आज़ादी के बाद भारतीय संसद (Indian Parliament) में समाजवादी सियासत के चार दिग्गज (Four Veterans of Socialist Politics) हुए। डॉ लोहिया (Dr. Ram Manohar Lohia) और मधु लिमये (Madhu Limaye) के बारे में हमने सिर्फ पढ़ा है, लेकिन चंद्रशेखर (Chandrasekhar) और जॉर्ज को हमने आंखों से देखा है, कानों से सुना है। जॉर्ज फर्नांडिस (George Fernandes) के निधन के बाद इन दिग्गजों में बची आखिरी दीवार भी गिर गई। राजनीति में जब कोई बूढ़ा पेड़ गिरता है तो सियासी क्षितिज का सूनापन आसानी से नहीं भरता।
एक मजदूर नेता (Labor Leader), सत्ता विरोधी पत्रकार (Anti-establishment Journalist), विद्रोही तेवर का व्यक्तित्व, आपातकाल के बागी, कुशल संगठनकर्ता, समता पार्टी के निर्माता, एनडीए के संयोजक, केंद्र के अलग-अलग विभागों के मंत्री और इन सबसे अलग एक सादगी भरा जीवन जीने वाले समाजवादी सिपाही, एक अकेले जॉर्ज ना जाने क्या-क्या थे। यही वजह है कि आज़ादी के बाद भारत की समाजवादी सियासत का मंज़रनामा बग़ैर जॉर्ज फर्नांडिस के मुकम्मल नहीं होगा।
जॉर्ज फर्नांडिस के राजनीतिक जीवन के उत्तरार्द्ध में उनका सबसे ज्यादा फायदा नीतीश कुमार को हुआ। बिना जॉर्ज फर्नांडिस, नीतीश ना तो समता पार्टी का गठन कर सकते थे और ना ही बिहार में जड़ें जमा चुके लालू प्रसाद और उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल को सत्ता से बेदखल कर सकते थे। ज़ाहिर है इस करिश्मे में जॉर्ज बराबर के भागीदार थे। लेकिन इसके बावजूद 2009 के लोकसभा चुनाव में मांगने पर भी जॉर्ज फर्नांडिस को टिकट नहीं दिया गया और बहाना बनाया गया उनकी बीमारी को। जॉर्ज बीमार जरूर थे लेकिन हालत वैसे नहीं थे जो जेडीयू नेतृत्व की तरफ से बताए जा रहे थे। जॉर्ज ख़ुद को सेहतमंद दिखाने के लिए एयरपोर्ट से पैदल मुख्यमंत्री आवास तक चलने के लिए पटना पहुंचे। लेकिन नीतश कुमार पटना छोड़ के दिल्ली चले गए। हालांकि जॉर्ज फर्नांडिस आडवाणी नहीं थे, उन्होंने
ये वो वक्त था जब अल्जाइमर जॉर्ज साहब पर असर दिखा रहा था। धीरे-धीरे वे सक्रिय सियासत से दूर हो गए। उनका हाल जानने की जहमत ना उनके तथाकथित सियासी शिष्यों ने दिखाई ना ही एनडीए निर्माण का लाभ ले रहे बीजेपी के बड़े नेताओं ने । कई बार मैंने सोचा कि अगर पिछले 10 सालों में जॉर्ज अल्जाइमर से पीड़ित नहीं होते तो क्या करते? क्या जॉर्ज फर्नांडिस वो रास्ता चुनते जो अब शरद ने लिया है? या उनकी निर्भरता बीजेपी पर और बढ़ जाती। ज़ाहिर है इन सवालों का जवाब आसान नहीं। वैसे भी इतिहास में किन्तु-परन्तु की गुंजाइश होती भी नहीं है। लेकिन मन है कि फिर भी नहीं मानता। ना जाने क्यों हमारे जैसे समाजवाद के विद्यार्थी के मन में उम्मीद की ये लौ कभी बुझी नहीं, कि अगर जॉर्ज अल्जाइमर से पीड़ित नहीं होते तो अपने जीवन के अंतिम दशक में नीतीश कुमार से धोखा खाने के बाद पुराने तेवर में आ जाते।
हमारी पीढ़ी का शोक ये रहा कि हमने जॉर्ज फर्नांडिस के उत्तरार्द्ध को देखा, ये सियासत में उनके ढलान का दौर था। हमने भारतीय राजनीति के एक ओजस्वी वक्ता को संसद में शब्द ढूंढते देखा। हमने समाजवादी सियासत के एक प्रतिबद्ध सिपाही को गुजरात दंगों के संसदीय शोर के दौरान खामोश देखा। ताबूत घोटाले का आरोप लगने के बाद संसद में कई महीनों तक जॉर्ज का बहिष्कार देखा। खुद की खड़ी की गई पार्टी के भीतर एक अदद टिकट के लिए तरसते देखा। और इन सबसे भयावह एक महान सियासी आदर्श की विरासत को तिल-तिल बिखरते देखा।
जॉर्ज की जिंदगी एक फौलादी नेता के संघर्ष और उसके टूटने की दास्तान है। कुछ लोग मानते हैं कि जॉर्ज एनडीए के संयोजक बनकर सक्रिय नहीं हुए होते तो बीजेपी को सरकार बनाने में 20-25 सालों का वक्त और लगता। लेकिन फिर भी बीजेपी-आरएसएस सरकार जरूर बनाती। जिसकी भूमिका लिख देते आज की सरकार में सक्रिय मौकापरस्त समाजवादी और कुछ तथाकथित दलित सियासी दिग्गज। सोशल मीडिया में कई लोगों ने लिखा कि जॉर्ज को वो श्रद्धांजलि नहीं दे पाएंगे, उनसे हमारी गुजारिश है कि एक बेखौफ मजदूर नेता, आपातकाल का एक निडर आंदोलनकारी और कोका कोला जैसी मल्टीनेशनल कंपनी से टकराने का हौसला रखने वाले एक साहसी समाजवादी को याद करें । तमाम असहमतियों के बावजूद जॉर्ज फर्नांडिस की ज़िंदगी में ऐसा बहुत कुछ है, जिसके लिए उन्हें एक संघर्षशील समाजवादी के तौर पर याद रखा जाएगा।
-राजेश कुमार, लेखक टीवी पत्रकार हैं।
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