अरुण तिवारी
न सर्विस चार्ज, न सीवेज शुल्क! दिल्लीवासियों को प्रतिदिन 666.66 लीटर पानी एकदम मुफ्त!! सत्ता में आने के महज् 48 घंटे के भीतर आम आदमी पार्टी शासन का यह फैसला निश्चित ही अच्छी सूझबूझ और इच्छाशक्ति का परिणाम है। हालांकि प्रयोग के तौर पर यह योजना फिलहाल तीन महीने के लिए है और इसका लाभ भी सिर्फ मीटर कनेक्शनधारको को ही मिलेगा; हाउसिंग सोसाइटी बाशिंदों समेत टैंकर, टयुबवैल, तालाब व नदी से पानी पाने वाली आबादी लाभ से वंचित रहेगी; बावजूद इसके यह निर्णय सराहनीय इसलिए है, चूँकि यह फैसला दिल्लीवासियों को पानी के अनुशासित उपयोग के लिए प्रोत्साहित करेगा।
उल्लेखनीय है कि प्रति कनेक्शन खपत प्रतिमाह 20 हजार लीटर से अधिक होने की स्थिति में न सिर्फ पूरा बिल वसूला जायेगा, बल्कि इसके लिए टैरिफ में भी 10 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी कर दी गई है। सच्चाई यह है कि एक सीमा से ऊपर खपत करने वालों के बिल में बढोत्तरी किए बिना मुफ्त पानी देना ऐसे किसी भी जलापूर्ति तंत्र में संभव ही नहीं है, जिसमें पब्लिक प्राइवेट पाटर्नरशिप यानी ’पीपीपी’ मॉडल लागू किया जा चुका हो। जलापूर्ति क्षेत्र में निजीकरण के वैश्विक प्रस्तावकों, कर्जदाताओं और हिस्सेदारों की पहली शर्त ही यही है - ’’ पानी कोई खैरात नहीं है कि यह किसी को मुफ्त नहीं दिया जाये।’’
दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री केजरीवाल ने आम आदमी के लिए इस खास शर्त का जो तोड़ निकाला है, यह तारीफे काबिल जरूर है, किंतु शहरी जलापूर्ति के पब्लिक-प्राइवेट के उलझे जोड़ का तोड़ कतई नहीं। यह सही है कि शहरी जलापूर्ति की बढ़ी हुई कीमतों के कारण कई हैं: 40 प्रतिशत लीकेज के चुनौती, मीटर में गड़बड़ी, बगैर मीटर पानी की चोरी, शोधन संयंत्रों के रखरखाव व संचालन की कीमत और अपने सिर पर बरसने वाले पानी के कुप्रबंधन।
सब जानते हैं कि वर्षा की नन्ही बूंदों को संजोकर की ही सबसे सस्ते और
यह नासमझी दिल्ली ही नहीं, कमोबेश हर शहर ने की है; ’रिवट फ्रंट’ के नाम अहमदाबाद ने भी। लखनऊ भी यही करने जा रहा है। खारे समुद्री पानी को मीठा बनाने की महंगी तकनीक के बूते कच्छ, चेन्नई और कलपक्कम करोङो फेंककर सभी को महंगा पानी को पिलाने के चक्कर में पहले ही फंसे हुए हैं। इन सभी के पीछे छिपा बड़ा कारण है - पब्लिक प्राइवेट प्राइवेट यानी ’पीपीपी’।
यूँ कहने को हम कह सकते हैं कि विकास की औसत दर को बनाये रखने के लिए सरकार पिछली की तुलना में हर अगली पंचवर्षीय योजना में निवेश कम से कम दोगुना करने को बाध्य होगी। कह सकते हैं कि बुनियादी ढांचा विकास के लिए लाखों करोड़ का निवेश जुटाना अकेले सरकार के बस की बात नहीं। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में सिंचाई, जलापूर्ति तथा स्वच्छता के क्षेत्र में 30 परियोजनाओं के जरिए 1,43,730 करोड़ का निवेश सोचा गया था। विशाखापट्टनम, आदित्यपुर (झारखण्ड), कर्नाटक, देवास-खण्डवा-शिवपुरी (मध्य प्रदेश), जयपुर, भिवंडी, नागपुर, चेन्नई, दिल्ली, अलन्दूर-तिरपुर (तमिलनाडु) हल्दिया तथा कोलकोता समेत तमाम परियोजनायें मल निकासी व शुद्ध पानी पिलाने की गारंटी के नाम पर सूची में हैं।
पीपीपी बुरा नहीं है, लेकिन दुनिया में मुनाफे की दर और रियायत के नाम पर हुए खेलों को यदि देखें तो, कह सकते हैं कि ’पीपीपी’ फिलहाल सस्ते पानी का रास्ता नहीं।
याद कीजिए! दिल्ली में पानी के ’पीपीपी’ की पहला नतीजा निजी कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए एक हजार करोड़ रुपये की गड़बड़ी का आरोप बनकर सामने आया था। नांगलोई जल संयंत्र के रखरखाव व जलापूर्ति हेतु ’विओलिया वाटर इंडिया वाटर लिमिटेड’ और ’मसे र्स स्वाच एन्वायरमेटं लिमिटेड’ के साथ 15 साल का करार और 625.32 करोड़ रुपये की राशि। दिल्ली जलबोर्ड के ही एक वरिष्ठ अधिकारी श्री एस. ए. नक्वी द्वारा लागत अधिक होने की गड़बड़ी के बारे में आगाह करने के बावजूद अगले ही दिन 26 अक्तूबर, 2012 को मंजूरी दे दी गई थी। विओलिया वाटर इंडिया वाटर लिमिटेड और उसकी मूल विदेशी कंपनी- विओलिया वाटर को लेकर आरोप नये नहीं हैं। इसी विओलिया इंडिया को लेकर को नागपुर नगर निगम जांच झेलनी पड़ी। तिरुपुर जलप्रदाय एवम् मलनिकासी परियोजना, भारत की सबसे पहली औद्योगिक एवम् घरेलू जलप्रदाय परियोजना है। इसमें कंपनी 20 प्रतिशत तक का सालाना मुनाफा कमा रही है। स्थिति यह है कि औद्योगिक क्षेत्र को आवश्यकता की एक तिहाई जलापूर्ति फिर भी सुनिश्चित नहीं हो पा रही। भारत में मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र समेत कई राज्यों में पहुँची पानी में पीपीपी व नियामक आयोगों के अनुभव अच्छे नहीं है। बावजूद इसके उत्तर प्रदेश सरकार ने जलनियामक आयोग को अभी-अभी मंजूरी दी है।
जलापूर्ति निजीकरण से पूर्व 1991 की फरवरी में 25 फीसदी और अप्रैल में 29 फीसदी दरें बढाईं गईं। बोलीविया में ’स्वेज’ कंपनी की वादाखिलाफी के खिलाफ दंगे हुए और कंपनी को बोरिया बिस्तर समेटना पड़ा। मनीला में भी दरों का ऐसा ही खेल हुआ। मेट्रो मनीला जलप्रदाय परियोजना के लिए अनुबंधित कंपनियों के संघ ’मेनीलाड’ ने पहले कंपनी चलाने और सेवा लक्ष्य पूरा करने में आर्थिक असमर्थतता जताते हुए हाथ खड़े कर दिए; बाद में व्यय की गई 30 करोड़ धनराशि की माँग कर डाली। फिर एक दिन 10 करोड़ रुपये रियायत शुल्क का भुगतान किए बगैर भाग खड़ी हुई। इस कारनामे के मूल में भी वही स्वेज नामक कंपनी है, जिसे आजकल हिंदुस्तान में बहुत पूजा जा रहा है।