभिचार और पर स्त्री-पुरुष गमन से ही फैलता है। लेकिन एड्स का हौवा खड़ कर एकनिष्ठ दंपतियों को भी कंडोम का प्रयोग करने की सीख दी जा रही है, समझाया जा रहा है कि संभव है कि सेक्स से इतर कारणों से भी आपके यौन साथी, अब जीवन संगनी शब्द निरर्थक हो चुका है, को एड्स का संक्रमण हो गया हो। अतः सुरक्षितयौन संबंध को दृष्टिगत रख कर भी कंडोम का प्रयोग किया जाय।
सच्चाई यह है कि एक सुनियोजित-सुविचारित तरीके से एड्स के फैलाव की भयानक तस्वीर निर्मित कर दी गई है, की जा रही है। खाने के लिए भोजन, पत्नी के लिए साड़ी और बीमार बच्चों के लिए दवा हो न हो पर एड्स का ऐसा भय दिखाया जा रहा है कि पहले कंडोम जरूर खरीद लो, न जाने अगले पल क्या हो जाये। अब तो शायद, ये संस्थाएं और कंडोम निर्माता कंपनियां यह भी प्रचार करें कि महिलाएं अकेले सफर करने से पूर्व कंडोम जरूर रख लें, क्योंकि किसी भी समय बलात्कारी आ सकता है, बापू आ सकते हैं सांई टपक सकता है, उस वक्त बापू-सांई से तो नहीं पर, अनुनय - विनय कर, उसे कंडोम थमा कर एड्स से रक्षा तो की ही जा सकती है। कहे- अनकहे यह स्थिति निर्मित भी कर दी गई है। नहीं तो आठवीं -नौवीं कक्षा के किशोर-किशोरियों को कंडोम संबंधी ज्ञान देने का औचित्य क्या है, कंडोम से प्राकृतिक सहवास का सुखद एहसास होता है, बतलाने का उद्देश्य क्या है ?
कंडोम का प्रचार और इसकी पहुंच इस कदर हो गई है कि अब तो छोटे -छोटे बच्चे पूछतें हैं कि पापा आप कंडोम क्यों नहीं लाते। आखिर हमारी संस्कृति में फैल रहे इस एड्स का क्याहोगा ? जबकि इन्हीं बच्चों और जान- पहचान वालों की मौत साफ पानी, पर्याप्त भोजन, स्वच्छ आवास एवं एक अदद मछरदानी के अभाव में हो गई होगी।
(देवेन्द्र कुमार, लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। मगध विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में एम.ए., एल एल बी, भारतीय विद्या भवन, मुम्बई से पत्रकारिता की डिग्री। क्षेत्रीय व राष्ट्रीय समाचारपत्रों, पत्र-पत्रिकाओं में सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर आलेखों का प्रकाशन, बेव मीडिया में सक्रिय व लेखन। छात्र जीवन से ही विभिन्न जनमुद्दों पर सक्रियता। विभिन्न सामाजिक संगठनों सें जुड़ाव।)