वरिष्ठ पत्रकार और हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार पलाश विश्वास का यह आलेख मूलतः 30 जुलाई 2015 को प्रकाशित हुआ था। यह आलेख आज भी प्रासंगिक है क्योंकि “यूं समझिये कि नंगी तलवारें अब खिलिखिलाते कमल हैं। वरना लोकतंत्र की मजबूरी (compulsion of democracy) कोई नहीं है वरना हिंदू राष्ट्र हैं हम”
यूं समझियें कि नंगी तलवारें अब खिलिखिलाते कमल हैं। वरना लोकतंत्र की मजबूरी कोई नहीं है वरना हिंदू राष्ट्र हैं हम शुक्रिया कि हिटलर थमे हुए हैं न्याय की गुहार लगायें जो भी बेअक्ल लोकतंत्र की मजबूरी है कि सिर्फ पाकिस्तान जाने की फतवा है वरना आपरेशन ब्लू स्टार कहीं भी संभव है कि हम भी पाकिस्तान और बांग्लादेश बन रहे हैं हर चीज अगर मजहबी चश्मे से देखेंगे, तो हर चीज फिर मजहबी है और हकीकत की कोई जमीन कहीं नहीं है।
हिंदू राष्ट्र के लिए सबसे जरूरी है कि सबसे पहले हिंदू राष्ट्र में सत्यमेव हटा दीजिये। गौतम बुद्ध के तमाम शील और सिद्धांत से तौबा कीजिये। सबसे पहले तिरंगे से अशोक चक्र हटा दीजिये और वहां हिंदुत्व और हिंदू राष्ट्र का निशान कोई टांग लीजिये और हर गैरहिंदू को जिबह कर दीजिये। समता न्याय और भ्रातृत्व से परहेज कीजिये।
अहिंसा (non-violence)
गौर करें कि राष्ट्रपति को खत लिखने वाले तमाम दस्तखत हम जैसे नाचीज के नहीं है हरगिज, उनमें तमाम दस्तखत सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीशों का है। गौर कीजिये कि उनका तकाजा याकूब मेनन को बेगुनाह साबित करने का नहीं है। वे सारे के सारे सजा-ए-मौत के खिलाफ हैं और इस हक में है कि गुनाह पूरी तरह साबित होने से पहले, अपनी जान को बख्श देने की आखिरी अर्जी पर फैसला होने से पहले किसी को फांसी पर लटकाया न जाये।
कुल गरज इतना है और वे लोग इतने मुसलमां भी नहीं हैं कि सारे के सारे पाकिस्तान, बांग्लादेश, दुबई भेज दिये जायें। ऐसे भेजने लगें तो इस मुल्क में ऐसा कोई बचेगा नहीं जिसका दिलो दिमाग सही सलामत है। सियासत भी नहीं बचेगी। मुल्क तबाह हो न हो, हुकूमत भी नहीं बचेगी और याद रखें कि हिटलर को भी आखिर खुदकशी करनी होती है। वरना जो मिसाइलमैन अभी-अभी इस हिंदू राष्ट्र की सरजमीं कह गये, जिन्हें हम बेहतरीन साइंटिस्ट बता रहे हैं, उनकी गमी में राष्ट्रीय शोक मना रहे हैं, टीवी पर चौबीसों घंटे जिनकी चर्चा है और कसारे कागद कारे हैं जिनके सम्मान में। सोशल साइट पर हर कवर पर जिनकी तस्वीर है और लोगों ने उनकी तस्वीर से प्रोफाइल भी बदला है, वे भी राष्ट्रद्रोही हैं क्योंकि वे भी सजा-ए-मौत के खिलाफ थे। वरना जिस शख्स ने इक्कीस साल जेल में बिता दिये, उसको फांसी क्या, उम्र कैद क्या।
लोकतंत्र की मजबूरी है कि हर नागरिक को अपनी जान माल की हिफाजत का आखिरी मौका मिलना चाहे चाहे वही हो गुनाहगार। न्यायिक प्रक्रिया पूरी होने से पहले लोकतंत्र में किसी को यूं लटका देना न्याय व्यवस्था की अवमानना है। मामला सियासत का है खालिस जिसे मामला मजहबी बना दिया गया है। वरना यह हिंदू बनाम मुसलमान मामल कतई नहीं है जैसा कि कोई दंगा फसाद भी यकीनन हिंदू बनाम मुसलमान कहीं होता नहीं है।
अब इसका मतलबी भी समज लीजिये कि विश्व हिन्दू परिषद के अंतरराष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष प्रवीण तोगड़िया ने मांग की है कि सलमान खान को पाकिस्तान भेज देना चाहिए।
फासिज्म के राजकाज का असल चेहरा दरअसल कोई महाजिन्न, टाइटेनिक बाबा या बिरिंची बाबा नहीं है यकीनन, वह दरअसल मुकम्मल हिंदुत्व ब्रिगेड है और देश का कानून भी वही हिंदुत्व है। बाकी वही लोकतंत्र हैं, जिसके सूअरबाड़े में असली कोई जंगली सूअर ऐसा नहीं है जो किसी किसान के खेत जोत दें। सलामती चाहिए तो पाकिस्तान चले जायें सल्लू मियां। चाहें तो दुबई में बंगला बांध लें क्योंकि मजहबी दीगर मुल्कों का दस्तूर यही है कि इत्तफाक न हुआ और आजाद ख्याल तबीयत हुई और जुबान बेलगाम हुई तो दुबई या लंदन या न्यूयार्क या पेरिस में आशियाना भी कोई होना चाहिए।
शर्म है कि बांग्लादेश और पाकिस्तान में मजहब के नाम जो हो रहा है। इस्लाम के नाम अरब और अफ्रीका में जो हो रहा है, अब तक हिंदूराष्ट्र में वह सब कुछ दोहराया नहीं गया है। फौरन बिस्मिल्ला कर दें हमारे हुजूर।
हमारी समझ में नहीं आती यह बात कि औरत मर्द में मुहब्बत होती है किसी वाकये में तो न मजहब आड़े आता है और न जात पांत, न रंग रुप, बच्चे की किलकारियां तमाम अड़चनों को रपे रखकर गूंजती है क्यों और तब फिंजा क्यों इतनी खिलखिलाये हैं। ऐसा क्यों न हो कि दीगर जात, दीगर मजहब, दीगर रंग के दर्म्यान हो मुहब्बत तो कायनात इस बदतमीजी पर मेहरबान क्यों है और फिर दुनिया उसके खिलाफ क्यों है। फिर यह बात भी समझ से परे हैं कि जनमजात किसी का कोई मजहब क्यों नहीं होता और मजहब की तहजीब क्यों नहीं आती है जनमजात। तो किसी सुनामी अनामी की जरूरत ही नहीं होती। बहरहाल, जहां तक न्याय का मामला है, वह कुल मिलाकर इतना है, जैसे कि दावा है कि कोई गुनाहगार छूट जाये तो गम नहीं, लेकिन किसी बेगुनाह को सजा नहीं होना चाहिए।
अब देखिये जनाब कि सल्लू मियां होंगे बहुत बड़े स्टार, होंगे हर दिल अजीज, होगा हर ईद उन्हीं के नाम, परदे पर वे बजरंगी भाईजान हो सकते हैं और अपने खिलाफ तमाम मामलों में वे बेकसूर खलास भी निकल सकते हैं, लेकिन दरअसल वे मुसलमान हैं और बजरंगी या बजरंगवली वे हरगिज नहीं हो सकते। न उन्हें हिंदू होने का कोई विशेषाधिकार है, देश हिंदुओं का है और एक मुसलमान होकर वे जब देश के बारे में बोल रहे हैं तो यकीनन राष्ट्र की सुरक्षा के लिए खतरा हैं और उनकी सबसे कम सजा यह है कि उन्हें इस मुल्क से रिहा हो जाना चाहिए। पाकिस्तान जायें वे। मुश्किल यह है कि वे सुपरस्टार भी हैं, जिनकी वक्त बेवक्त सियासत की मार्केंटिंग के लिए या फिर सीधे मजहब की मार्केटिंग की सख्त दरकार होती है और दिलजोई की खातिर पतंग उड़ाने की तस्वीरें भी जारी करनी होती हैं। तो उन्हें यूपी के अनजान, असम के बेबस और कश्मीर घाटी के बेगुनाह मुसलमानों की तरह सीधे मौत के घाट उतारने का इंतजाम तो हो ही नहीं सकता।
मुश्किल यह है कि हम किसी खातून को तसलीमा नसरीन बना नहीं सके हैं। सानिया बिटिया के खिलाफ खूब बोले हैं लेकिन उसका करिश्मा यह कि वे जब तब तिरंगा फहरा देती हैं और कोई फतवा उनके खिलाफ चल नहीं सकता।
पाकिस्तान की मजहबी हुकुमत ने ढाका विश्वविद्यालय में बख्तरबंद तोपें भेजकर गोले दागकर बांग्लादेश के बागी जेहन के कत्लेआम को अंजाम दिया था।
सूअरबाड़े में कम नौटंकी होती नहीं है और इत्तफाकन सारे के सारे रंगबिरंगी नगाड़े खामोश हैं। आंखों देखा हाल लाइव है। पुणे में कुछ बच्चे बागी हैं तो देश के तमाम आईआईटी मजहब के खिलाफ हैं। सीधे हिंदुत्व के खिलाफ हैं और राष्ट्रद्रोही हैं वहां सारे छात्र और शिक्षक। तो किसी वाइस चांसलर या चेयरमैन को बदलकर बगावत खत्म यकीनन कर देना नामुमुकिन है।
जाहिर है कि यह मसला स्मृति ईरानी के बस में नहीं है।
डाउ कैमिकल्स के वकील गिरोह देश बेचने में मशगूल हैं और जाहिर है कि कोई वकील उन्हें मिल नहीं रहा जो इमरजेंसी लगाने की वाजिब दलील गढ़ लें फटाफट। वरना जब तोपों से स्वर्ण मंदिर गिराया जा सकता है तो बगावत के सारे ठिकाने, राष्ट्रद्रोही सेकुलर तबके को क्यों नहीं तोपों से उड़ा देते? क्यों नहीं विश्वविद्यालयों को और तमाम आईआईटी और तमाम संस्थानों को बारूदी सुरंगों ऐसे फौरन उड़ा देते हैं? यह लोकतंत्र की मजबूरी है। वरना मौका मिला तो वे लोकतंत्र की भी धज्जियां उड़ा सकते हैं। सत्तर और अस्सी के दशक में देश भर में ऐसा बार-बार हुआ है, जब कांग्रेस ही आरएसएस थी। जैसे अब भाजपा आरएसएस है। अब देश फिर वही सत्तर अस्सी दशक है।
फिर पंजाब जलने लगा है। कश्मीर तो हमेशा ज्वालामुखी है। असम कत्लेआम है। मणिपुर आफसा है तो मध्यभारत और समूचा आदिवासी भूगोल सलवा जुड़ुम है। अब लोकतंत्र की उतनी मजबूरी भी नहीं है। तमाम कायदे कानून बदल दिये गये हैं और बदले जा रहे हैं। दसों दिशाओं में अश्वमेध के घोड़े दौड़ रहे हैं। सारे सांढ़ छुट्टा घूम रहे हैं। गला नापने लगे हैं तमाम हत्यारे।
जाहिर है कि जम्हूरियत की उतनी मजबूरी भी नहीं है और न नागरिकों के कोई हकोहकूक हैं और न इंसानियत का कोई तकाजा, फिर भी शुक्रिया हिटलर महाराज का, वे जो लोकतंत्र की मजबूरी से विदेशी पूंजी के लिहाज से थमे हुए हैं।
पलाश विश्वास