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Temple Entrance Movement of Dalits: Mindful Slavery or Human Rights Question

दो वर्ष पूर्व बर्मिंघम (Birmingham) में घूमते हुए हमारे मित्र देविन्दर चन्दर जी ने बताया कि कैसे इंग्लैंड के कई पुराने और ऐतिहासिक चर्च अब खाली पड़े हैं और सिख उन्हें खरीद रहे हैं। इन गिरजों में अब कोई क्यों नहीं जाता, ये समझना जरूरी है और क्या 'सिखों द्वारा गुरुद्वारा बना लेने से कोई अंतर उसमें आ जायेगा, क्योंकि ये केवल धनाढ्य सिख धार्मिक नेताओं को ही मजबूत करेंगे और उसके अलावा उस समाज के किसी भी सेक्युलर तबके को आकर्षित नहीं कर पाएंगे।

जैसे-जैसे कोई समाज सभ्यता और स्वतंत्र सोच की ओर अग्रसर होता है उसे भगवानों, पुजारियों और पूजा स्थलों की आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि वह अपनी स्वतंत्रता को कायम रखने के लिए अपने मनपसन्द साहित्य और मनोरंजन को ढूंढता है और धर्म और उसकी किताबें उसे अपनी आज़ादी पर बंदिश लगाने वाली नज़र आती हैं।

सिख समाज पैसे से मजबूत जरूर है, लेकिन धार्मिक नेतृत्व के चलते उनका बहुत नुकसान भी हुआ है और अभी भी सिख अपने धार्मिक कठमुल्लाओं के खिलाफ बहुत मज़बूती से नहीं बोल पाये हैं।

पश्चिम में समाज ने आर्थिक, सामाजिक सांस्कृतिक तरक्क़ी की है, इसलिए व्यक्ति अपने जीने के लिए पुस्तकों और प्रकृति की ओर ज्यादा दौड़ता है बजाय पूजास्थलों की ओर जाने के।

भारत में मंदिरों में प्रवेश को लेकर आंदोलन | Movements in India for entry into temples

ये बात लिखने का आशय इसलिए कि भारत में मंदिरों में प्रवेश को लेकर कई प्रकार के आंदोलन चल रहे हैं। बहुत से 'संतों' और 'क्रांतिकारियों' ने दलितों के मंदिर प्रवेश के लिए कई जगह आंदोलन किए, लेकिन इन

सभी में नेतृत्व करने वाले 'महात्मा' तो पुरुस्कृत और महान हो गए, लेकिन दलितों को अपमान और हिंसा ही सहनी पड़ी, क्योंकि अधिकांश आंदोलन संकेतात्मक थे और उनसे बहुत बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती। जब धार्मिक विचारधारा और उसमें व्याप्त कुरीतियां, अन्धविश्वास, जातिवाद, छुआछूत पर हमला नहीं होगा, तो मंदिर प्रवेश ब्राह्मणवाद (Brahminism) और हिन्दूवाद को ही मज़बूत करेगा।

दलितों को स्थानीय मंदिरों में प्रवेश पर प्रतिबंध | Ban on Dalits from entering local temples

 पिछले महीने मैं जौनसार (उत्तराखंड) क्षेत्र में था, जहाँ दलितों को कई स्थानीय मंदिरों में प्रवेश पर प्रतिबन्ध है। इस इलाके में दलित अल्पसंख्यक हैं और विकास की धारा से यह क्षेत्र अभी कोसों दूर है। वैसे यहाँ राजनैतिक नेतृत्व ने हमेशा लोगों की अज्ञानता का आनंद उठाया है, क्योंकि अविभाजित उत्तर प्रदेश से लेकर उत्तराखंड बनने तक आदिवासी नेतृत्व के नाम पर पर इस क्षेत्र का एक मंत्री अवश्य बनता है, लेकिन उनको भी यहाँ की असमानता और भेदभाव नज़र नहीं आता।

जब हमने वहां मौजूद लोगों से बात की तो अधिकांश साथियो को अंबेडकर नाम का पता तो था, लेकिन उनके विचार क्या थे उसका दूर-दूर तक अंदाज नहीं था। एक अम्बेडकरवादी कम से कम अपनी गरीबी के बावजूद विद्रोह का झंडा बुलंद रखता है, लेकिन यहाँ नौजवानो में मैं मंदिर प्रवेश के लिए उतावलापन देख रहा था, ना कि वर्ण व्यवस्था के लिए कोई घृणा!

इसलिए जन समस्याओं को लेकर एक मित्र ने जब बड़ा सम्मेलन बुलाया था, तो उसमें कई स्थानीय मुद्दे सामने आये लेकिन सभी ने शराबबंदी और मंदिर प्रवेश को मुख्य मुद्दा बताया।

मेरी दृष्टि में ये प्रश्न ही नहीं हैं और दलितों को शाकाहारी ब्राह्मणवादी चालों में घसीटने की कोशिश है क्योंकि सांस्कृतिक और स्थानीय आदतों पर हम अपने वैष्णववादी सोच लागू कर असली समस्याओं से ध्यान भटका देते हैं।

The entire area of Jaunsar is declared as Scheduled Tribe area.

 जौनसार का सम्पूर्ण इलाका अनुसूचित जनजाति क्षेत्र  घोषित है। देहरादून से करीब 70 किलोमीटर आगे चकराता, कलसी, विकासनगर आदि का इलाका जौनसार कहलाता है। पूरे इलाके में दलितों पर अत्याचार होता है और मंदिरों में उनके प्रवेश पर पाबंदी है।

सबसे खतरनाक बात यह है कि अनुसूचित जाति जनजाति अधिनियम यहाँ लागू नहीं होता क्योंकि पूरा इलाका आदिवासी क्षेत्र माना जाता है, लेकिन ये आज से नहीं अपितु उस समय से है जब उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का हिस्सा था और राज्य सरकारों ने कभी कोशिश नहीं की कि इसे ठीक से समझा जाए और इसमें बदलाव लाया जाए। क्योंकि इलाका आदिवासियों का था, इसलिए मांग उठी थी कि इसे आदिवासी इलाका घोषित किया जाए, लेकिन अधिकारियों और राजनेताओं की चालबाजी का नतीजा था, कि उन्होंने इस कमी की ओर ध्यान नहीं दिया और लिहाज़ा दलितों और आदिवासियों को इसका नुकसान भुगतना पड़ रहा है क्योंकि आरक्षण का लाभ इस क्षेत्र के सवर्ण उठा रहे हैं, लेकिन क्षेत्र के आदिवासी नेता मंत्री कभी इस प्रश्न को नहीं उठाते।

इसीलिए मैं हमेशा से कहता रहा हूँ कि समस्याओं के अति सामान्यीकरण से बहुत नुकसान होता है। जौनसार क्षेत्र का राजनैतिक नेतृत्व अपने को आदिवासी कहता है लेकिन यहाँ के दलितों पर हो रहे अत्याचार और इलाके में मौजूद अन्धविश्वास को अपनी संस्कृति बनाकर इस्तेमाल कर रहा है। पूरे क्षेत्र को आदिवासी जनजाति घोषित करने के अर्थ ये है कि यहाँ रहने वाले हिन्दू सवर्ण सभी संवैधानिक तौर पर आदिवासी घोषित हो गए और वो सारे लाभ ले रहे हैं जो अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष तौर पर संविधान में बनाये गए हैं।

दुखद और खतरनाक बात यह है कि सवर्णों के अत्याचार (Tyranny of the upper castes) पर दलित अनुसूचित जाति जनजाति अधिनियम का सहारा नहीं ले सकते, लिहाज़ा दलितों पर अत्याचारों की कोई रिपोर्टिंग (Any reporting of atrocities on Dalits) भी नहीं होती। वैसे एक सूचना के मुताबिक एक संसदीय समिति ने पूरे इलाके को आदिवासी घोषित कर सभी लोगों को आरक्षण का लाभ देने का विरोध किया है, लेकिन न उस रिपोर्ट का कुछ पता ना ही सरकार की उसमें कोई दिलचस्पी दिखाई देती है।

जब मैं युवाओं से बात कर रहा था, तो मैंने उनसे पूछा कि मंदिर प्रवेश क्यों बड़ा मुद्दा है ? भाई, अगर सवर्णों को अपने मंदिरों पर गर्व है और वो दलितों को अपने मंदिरों में नहीं आने देना चाहते, तो वो यही साबित कर रहे हैं कि दलित हिन्दू नहीं हैं, क्योंकि आप यदि हिन्दू हैं तो आपको मंदिर प्रवेश का अधिकार है।

मैं इस सवाल को दो तरीके से देखता हूँ। एक तो व्यक्ति के अधिकार का मामला क्योंकि आधिकारिक तौर पर दलित हिन्दू हैं और भारत के संविधान ने छुआछूत को गैरकानूनी घोषित किया है इसलिए दलितों के मंदिर प्रवेश के अधिकार को साफ तौर पर क़ानूनी सहमति है और उसे कोई ताकत रोक नहीं सकती क्योंकि धर्मस्थल सार्वजानिक सम्पति हैं और लोगों को पूजा के उनके अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है। ये एक मानवाधिकारों की लड़ाई है और भारतीय संविधान की पूरी ताकत उनके साथ है। लेकिन एक अम्बेडकरवादी नज़रिये से जब हम इन चीजों को देखते हैं तो बाबा साहेब के मिशन का ध्यान आता है, जब उन्होंने लोगों से गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए कहा था, बाइस प्रतिज्ञाएँ करवाई थीं और लाखों लोगों के साथ बुद्ध धर्म ग्रहण किया था, इसलिए बहुत बड़ी जिम्मेवारी लोगों के ऊपर भी है कि वे अपनी मानसिक गुलामी को तोड़ने में कामयाब होते हैं या नहीं।

हम अगर सारी उम्मीदें राज्य सत्ता के ऊपर लगाकर चैन की नींद सोना चाहते हैं तो ये समझना होगा कि मनुवादी सोच के मठाधीशों को मानववादी सोच के संविधान की 'रक्षा' का दायित्व है इसलिए दलितों के मंदिर प्रवेश के अधिकार को सरकार असहायता से देख रही है, क्योंकि सारे जौनसार के हिन्दू अब दलितों के मंदिर प्रवेश को रोकना चाहते हैं।

सवाल इस बात का है कि क्या वाकई हिन्दू दलितों के मंदिर प्रवेश को रोकना चाहते हैं ? 

मैं ये मानता हूँ कि हिन्दू दलितों को भिखारी के तौर पर देखना  चाहते हैं, ना कि इज्जत और बराबरी का हक़ लेकर अपनी शर्तों वाले व्यक्ति को लेकर इसलिए अगर झुककर, छुपकर आप मंदिर में घुस गए तो कुछ समस्या नहीं है, लेकिन यदि अपनी पहचान के साथ इज्जत के साथ जाओगे, तो वर्णव्यस्था को खतरा है।

दलितों का मंदिर प्रवेश

खतरा असल में मंदिर प्रवेश से नहीं अपितु दलितों में बढ़ रही जातीय अस्मिता से है, क्योंकि ये जानते हैं कि दलितों और पिछड़ों के गए बिना हिन्दुओं के मंदिर खाली पड़ जायेंगे और उनमें जाने वाले नहीं मिलेंगे। आज दलित हिन्दू केवल उनकी आबादी बढ़ने के लिए हैं, अन्यथा हिन्दू व्यवस्था में उनका कोई सम्मान नहीं है। इसीलिए बाबा साहेब आंबेडकर ने उन्हें बुद्ध की शरण में जाने की सलाह दी क्योंकि उस जगह जबरन घुसने का कोई मतलब नहीं, जहाँ दिल के दरवाजे बंद हैं और दुनिया भर का छलकपट मौजूद हो।

आज भी हिन्दू समाज और उनके राजनैतिक संगठनों ने समाज बदलने का कोई प्रयास नहीं किया और न ही छुआछूत  विरुद्ध कोई आंदोलन किया। दलितों के घर में एक दिन आकर मेला लगाने और तथाकथित रोटी खा लेने भर से समाज में व्याप्त कुरीतियां नहीं जाने वाली क्योंकि जातियों को वोट बटोरने तक ही सीमित कर दिया गया है।

अभी भी हमारे नेता खाप पंचायतों के विरुद्ध बात करने को तैयार नहीं है। आखिर हिन्दुओं को अगर दलितों के साथ रहने में दिक्कत है तो दलित उनके साथ रहने को क्यों लालायित रहे ?

Dalits cannot be saved by going to the shelter of Manuvadis

आज जौनसार का दलित आरक्षण का लाभ भी नहीं ले पा रहा लेकिन मुझे दुःख हुआ जब मैंने कुछ नौजवानों से कहा कि उन्हें मंदिर में जाने के बजाय संविधान को पढ़ना चाहिए ताकि वे अपनी लड़ाई लड़ सकें। मनुवादियों की शरण में जाकर दलितों का उद्धार नहीं हो सकता। भगवान और पुरोहितवाद बराबरी और मानवता के दुश्मन हैं और वे अब बदलने वाले नहीं हैं और डंडे के बल पर आप मंदिर चले भी गए तो क्या करोगे जब पूरा साहित्य और धर्म ग्रन्थ आपको गरियाते नहीं थकते। इसलिए अगर आप हिन्दू हैं तो आपके मंदिर जाने के हक़ का मैं समर्थन करता हूँ और यदि नहीं तो आप अब चिंता छोड़िये। मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों या चर्चो में दलितों की आज़ादी नहीं छिपी है।

अगर दलितों की आजादी कहीं है तो वो है बाबा साहेब के तर्कवादी मानववादी दर्शन में और उनके बनाये संविधान में जो मनुवादी समाज की आँख का कांटा बना हुआ है इसलिए उसको बचाने की हमारी जिम्मेवारी कहीं बड़ी है। याकि मानिये आप मंदिर प्रवेश करके अपने इमोशन को तो बचा पाएंगे लेकिन आप मनुवाद को ही मज़बूत कर रहे हैं, जो दिल से कभी बराबरी नहीं चाहता।

यदि उत्तराखंड के जौनसार या किसी भी हिस्से के हिन्दू दलितों को मंदिर प्रवेश के लिए आंदोलन करें तो हम कहेंगे कि बातों पर विचार करो, लेकिन दलितों को अपने मंदिर प्रवेश के लिए खुद ही लड़ाई लड़नी पड़े और फिर मनुवादी ताकतें उनको मार काटने के लिए तैयार खड़ी  हों, तो ऐसे लड़ाई का कोई लाभ नहीं क्योंकि ये तो ब्राह्मणवाद के हाथों में खेलना है।

याद रहे आपका जीवन महत्वपूर्ण है और उसको सही दिशा में ले जाइये। मंदिरों या पूजा स्थलों में जाना बंद करें और चढ़ावे को अपने बच्चों की शिक्षा में लगायें तो भला होगा।

यकीन मानिये दलित जिस दिन पोंगा पंडितों और मंदिरों के पास जाना बंद कर देंगे इन मंदिरों पर ताले पड़  जायेंगे और वे ज्यादा आज़ाद ख्याल रहेंगे और उन पर कोई अत्याचार भी नहीं होगा।

उत्तराखंड की सरकार और दो सवर्णवादी पार्टियो से मैं यही कहूँगा कि वे दोगली राजनीति बंद करें। वो साफ़ करें कि एक नागरिक क्या अपने धर्मस्थल में नहीं जा सकता ? यह सरकार का दायित्व  है कि लोगों को भयमुक्त प्रशासन दे ताकि सभी अपनी इच्छा अनुसार पूजा अर्चना कर सकें। सरकार लोगों को पूजास्थल में प्रवेश करने से न तो रोक सकती है और ना ही उन्हें धार्मिक गुंडों के हवाले छोड़ सकती है।

यदि 60 वर्ष बाद भी एक व्यक्ति अपने पूजा अर्चना के अधिकार से वंचित है तो धिक्कार है इस व्यवस्था पर और हमारे राजनेताओं पर। राज्य सरकार का यह उत्तरदायित्व है कि पूरे प्रदेश में छुआछूत और जातिवाद के विरुद्ध एक बड़े एक बड़े कार्य्रकम की घोषणा करे ताकि ऐसी घटिया मानवविरोधी मानसिकता समाज में न पनपे और सभी लोग सम्मान के साथ जीवन यापन कर सकें।

हरियाणा में भगाना के लोगों ने मानसिक उत्पीड़न से तंग आकर  हिन्दू धर्म का परित्याग किया। कई बार उन लोगों को धमकी भी मिली, लेकिन लोग डिगे नहीं और उन्होंने अपना रास्ता अख्तियार किया, क्योंकि वहां की सरकार दलितों को सम्मान और सुरक्षा देने में पूरी तरह  विफल रही।

हम केवल इतना कहना कहना चाहते हैं कि स्वतंत्र भारत का संविधान दलितों को मंदिर प्रवेश की आज़दी देता है और उनकी सुरक्षा और आपसी भाईचारा बनाने की जिम्मेवारी सरकार की है न कि दलितों की अतः उनको अपनी जायज मांग रखने का हक़ है।

ऐसा सुनने में आया है कि देहरादून के जिलाधिकारी ने वहाँ के मंदिर प्रवेश आंदोलन के कारण पूरे क्षेत्र में तनाव हो सकता है, इसलिए सरकार कुछ नेताओं को पुलिस प्रशासन के साथ मंदिर प्रवेश करवाएगा। हमारी दृष्टि में ये दलितों को भीख है और जो भी नेता ऐसा करेंगे, वो समाज के साथ गद्दारी करेंगे और बाबा साहेब के आंदोलन के साथ भी। देहरादून पुलिस और प्रशासन अगर ईमानदारी से भारतीय कानून की इज्जत करता है तो दलितों का प्रवेश बिना किसी झगड़े के होना चाहिए और हिन्दू समाज के लोग अपना दिल खोल कर उनका स्वागत करें ना कि पुलिस की सुरक्षा में एक दिन की भीख में जाकर।

इसलिए मैंने कहा कि हम सभी लोगों को मानसिक गुलामी से मुक्ति चाहिए उसके लिए आंबेडकर फूले और पेरियार के दर्शन से बड़ा कुछ नहीं हो सकता। दलितों की आज़ादी का मंत्र मंदिरों में प्रवेश से नहीं अपितु मंदिरों, पुरोहितों और उनकी पूरी परम्पराओं के बहिष्कार में छुपा हुआ है। उम्मीद है 21वीं सदी के हमारे साथी अपने-अपने समाजों को मनुवाद से दूर कर मानववाद और तर्कपूर्ण वैज्ञानिक चिंतन की ओर लाएंगे तभी उनका जीवन बदल पायेगा और वो अपने ऊपर हो रहे मानसिक और आध्यात्मिक अत्याचारों का वैचारिक प्रतिरोध कर सकेंगे।

विद्या भूषण रावत