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ओम यानी ओथ को माफ़ कर देना चाहिए, क्योंकि उन्होंने वही किया जो डालमिया और गोयनका की व्यापारिक नीतियाँ थीं
ॐ और ओम (थानवी) में फर्क कहाँ है?
राजाओं की लड़ाई में भी जनता ही मारी जाती है. ये बात हमें समझनी चाहिए.
राम नाथ गोयनका ने तीन बड़े काम किये. अंग्रेजी पढ़ने वालों को इंडियन एक्सप्रेस दिया. हिन्दी के लोगों को 'जनसत्ता' और मराठी के लोगों को 'लोकसत्ता'. एक ही आदमी ने जो त्रिकोण खींचा, उसमें लिखने वाली तमाम मछलियाँ फंसती चली गईं. एक आदमी ने तीन जगहों पर अपनी सत्ता कायम कर ली. और खुद अपने माँ के सम्बन्धी के यहाँ कारोबार सीखकर हैदराबाद में मोहनप्रसाद मुरलीप्रसाद के साथ बिजनेस पार्टनर बन गया. साथ ही Madras Legislative Council का मेम्बर बना. बिजनेस संभाला. बाद में The Free Press Journal, को अपने हाथ में लिया. और यहीं से इन्डियन एक्सप्रेस की स्थापना की. और बड़े व्यापारिक घराने के मालिक की बेटी से शादी की. रामनाथ की तीन बेटियाँ थीं और कोई बेटा नहीं, तब उनकी पत्नी ने ग्रैंड सन रामनाथ को गोद ले लिया. इसके बाद इन्डियन एक्सप्रेस की मिल्कियत रामनाथ गोयनका की हो गई. खानदान का इकलौता वारिस. डालमिया की मौत के बाद रामनाथ ने अपना सरनेम गोयनका रखा. खानदान में जायदाद को लेकर विवाद खूब चला.

रामनाथ ने अम्बानी Dhirubhai Ambani and Nusli Wadia के खानदान से भी करीबी रिश्ते बनाए रखने का प्रयास किया. मगर बात नहीं बनी तक वो अम्बानी ग्रुप के खिलाफ इन्डियन एक्सपेस में तमाम बड़े बुद्धिजीवियों को लेकर उनसे लेख लिखवाये. और यह कहने से नहीं चूके कि सरकार अम्बानी के खिलाफ कोई एक्शन नहीं ले रही. यहीं से एक युद्ध Wadia, Goenka and the Ambanis भाइयों के खिलाफ शुरू हुआ. जो हमें लोकसत्ता (मराठी) और जनसत्ता (हिंदी) में भी पढ़ने को खूब मिला. इसी लड़ाई के लिए गोयनका ने कुशल सेनापति यानी

तीनों अखबारों में बुद्धिजीवी सम्पादक नियुक्त किये. इन्हीं संपादकों में एक हैं, ओम थानवी (जिन्हें स्वर्गीय प्रभाष जोशी ने नियुक्ति दीथी ), जो बिजनेस हाउस की लड़ाइयों को अखबार जनसत्ता में कुशलता से छापते रहे.

अब अगर राज्याश्रय जिसे मिला रहा हो अखबार के जरिये ही सही. राजनीतिक खेमे किसी न किसी तरह से जनसत्ता के जरिये भी अपनी राजनीतिक शाख मजबूत बनाए हुए थे. तो फिर यही सम्पादक जनता के साथ कैसे खड़े हो सकते हैं. ये तो उस व्यापारिक रणनीति और युद्ध के कुशल सेनापति थे. राजाओं की लड़ाई में भी जनता ही मारी जाती है. ये बात हमें समझनी चाहिए. अखबार ने हर वर्ग का विशवास बनाए रखने के लिए राजाओं की लड़ाइयों से जनता के सरोकार और जनता के थोड़े नुक्सान को लेकर समय समय पर खूब लेख छापे. ठीक है दो बिल्लियों की लड़ाई में बंदर को उसका फायदा मिल जाता है. मगर वो फायदा बंदर ने कमाया नहीं. यही कहानी है इन बिजनेस समूहों की लड़ाई के बीच.

आखिर आप ही बताइए जनसत्ता और लोकसत्ता इन्डियन एक्सप्रेस जैसे अखबारों ने कभी जनता के वास्तविक सरोकारों से वास्ता रखा तो उसे लेकर जनयुद्ध की बात क्यों नहीं की? वो सत्ता की बौद्धिक आलोचना करते हुए हर समय जनता के जमीनी संघर्ष और नेतृत्व की थाह लेते रहे हैं. जनता के भीतर सता को लेकर कितना गुस्सा भरा हुआ है. और उसे किस तरह से बौद्धिक सेनापति की भूमिका में रहकर निबटाया जाय लिबरल अंदाज़ में, इन अखबारों ने यह काम बखूबी किया है. राजशाही व्यवस्था और लोकशाही में भी राज्य की समस्त सीमाओं के सर्वाधिक शक्तिशाली राजा का चुनाव और छोटे छोटे राज्यों के राजाओं का चुनाव राजा और व्यापारी समूहों के समर्थन और असहमतियों के बीच ही होता रहा है. जनता को भ्रम है कि वह अपनी उंगली के निशान से राजा चुनती है. चुनांचे धूर्त राजनीतिक दल और सता के गलियारों में पल बढ़ रहे अखबारों, सांस्कृतिक संगठनों, सामाजिक समूहों ने जनता के दिमागों को, यानी बुद्धिजीवियों (दक्षिणपंथी या वाम) को साथ लेकर जनता के हाथ से अंगूठा लगवाकर राजा का चुनाव किया है. जनता कितनी भोली और मासूम है न? उसे हर उस तरह की खुशफहमी है जो राजा और राजा के सेनापतियों ने मिलकर जनता में फैलाई है.

जिस तरह ॐ पहले धर्मगुरुओं के मुख में रहा और राज्याश्रय में रहकर ब्राह्मणदियों, वर्णव्यवस्था को जिन्दा रखा उसी तरह लोकतंत्र तक आते आते यही ॐ जनता के भीतर तक घुसकर उसकी थाह लेता रहा है. धर्म का काम है जनता के मन में आध्यात्म, धर्म-दर्शन को जिन्दा रखना. लोकतंत्र में दरबारी संस्कृति या बादशाहत तभी तक जीवित है जब तक ॐ (राज्याश्रित), जनता का ''ओम'' बुद्धिजीवी किन्तु सत्ता सुख धनलोलुप बनकर जीवित है. अगर यही ॐ वास्तविक जनसत्ता के पक्ष में खड़ा हो जाएगा तो राजसत्ता उसे उसी क्षण कुचल देगी. ऐसे में ओम यानी ओथ को माफ़ कर देना चाहिए. क्योंकि उन्होंने वही किया जो डालमिया और गोयनका की व्यापारिक नीतियाँ थीं.

और रहा सवाल जनता का ? तो उसे तरह-तरह की चालबाजियों और सत्ता की साजिशों का पर्दाफाश करते हुए क्रांतिकारी और जनपक्षधर लड़ाकू और बौद्धिक लोगों द्वारा ही जागरूक बनाना होगा. ॐ राजशाही और जनसत्ता का ओम तो हमेशा राजा के दरबार में उसके आश्रय पर जीवित है.

अनिल पुष्कर