जनसत्ता में अजब लोकतंत्र है
मीडिया में सिर्फ एक फीसद मस्त-मस्त संप्रदाय सारस्वत है और बाकी लोग अस्पृश्य बंधुआ मजदूर।
इसी बीच दो दिनों के अवकाश अंग्रेजों को और हिंदी वालों को एक दिन का करिश्मा कर दिखाने वाले नंगे पांव दुनिया का सैर सपाटा करके अनंतर लिखते रहने वाले हमारे सर्वश्रेष्ठ संपादक ओम थानवी ने हमारे लिखे पर फेसबुक संदेश भेजा है कि फिलहाल कोलकाता में आने का उनका कोई इरादा नहीं है और नस्ली भाषायी रंगभेद के साम्राज्य में विरोध दर्ज कराने का हमारा मौका भी चूक गया।
बहरहाल मोदियापे में मशगूल मीडिया कर्मियों से हमारा सवाल है कि लंबे तेरह साल के इंतजार के बाद माननीय सुप्रीम कोर्ट ने जो मजीठिया अपनी देखरेख में लागू करने का फैसला किया है, उसमें समानता और न्याय कितना है, क्या वेतनमान मिला, ठेके पर जो हैं, उनको क्या मिला, ग्रेडिंग और कैटेगरी में कितनी ईमानदारी बरती गयी और दो-दो प्रमोशनों के बाद उनकी हैसियत क्या है, पहले इस पर गौर करें तो आम जनता पर क्या कहर बरप रहा है, उसका तनिको अंदाज आपको हो जाये।
हम पहले भी साफ कर चुके हैं कि मीडिया में सिर्फ एक फीसद मस्त-मस्त संप्रदाय सारस्वत है और बाकी लोग अस्पृश्य बंधुआ मजदूर। भड़ास जैसे मंचों से उनकी बात सिलसिलवार सामने आ रही है और हमें इसके लिए यशवंत का आभार मानना चाहिए। लेकिन सिर्फ पत्रकार उत्पीड़ित नहीं है जिनके लिए वे आवाज बुलंद कर रहे हैं। हम मीडिया उनके हवाले छोड़ आम जनता के मसले उठा रहे हैं।
बहरहाल यशवंत की अगुवाई में भड़ास पर मजीठिया सिफारिशों से न्याय दिलाने के लिए सिलसिलेवार आंदोलन चल रहा है और मीडियाकर्मियों का जबर्दस्त समर्थन है लेकिन सुप्रीम कोर्ट की देखरेख में कितना मजीठिया लागू हो पाया अब तक और सितारा अखबारों में पत्रकारिता का जोश का अंजाम क्या है, इसे मीडिया कर्मी की जांच लें और समझ लें कि
कमसकम एको आदेश तो लागू हो गयो रे कि मोदियापा का देश हुई गयो हमार देश। मोदी का चेहरा चमके भी, दमके भी और गायब हुआ रे देश यह फिसड्डी।
किस्सा कुछ यूं है कि बंगाल में सबसे बड़े मीडिया ग्रुप में बंगाल के सारे साहित्यकार कलाकार संस्कृतिकर्मी बंधुआ हैं, के उन्हें उनकी औकात बनाने में, ग्रुम करने में और फिर बाजार का आइकन बनाकर बेचना ही इस ग्रुप का कारोबार है। वह केसरिया हुआ है।
नाम लेना ठीक नहीं है।
हिंदी वालों को इस ग्रुप का एक उत्पाद बता रहे हैं, सो वो हैं तसलिमा नसरीन। बाजार ने जिनका जीवन नर्क बनाया हुआ है और इस ग्रुप की ओर से हांका लगाकर मछलियों के गले में हुक फंसाने का काम किया करते थे भारतीय साहित्य और संस्कृति को महानगरीय साफ्ट कोक में तब्दील करके जनपदों को हाशिये पर डालकर मुक्त बाजार की जमीन पकाने वाले महामहिम सारे। उनका नाम भी सार्वजनीन हैं।
इस ग्रुप में बाजार में बेचने से पहले सबको छापते रहने का रिवाज है और झूठ को कला के उत्कर्ष में बदलने की दक्षता की ट्रेनिंग यहीं दी जाती है।
इस गुरुकुल से प्रशिक्षित तमामो हिंदी अंग्रेजी राजनेता भी अब बिलियनर राजनेता खेल खिलाड़ी पिलाड़ी हुआ करे हैं।
यह तरीका भारतीय भाषाओं में मराठी से लेकर ओड़िया और असमिया में भी है जो मूल मीडिया मोड अंग्रेजी का है और सांस्कृतिक वर्चस्व का यह चामत्कारिक कलाकौशल है। जहां बाकी जनता तमाशबीन है और अहा, कि आनंद स्थाईभाव।
हिंदी में चूंकि रंगभेद जातिभेद और नस्ली भेदभाव स्थाई भाव है तो यहां चुन चुनकर मसीहा निर्माण होता है बहुतै सावधानी से कहीं वर्चस्व का आलम टूटे नहीं।
मीडिया से लेकर साहित्य, संस्कृति कर्म में पादने का यही सिलसिला है।
मसलन जनसत्ता में अजब लोकतंत्र है।
कागद कारे करेंगे सिरफ प्रभाष जोशी या अननंतर लिखेंगे सिरफ ओम थानवी।
बाकी जो लिक्खाड़ आईएएस परीक्षा की तर्ज पर चुनकर दिशा दिशा से भर लीन्हैं, उन्हें गोदामघर में सड़ाकर उनका अचार बनाने की वैज्ञानिक पद्धति है यहां कि संपादकीय के लोग जनसत्ता में लिख नहीं सकते।
संपादकीय प्रधान प्रभाष जोशी और ओम थानवी जैसे संपादकीय में न हो। वे तो आसमान से उतरे फरिश्ते ही रहे हैं और पाठकों को उनका लिखा, उनके ही चहेते का लिखा परोसते हुए जनसत्ता अब सिर्फ इंटरनेट पर दिखता है, पाठकों के हाथों में कहीं नहीं दीखता है।
कलमचियों का ऐसा कत्लेआम हिंदी में ही संभव है।
खासोखास के लिए ऐसा स्थाई बंदोबस्त बा तो समझ लिज्यो जो फनफनायो हैं कि कला कौशल से हिंदी में मैदान जीतकर रहेंगे ऐसे अंत्यज अछूत प्रजाति के लोग जो न सारस्वत हैं और न सरस्वती के वरद पुत्र हैं कि इस मुख्यधारा में