राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उदारवाद
प्रणब मुखर्जी को बुलाकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ क्या साबित करने की कोशिश की है?
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को बुलाए जाने और मुखर्जी के वहां जाने पर मीडिया में कई तरह की बातें हुईं. लोगों ने इस बात पर अटकलें लगाईं कि इससे किसका फायदा होगा, आरएसएस का या मुखर्जी का. किसका फायदा होगा यह महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि यह महत्वपूर्ण है कि संघ के प्रवक्ता इस निमंत्रण को किस तरह सही ठहरा रहे हैं.
What rss has achieved by inviting pranab Mukherjee on their platform
हमें संघ की उदारता को उदारता के व्यापक दायरे में देखना होगा. पहली बात तो यह कि उदारता के अंदर बातचीत, लोकतांत्रिक तौर-तरीकों और इसके जरिए सकारात्मक निष्कर्ष तक पहुंचना जरूरी है. दूसरी बात यह है कि सार्वजनिक व्यक्तित्व और उदार सिद्धांतों के बीच एक सामंजस्य होना चाहिए.
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ऐसे में संघ के सामने दो मसलों को रखना चाहिए. पहला यह कि अगर संघ का उदारता के पहले आयाम में यकीन है तो क्या वह ऐसे संवादों के निष्कर्षों को आम लोगों की भलाई में उपयोग करने में साझेदार बनेगा? दूसरे शब्दों में कहें तो क्या लोकतांत्रिक तौर-तरीकों के प्रति संघ का यह प्यार उसे हर किसी के लिए समान नैतिक वितरण की सोच की ओर ले जाएगा? दूसरी बात यह कि संघ पूर्व राष्ट्रपति को बुलाने को सही ठहरा रहा है तो क्या वह ऐसे किसी संवाद की
अलोकतांत्रिक आरएसएस
संघ के प्रवक्ता उन लोगों पर तीखे हमले कर रहे हैं जो यह कह रहे हैं कि पूर्व राष्ट्रपति को यह निमंत्रण नहीं स्वीकार करना चाहिए था. आरएसएस खुद को लोकतांत्रिक तौर-तरीकों को स्वीकार करने के नाम पर उदार दिखाने की कोशिश में है. हालांकि, इन तौर-तरीकों का तब ही कोई मतलब रहता है जब इसमें शामिल सभी पक्ष एक ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचे जिससे वैसे मूल्य उभरें जिससे सभी लोगों का भला हो. ये मूल्य हैं मानवीय गरिमा, मित्रता, स्वतंत्रता, समानता और न्याय. हमें ऐसी परिस्थितियां बनानी होंगी जिससे इंसान कम से कम एक पवित्र जानवर के बराबर तो रहे ही. किसी भी संवाद से एक निष्कर्ष पर पहुंचने की जरूरत तब और महसूस होती है जब आरएसएस जैसी संस्थाएं पहले से ही निष्कर्ष तक पहुंची हुई दिखती है. उदाहरण के तौर पर संघ की ओर से बार-बार यह कहा जाता है कि जो धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करते हैं वे छद्म धर्मनिरपेक्ष हैं.
हमें ऐसे निष्कर्षों से परे जाने की जरूरत है. क्योंकि ये एकपक्षीय निर्णयों पर आधारित हैं और इनकी कोई नैतिक जमीन नहीं है और न ही ये सार्वभौमिक तौर पर सत्य हैं. ये एकतरफा घोषणा है और जो लोग खुले और पारदर्शी संवाद में यकीन करते हैं, उनकी नजर से यह बच जाता है. हमें उन मानवीय मूल्यों पर ध्यान देना होगा जिसका संबंध सभी से हो न कि किसी एक व्यक्ति से. सौभाग्य से भारत का संविधान ऐसे नैतिक मूल्य देता है जिसमें हर कोई समरसता से रह सके.
अगर किसी सिद्धांत का पालन करना मुश्किल हो जाए तो किसी भी संगठन के लिए यह जरूरी हो जाता है कि वह व्यक्ति को सिद्धांत से अलग करके देखे और व्यक्ति की कसौटी पर सिद्धांतों को परखे. जातियों की अनदेखी करते हुए बराबरी से हर किसी को देखने के सिद्धांत पर चलना मुश्किल काम है. भीमराव अंबेडकर ने समाज की बुराइयों पर लगातार प्रहार किया. रबींद्रनाथ टैगोर, महात्मा गांधी और अंबेडकर ने उन संभावनाओं पर विचार किया जिससे सामाजिक बुराइयां खत्म हो सकें. ये विचारक ऐसे विचार लेकर आए जिससे किसी भी संगठन के लिए व्यक्ति को परिवर्तन लाने वाले और जीवंत सिद्धांतों से अलग करना मुश्किल हो गया.
सांकेतिक तौर पर हाशिये के व्यक्ति को शामिल करते दिखाना ऐसे संगठनों को बचकर निकलने का अवसर देता है. हम पक्के तौर पर नहीं कह सकते कि आरएसएस वैसे बदलावों का वाहक बनेगा जो जाति आधारित बुराइयों को खत्म करता हो. अभी की स्थिति तो यह है कि इसने दलित, अल्पसंख्यक और आदिवासी समाज के कुछ लोगों को सांकेतिक तौर पर अपने साथ जोड़ा है. हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि कई बार सही सिद्धांत गलत लोगों को चुन लेते हैं. उदाहरण के लिए अंबेडकरवाद ने दलितों को चुना जिनके दक्षिणपंथी विचारधारा से प्रभावित होने की संभावना है. खाली व्यक्तित्वों या खास तरह के सिद्धांतों से भरे व्यक्तित्वों को शामिल करने से खुद को मजबूत करने वाली राजनीति ही पैदा होगी.
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भारत में राजनीति व्यक्ति और उसके राजनीतिक निर्णयों के आसपास चलने वाली चर्चाओं के आधार पर चली है. क्या आरएसएस इसका अपवाद है? यह देखने के लिए अभी इंतजार करना होगा.
EPW Editiorial, वर्षः 53, अंकः 23, 9 जून, 2018
First published on June 12,2018 07:06
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