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ओम थानवी से प्रभाष जोशी बेहतर संपादक थे या थानवी उनसे बेहतर हैं, बेकार का सवाल है।
ओम थानवी के साथ फेसबुक पर मेरा अनुभव खराब रहा। उनकी फ्रेंड रिक्वेस्ट आई थी और मैंने स्वीकार कर ली। असहमति को लेकर वे काफी अलोकतांत्रिक लगे और अनके लोगों की तरह उन्होंने मुझे भी ब्लॉक कर दिया। लेकिन, जहां तक इस मुश्किल समय में बतौर जनसत्ता संपादक और टीवी पर कई बहसों में भागीदार के तौर पर भी उनकी भूमिका रही है, बेहद प्रशंसनीय है। द हिंदू जैसे अखबार जब अपनी ट्रेडिशन से हिल गए हों, तब ओम थानवी हिंदी में साम्प्रदायिक ताकतों के अजेय से लगने वाले दौर में प्रतिरोध की मशाल थामे रहे। एक शख्स ने कहा कि वह तो रिटायर होने वाले हैं, इसलिए ऐसा कर रहे हैं। मैंने कहा कि रिटायर होने के करीब शख्स को तो बाद का जीवन सुधार लेने के लिए सत्ता के आगे ज्यादा नतमस्तक हो जाना चाहिए था। मुझे लगता है कि थानवी की इस भूमिका के महत्व को किंतु-परंतु से कम नहीं किया जा सकता है।
ओम थानवी से प्रभाष जोशी बेहतर संपादक थे या थानवी उनसे बेहतर हैं, बेकार का सवाल है। प्रभाष जोशी का घटियापन कम नहीं है। सती प्रथा के पक्ष में उनका स्टेंड, ब्राह्मण होने को श्रेष्ठता का पर्याय मानते हुए विष वमन करना, क्रिकेट पर लिखते समय पाकिस्तान के खिलाफ साम्प्रदायिकता की हद तक चले जाना, राज्यसभा की सदस्यता के लिए कभी हरियाणा में देवीलाल के पीछे-पीछे घूमना और लंबे समय तक संघ-बीजेपी के साथ उम्मीदों पर सवार रहना जैसी ढेरों बातें भी उनके साथ रही हैं। कहा तो यह भी जाता है कि उम्मीदों पर पानी फिरने के बाद ही वे संघ-बीजेपी से नाराज हुए। लेकिन, उनके इस बाद के दौर के लेखन को भी महत्व के साथ देखा ही जाता है। अब उन्हें अतुलनीय घोषित

करते हुए सभी बातों को भी ध्यान में रखना ही चाहिए। जहां तक शीर्षक `इतना आसान नहीं प्रभाष जोशी होना` है तो यह तो किसी के लिए भी कहा जा सकता है कि इतना आसान नहीं बाल ठाकरे होना, मोहन भागवत होना या अलां-फलां होना।
धीरेश सैनी
धीरेश सैनी, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। एक जिद्दी धुन उनका ब्लॉग है। यह पोस्ट उनकी फेसबुक टाइमलाइन से साभार।

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इतना आसान नहीं प्रभाष जोशी होना
हिंदुत्व सुनामी के मुकाबले जनसत्ता को खड़ा कर पाना ओम थानवी का ही दम है