जयपुर, 16 नवंबर 2019. जनवादी लेखक संघ और जनसंस्कृति मंच द्वारा देराश्री शिक्षक सदन, राजस्थान विश्वविद्यालय में आयोजित किये जा रहे जन साहित्य पर्व के दूसरे दिन आज ‘सिनेमा के रास्ते’,’साहित्य के रास्ते’ और ‘सियासत के रास्ते’ पर सत्र हुए.
पहला सत्र - सिनेमा के रास्ते
पहले सत्र ‘सिनेमा के रास्ते’ पर बोलते हुए राष्ट्रीय इंदिरा गाँधी मुक्त विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे जवरीमल पारेख ने कहा कि सिनेमा हमेशा एक महंगा माध्यम रहा है, सिनेमा को बिना तकनीक और संसाधनों के नहीं बनाया जा सकता।
जवरीमल पारेख ने भारतीय सिनेमा के शुरुआत से 123 साल के सफर को बताते हुए कहा कि दादासाहब फाल्के ने एक अंग्रेजी फ़िल्म ईसा मसीह देखकर ही पौराणिक हिंदी फिल्म बनाने का विचार किया था और पहली फ़िल्म राजा हरिश्चन्द्र जो एक मूक फ़िल्म थी, बनायी और इस फ़िल्म में कोई अभिनेत्री नहीं थी, पुरुष किरदारों ने ही स्त्री अभिनेत्री के रोल निभाये थे। इसके बाद 1931 में पहली बोलती फ़िल्म (First speaking film) जिसमें गीत, नृत्य, संवाद थे वो बनी 'आलमआरा'। उस समय ऐसी कोई फिल्में नहीं बने जिसका कोई राजनैतिक मकसद हो इसलिए अंग्रेजों ने 1920 में सेंसर बोर्ड बनाया और इस कारण हर फिल्म को रिलीज होने से पहले अनुमति की आवश्यकता पड़ती थी। लेकिन बावजूद इसके ऐसी कई फिल्में बनीं जिन्होंने उस समय की समस्याओं को उठाया। क्योंकि उस वक़्त फ़िल्म बनाने के लिए बहुत पैसे की जरूरत पड़ती थी इसलिए कई फ़िल्म कंपनियां बनीं जिनमे दादासाहब फाल्के की 'हिंदुस्तान फिल्म्स', वी शांताराम, फतेहलाल की 'प्रभात फिल्म्स' बनी। 1932 में जब पूना पैक्ट हुआ उसी वर्ष अछूत समस्या पर फ़िल्म बनी। 1936 में 'अछूत कन्या' फ़िल्म बनी थी।
इसी सत्र में बोलते हुए 'हंस' के सहसंपादक और दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर विभास वर्मा ने कहा कि पहले
इसी सत्र में बोलते हुए लेखक, निर्देशक, और कलाकार रणवीर सिंह ने कहा कि हमारे देश में पहली बार 1857 में कातिल खुल कर सामने आया था जो 1947 में ओझल हो गया और फिर 1992 में सामने आया और आज 2019 में नंगा होकर सामने है।
नाटक के इतिहास (History of play) पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि 1876 में लखनऊ में नीलदर्पण नाटक खेला गया लेकिन वहां झगड़े हुए तब कहा गया था कि नाटक राजनैतिक हथियार है और तभी अंग्रेजों ने ‘ड्रैमेटिक परफॉर्मेंस एक्ट’ (Dramatic Performance Act) बनाया जिसमे कोई भी नाटक प्रदर्शित करने से पहले अनुमति लेनी पड़ती थी। उस वक़्त कईं ऐसे नाटक हुए जिसमें सामाजिक जागरूकता थी।
उन्होंने पारसी थियेटर (Parsi Theater) के लिए कहा कि पारसी थियेटर इसलिए बंद नहीं हुआ कि वो अश्लील था बल्कि इसलिये हुआ कि अंग्रेजों को उससे डर था।
दूसरा सत्र- साहित्य के रास्ते
इस सत्र की शुरुआत में इब्बार रबी जी ने बृज कविता "मोहे राम जी ने भेजो, सबने राम-राम कह दईये" सुनाई।
इस सत्र में बोलते हुए साहित्यकार आलोक श्रीवास्तव ने कहा कि हिंदुस्तान में एक नए वैचारिक जागरण की आवश्यकता है। संकीर्णता ने हिंदी साहित्य को बंजर बना दिया और साम्यवाद को मध्यमवर्गीय बना दिया। हमने केवल सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को ही प्रगतिशीलता का प्रतीक मान लिया लेकिन जयशंकर प्रसाद के साहित्य के बिना क्या कल्पना की जा सकती है? हिंदी की प्रगतिशीलता पर जो सामंती प्रभाव है, उससे निकालना होगा। हिंदीभाषी क्षेत्र में हिंदी साहित्य की पंहुच को सुगम करना पड़ेगा, हिंदी के पुनर्जीवन की आवश्यकता है।
उड़िया और दलित साहित्यकार वासुदेव सुनानी ने कहा कि हमें साहित्य, समाज, धर्म, राजनीति को अलग-अलग करके नहीं देखना चाहिए क्यों कि ये सब एक दूसरे को प्रभावित करते हैं।
इसी सत्र में बोलते हुए 'आलोचना' के संपादक, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय महासचिव संजीव कुमार कहा कि मैं जलियांवाला बाग शहादत के बाद के सौ सालों को हिंदी के लिए जनतांत्रिकरण और जनवादीकरण के मानता हूं। जनवाद का सीधा मतलब लोकतंत्र है। उन्होंने कहा कि हर वक़्त में शासन के विरूद्ध जाकर साहित्य रचना बहुत कठिन होता है लेकिन फिर भी ऐसे साहित्य रचे गए। प्रेमचंद की सोजे वतन को 1907 में जलाया गया लेकिन उसके बाद भी उनके साहित्य में सामाजिक जागरूकता दिखती है।
तीसरा सत्र- सियासत के रास्ते
इस सत्र में आलोक श्रीवास्तव ने देश के आज के हालात पर बोलते हुए कहा कि जंजीर जेवर बन जाए और उसको पहनने वाले उसमें ही अपनी मुक्ति समझे कुछ ऐसी ही हालत आज हमारे देश की है।
कामरेड बादल सरोज ने कहा कि जलियांवाला बाग आज़ादी की लड़ाई की संगठित शुरुआत थी। 1857 की लड़ाई जहां बिखरी हुई थी वहीं 1919 की लड़ाई एक संगठित शुरुआत थी। एक रोमांचक विडम्बना दिखती है कि ये 100 साल हमें और पीछे ले जाने के रहे हैं। हमारी लड़ाई केवल आज़ादी की लड़ाई नहीं बल्कि एक राजनैतिक, वैचारिक उथल पुथल की थी, हर व्यक्ति लड़ते हुए सोच रहा था कि आजादी क्यों चाहिए और जनता को जोड़ने के लिए भी काम हो रहा था और यही उस लड़ाई की महत्वपूर्ण बात थी। आज असमानता की खाई इतनी है कि मुकेश अम्बानी की सालाना कमाई लाखों करोड़ है, उतनी कमाई अगर हम करना चाहे तो हमें इतने लाख साल बिना सोये काम करना पड़ेगा। भारत का संविधान कहता है कि अगर सबसे ऊपर वाले व्यक्ति की कमाई 10 रुपये है तो नीचे वाले की 1 रुपया होना चाहिए और ये अनुपात इससे नीचे नहीं हो लेकिन अभी ये अंतर लाख गुना है।
युवा वक्ता मयूर ने कहा कि हमारे देश का मतलब एकता है जो अब खत्म होती जा रही है अब हमें देशभक्ति सिखाने वाले लोग आ गए हैं। संविधान को छोड़कर मनुस्मृति लागू करने के प्रयास हो रहे हैं। एक तरफ देश में भगत सिंह, अम्बेडकर की विचारधारा है और दूसरी तरफ देश की एकता तोड़ने वाली विचारधारा है। हमारे हर काम पर नजर रखी जा रही है।