राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रशिक्षणार्थियों के सबसे ऊंचे वर्ग, तृतीय वर्ष के दीक्षांत समारोह में पूर्व-राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के संबोधन पर छिड़ी बहस, संबंधित आयोजन के बाद भी थमी नहीं है। यह गौरतलब है कि न तो उक्त संबोधन से पहले इस पर कोई बहुत ज्यादा बहस थी कि जीवन भर राजनीति से कांग्रेसी और विचारों से उदार व धर्मनिरपेक्षतावादी रहे प्रणव मुखर्जी, आरएसएस के प्रशिक्षणार्थियों के सामने संबोधन में क्या कह सकते हैं और न उनके संबोधन के बाद इस पर कोई बहुत बहस है कि प्रणव मुखर्जी ने अपने संबोधन में क्या कहा? वास्तव में क्या कहा पर जो थोड़ी-बहुत बहस है भी, वह भी मुख्यत: इसी पर है कि उन्होंने क्या नहीं कहा या किस तरह नहीं कहा?
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यह वाकई असाधारण है कि वह इस मौके पर मेजबान आरएसएस के संबंध में कोई आलोचनात्मक टिप्पणी करने से ही नहीं, उसका जिक्र तक करने से सायास बचे हैं। दीक्षांत समारोह के मौके पर हुए इस संबोधन में जिस आरएसएस की दीक्षा का अंत है, उसकी भूमिका का कोई जिक्र तक नहीं है, न आजादी से पहले और न आजादी के बाद। यह दूसरी बात है कि समग्रता में अपने लिए इस प्रसंग की उपयोगिता को देखते हुए, आरएसएस इस संबोधन पर खुशी जता रहा है। स्वाभाविक रूप से मुखर्जी ने जो बोला या जो नहीं बोला उस पर बहस का भी संबंध मुख्यत:
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आडवाणी ने अपने मजबूरी के लंबे मौन को तोड़ा
अचरज की बात नहीं है कि मीडिया के बड़े हिस्से ने आरएसएस के इस सारत: आंतरिक आयोजन के अपने अति-उत्साही प्रचार-प्रसार को, इसे ‘संवाद’ के उदाहरण के तौर पर पेश करके उचित ठहराने की कोशिश की है। यहां तक कि इसे बहुत बड़े बदलाव के संकेत के रूप में पेश करने की भी कोशिशें की गयी हैं। उधर लालकृष्ण आडवाणी ने अपने मजबूरी के लंबे मौन को तोड़क़र इसे ‘हमारे देश के समकालीन इतिहास की महत्वपूर्ण घटना’ करार दिया है।
आरएसएस के आजीवन ‘‘स्वयंसेवक’’ आडवाणी का मानना है कि श्री मुखर्जी और आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत ने, ‘विचारधारात्मक संबद्ताधओं तथा मतभेदों का अतिक्रमण करने वाले संवाद की प्रशंसनीय मिसाल सचमुच कायम’ की है। मुख्यधारा के मीडिया में इस ‘संवाद’ की उपयोगिता पर सवाल उठाने वालों की राजनीतिक-विचारधारात्मक ‘छुआछूत’ का पक्षधर बताकर, काफी लानत-मलामत भी की गयी है।
‘संवाद’ का विरोध कौन कर सकता है?
जाहिर है कि ‘संवाद’ का अपने आप में कौन विरोध कर सकता है? संवाद को विशेष रूप से जनतंत्र का तो प्राण ही माना जाता है। अमत्र्य सेन तो भिन्न विचारों के बीच बहस-मुबाहिसे या संवाद को भारतीय मानस की बुनियादी विशेषता ही मानते हैं। प्रणव मुखर्जी ने अपने संबोधन में भी, संभवत: परोक्ष तरीके से अपने उक्त निर्णय की आलोचनाओं का जवाब देते हुए भी, संवाद के महत्व और जरूरत पर काफी जोर दिया है। इसलिए, पूछा जा रहा है कि आरएसएस के ही साथ संवाद करने से सिर्फ इसलिए कैसे इंकार किया जा सकता है कि उसके साथ, धर्मनिरपेक्षता में विश्वास रखने वालों के विचार नहीं मिलते हैं? फिर उसके साथ संवाद करने से आज कैसे इंकार किया जा सकता है, जब खुद उसके आलोचकों के हिसाब से आरएसएस को न सिर्फ सत्ता तक पहुंच हासिल है बल्कि वह देश के राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक एजेंडा को दूर तक प्रभावित करने की स्थिति में है। उसके साथ संवाद करने से इंकार करना क्या उसके आलोचकों का गैर-जिम्मेदारी दिखाना ही नहीं है? क्या धर्मनिरपेक्षता में विश्वास करने का दावा करने वालों की जिम्मेदारी नहीं बनती है कि इतने प्रभावशाली संगठन को अपने विचारों से कायल करने की कोशिश करें? स्टेट्समैन बनकर, राजनीतिक मताग्रहों से ऊपर उठकर, प्रणव मुखर्जी ने क्या यह संवाद करने की जिम्मेदारी ही नहीं दिखाई है? आखिरकार, इससे इससे तो कोई इंकार नहीं कर सकता है कि उन्होंने नागपुर जाकर आरएसएस के सबसे ऊंची कक्षा के प्रशिक्षुओं को, उनके दीक्षांत समारोह में कुल मिलाकर समावेशी, धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद का ही पाठ पढ़ाया है।
‘संवाद’ की अधूरी और सतही समझ पर तर्क
दुर्भाग्य से ऐसे सारे तर्क ‘संवाद’ की अधूरी और सतही समझ के आधार पर दिए जा रहे हैं। इनमें संवाद के लिए सिर्फ दो पक्षों का होना तथा अपनी कहना भर काफी मानकर चला जा रहा है। लेकिन, यह संवाद की जरूरी शर्त तो है, लेकिन पर्याप्त शर्त नहीं। किसी भी सार्थक संवाद के लिए इतनी ही जरूरी शर्त, दोनों पक्षों का सचमुच संवाद के लिए तैयार होना है। बेशक, आरएसएस ने आधिकारिक रूप से प्रणव मुखर्जी को उक्त आयोजन में संबोधन के लिए आमंत्रित किया था, लेकिन वास्तव में संवाद के वास्ते तैयार होने के लिए, इतना भर काफी नहीं था। वास्तव में इस सचाई को संघ प्रमुख भागवत ने यह रेखांकित करके परोक्ष रूप से स्वीकार भी कर लिया था कि प्रणव मुखर्जी को संबोधन के लिए आमंत्रित करने का अर्थ, आरएसएस को उनके विचार स्वीकार्य होना नहीं था। ‘प्रणव मुखर्जी प्रणव मुखर्जी हैं, संघ, संघ है।’
भागवत ने पहले ही स्वयंसेवकों से स्पष्ट रूप से कह दिया था कि मुखर्जी के संबोधन में जो अपने अनुकल लगेगा, उसे ही वे ग्रहण करें। वैसे भी आरएसएस से बाहर के लोगों को संबोधित करने के लिए तृतीय वर्ष के दीक्षांत के मौके पर बुलाना, आरएसएस प्रमुख के अनुसार उनके संगठन के लिए एक सालाना कवायद से ज्यादा महत्व नहीं रखता था। इस पैंतरेबाजी से भिन्न, संवाद के लिए वास्तव में तैयार होना, दो पक्षों के बीच किसी समान आधार की उपस्थिति और उसकी पहचान की मांग करता है। वास्तव में इसी समान आधार से संवाद का दायरा तय होता है कि किन पक्षों के बीच संवाद होगा और किन के बीच संघर्ष। हरेक समाज अपने विकास किसी खास चरण में इस दायरे को परिभाषित करता है और यह उसकी सामाजिक कॉमनसेंस का यानी उस समाज में क्या स्वीकार्य है और क्या नहीं, इसका आधार बनता है। आजादी की लड़ाई के दौर में ‘टोड़ी बच्चा हाय-हाय’ होती थी, उनसे संवाद नहीं। मानव विकास के मौजूदा मुकाम पर कौन नरभक्षण या प्रत्यक्ष गुलामी के समर्थकों से या जन्मना ऊंच-नीच या छुआछात पर संवाद करना चाहेगा?
कहने का अर्थ यह है कि संवाद कोई संदर्भ निरपेक्ष प्रक्रिया नहीं है और कोई भी समाज मतभिन्नता के एक निश्चित दायरे में ही संवाद करता है। इस दायरे में संवाद की मांग ही जनतांत्रिक मांग है, इससे बाहर संवाद की नहीं।
इसीलिए अचरज की बात नहीं है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जिसके संस्थापक हेडगेवार को प्रणव मुखर्जी ने ‘संवाद’ के नाम पर ‘भारत माता का महान सपूत’ करार दिया है, राष्ट्रीय आंदोलन से ही पूरी तरह से अनुपस्थित नहीं रहा था, राष्ट्रीय आंदोलन के दौर के समूचे संवाद से ही बाहर रहा था। इसकी सीधी सी वजह यह थी कि यह राष्ट्रीय आंदोलन, भारतीय राष्ट्र की जिस समावेशी कल्पना पर आधारित था, आरएसएस का हिंदू-राष्ट्र का लक्ष्य सीधे उसी के खिलाफ पड़ता था। अचरज नहीं कि हेडगेवार ने सचेत रूप से आरएसएस को राष्ट्रीय आंदोलन से बाहर ही नहीं रखा था, उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा के रूप में कांग्रेस से खुद को इसीलिए अलग किया था कि वह ‘हिंदू-मुस्लिम’ एकता को आधार बनाती थी। दूसरी ओर, गांधी, नेहरू से लेकर सरदार पटेल तक, उसे राष्ट्र के लिए हानिकर मानते थे। अचरज नहीं कि इस टकराव की परिणति गांधी की हत्या में हुई, जिसके लिए वैचारिक वातावरण बनाने के लिए सरदार पटेल ने ही आरएसएस को जिम्मेदार ठहराया था और पहली बार उन्होंने ही आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया था। ब्रिटिश राज के दौरान आरएसएस के अस्तित्व के दो दशकों में विदेशी हुकूमत को तो उस पर किसी तरह की पाबंदी लगाने की जरूरत महसूस नहीं हुई थी।
आरएसएस की मांग ‘मनुस्मृति’ को ही संविधान बनाए जाने की थी
बेशक, आजादी के बाद के सत्तर साल में बहुत कुछ बदल चुका है। लेकिन, राष्ट्रीय आंदोलन की भारत की एक समावेशी, धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की मूल कल्पना नहीं बदली है। उल्टे इस कल्पना को भारत के संविधान में कानूनी स्तर पर स्थापित किया गया है। यह किसी से छुपा हुआ नहीं है कि आरएसएस ने इस संविधान के अपनाए जाने के समय पर भी विशेष रूप से संविधान की समावेशी धर्मनिरपेक्ष बुनियाद का भी विरोध किया था। वास्तव में उसकी मांग तो ‘मनुस्मृति’ को ही संविधान बनाए जाने की थी। उसके बाद गुजरे तमाम सालों में आरएसएस में भी राजनीतिक दल खड़ा करने से लेकर पोशाक तक बहुत कुछ बदला है, लेकिन भारत की सीमाओं में ‘हिंदू राष्ट्र’ खड़ा करने का उसका बुनियादी लक्ष्य नहीं बदला है और अपने इस लक्ष्य के ‘शत्रुओं’ की गुरु गोलवालकर की दी हुई पहचान भी। आरएसएस के राजनीतिक बाजू, भाजपा के मौजूदा राज के चार साल में गोरक्षा से लेकर, धर्मांतरण, लव जेहाद, सांस्कृतिक दारोगागीरी और यहां तक कि राष्ट्रवाद तक के नाम पर छेड़ी गयीं हिंसक मुहिमें, इसका सबूत हैं कि यह प्रवृत्ति भारतीय राष्ट्र के लिए हानिकर है। आरएसएस भी ‘कांग्रेस-मुक्त’, ‘कम्युनिस्ट-मुक्त’ आदि के नारों से इस शत्रुता की तस्दीक करता है। ऐसे विरोधियों के बीच कैसा ‘संवाद’! हां! दांव-पेच जरूर हो सकते हैं। और एक-दूसरे को इस्तेमाल करने की कोशिशें भी। प्रणव मुखर्जी भी इस्तेमाल ही तो हुए हैं। हां! अगर उनकी बची हुई राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की अटकलों में कोई सच है तो कहना होगा कि वह आरएसएस का इस्तेमाल करने की सवा चतुराई में इस्तेमाल हुए हैं।
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