सत्रह जनवरी को रोहित वेमुला की मौत को एक साल पूरा हो गया। पिछले साल ठीक इसी दिन हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के प्रतिभाशाली दलित पीएचडी स्कॉलर, रोहित वेमुला ने अपने एक मित्र के होस्टल के कमरे में फांसी लगाकर, अपनी जान दे दी थी। बेशक, सिर्फ तथ्य के तौर पर देखें तो रोहित वेमुला के आत्महत्या करने में किसी बहस की गुंजाइश नहीं थी। उसके अति-संवेदनशील तथा भावपूर्ण सुसाइड नोट के बाद तो रंच मात्र भी नहीं।
इसके बावजूद, इस घटना के खिलाफ उठी विरोध और विक्षोभ की देशव्यापी लहर में अगर व्यापक रूप से इसे ‘आत्महत्या नहीं, संस्थागत हत्या’ कहा जा रहा था, तो यह अकारण हर्गिज नहीं था। वैसे तो हरेक आत्महत्या ही एक हताश चीख होती है। लेकिन, रोहित वेमुला को तो ठीक शिकार के घेरे जाने की शैली में, चारों ओर से घेर कर हताशा के उस मुकाम पर पहुंचाया गया था, जहां उसके जैसे कर्मठ और जुझारू नौजवान को भी, सिर्फ निजी तौर पर ही नहीं बल्कि एक वृहत्तर जनतांंत्रिक आंदोलन के हिस्से के तौर पर भी, अपने सामने खड़ी ताकतों से निपटने का इसके सिवा कोई रास्ता नजर ही नहीं आया कि एक ही झटके में सारे झंझट से ही छुट्टïी पा ले।
जैसा कि सभी जानते हैं अगर हताशा की चरम अभिव्यक्ति के रूप में फांसी लगाने के लिए रोहित वेमुला ने अपने एक मित्र का कमरा चुना था, तो इसीलिए कि आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन के अपने चार साथियों के साथ रोहित वेमुला को सजा के तौर पर होस्टल से निकाल दिया गया था। वास्तव में उन्हें सिर्फ होस्टल से ही नहीं निकाला गया था बल्कि मैस समेत विश्वविद्यालय परिसर की सभी सार्वजनिक जगहों में उनका प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया गया था। सरल भाषा में कहें तो विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनके लिए सामाजिक बहिष्कार की एक विश्वविद्यालय के संदर्भ
याद रहे कि रोहित वेमुला की आत्महत्या तक पहुंचे सिलसिले की शुरूआत, इस दलित छात्र संगठन की एक पूरी तरह जनतांत्रिक गतिविधि पर हमले से हुई थी। मुजफ्फनगर के दंगों के खिलाफ बनी फिल्म, ‘मुजफ्फरनगर बाकी है’ के दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रदर्शन पर, एबीवीपी के हमले के विरोध स्वरूप, इस दलित छात्र संगठन ने हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में इस फिल्म का प्रदर्शन करने की घोषणा की थी।
इसके साथ ही इस संगठन ने मुंबई बम कांड के आरोपी यकूब मेमन को फांसी दिए जाने पर विरोध भी जताया था।
ठीक इन्हीं ‘अपराधों’ के लिए आरएसएस के छात्र बाजू एबीवीपी ने, जो केंद्र में मोदी सरकार आने से खुद को परिसर में सत्तारूढ़ छात्र संगठन मानकर चल रहा था, एएसए को खासतौर पर निशाने पर ले रखा था।
इसी की परिणति, एबीवीपी के स्थानीय प्रमुख के उसके होस्टल के कमरे में घेरे जाने में हुई, जिसने उसके रोहित वेमुला तथा उसके साथियों के खिलाफ मार-पीट की पूरी तरह से संदिग्ध शिकायत दर्ज कराने का रूप ले लिया। वास्तव में विश्वविद्यालय की पहली जांच में इस शिकायत को अगंभीर पाकर, दोनों पक्षों को चेतावनी देकर मामले को खत्म भी कर दिया गया।
लेकिन, यह संघ परिवार को मंजूर नहीं हुआ। केंद्रीय मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने, जो हैदराबाद से सांसद भी हैं, एबीवीपी के नेता के साथ विश्वविद्यालय द्वारा अन्याय किए जाने की शिकायत करते हुए, मानव संसाधन विकास मंत्री को शिकायती पत्र लिख डाला, जिसमें हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय को ‘‘राष्ट्रविरोधी ताकतों का अड्डा’’ घोषित कर दिया गया।
तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री, स्मृति ईरानी ने भी बड़ी तत्परता से राष्ट्रविरोधी ताकतों के अड्डों के खिलाफ हमला बोल दिया और विश्वविद्यालय प्रशासन को ताबड़तोड़ पांच चिट्ठियां हालात को सुधारने के लिए लिख डालीं।
इसके साथ ही साथ, विश्वविद्यालय को एक नया वफादार वाइसचांसलर भी दे दिया गया, जिस पर पहले ही दलित छात्रों के साथ अन्याय के आरोप लग चुके थे। इसी का नतीजा था कि उक्त एबीवीपी नेता की पुलिस शिकायत में तो कुछ नहीं हुआ, लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन ने एक दूसरी जांच कराने के बाद, रोहित वेमुला और उसके साथियों को उक्त असाधारण सजा सुना दी, जिसके खिलाफ लड़ते-लड़ते रोहित वेमुला ने हारकर अपनी जान ही दे दी।
वास्तव में इस घटना के दस दिन बाद, इस पर अपनी पहली ही सार्वजनिक प्रतिक्रिया में खुद प्रधानमंत्री ने माना था कि यह महज आत्महत्या नहीं थी बल्कि रोहित वेमुला को ‘आत्महत्या करने पर मजबूर किया गया था।’ लेकिन, जल्द ही उन्होंने इसे महज एक जुम्ला बनाकर भुला दिया। और उनकी सरकार के अलग-अलग बाजू इसे एक मामूली आत्महत्या और शुद्ध रूप से आत्महत्या का मामला साबित करने में जुट गए।
बार-बार यह याद दिलाया गया कि हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में ही पिछले कुछ वर्षों में आत्महत्या की यह दसवीं घटना थी। पहले किसी आत्महत्या का इतना शोर क्यों नहीं नहीं मचाया गया!
मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा गठित कथित न्यायिक जांच के जरिए कम से कम कागजी तौर पर तो इसे एक शुद्घ आत्महत्या बल्कि गैर-दलित की और वह भी नितांत निजी परेशानियों की वजह से आत्महत्या साबित भी किया जा चुका है। यह दूसरी बात है कि इसे कागजी और एक हद तक सोशल मीडिया की भी लड़ाई से आगे, आम जनता के बीच लेकर जाने की संघ परिवार की भी हिम्मत नहीं हुई है, फिर सत्ताधारी पार्टी की ऐसी हिम्मत होने का तो सवाल ही कहां उठता है।
एक बात तय है कि सामाजिक और राजनीतिक, दोनों स्तरों पर सत्ता में बैठी ताकतों की सारी कोशिशों के बावजूद, इस एक साल में रोहित को भुलाया नहीं जा सका है। दूसरी ओर यह भी सच है कि रोहित की ‘संस्थागत हत्या’ पर उठे सारे विरोध तथा विक्षोभ के बावजूद, रोहित को देश के मौजूदा कानून के अंतर्गत भी न्याय नहीं दिलाया जा सका है। लेकिन, अब यह अकेले रोहित के साथ न्याय का प्रश्न रहा भी नहीं है।
रोहित की मौत ने आमतौर पर सामाजिक बराबरी और न्याय के सवालों को और खासतौर पर शिक्षा परिसरों में सामाजिक बराबरी तथा जनतांत्रिक वातावरण के सवालों को इतने गाढ़े रंग से रेखांकित कर दिया है कि, अब इन सवालों को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। इसने सामाजिक न्याय की लड़ाई को, एक नये स्तर पर पहुंचा दिया है।
यहां आकर रोहित के लिए न्याय की लड़ाई ने शिक्षा परिसरों में सामाजिक अन्याय व भेदभाव के खिलाफ रोहित कानून बनवाने की जनतांत्रिक लड़ाई का ठोस रूप ले लिया है।
बेशक, यह लड़ाई अभी शुरू ही हुई है। फिर भी यह इसका इशारा है कि रोहित का बलिदान बेकार नहीं जाएगा। रोहित के बाद, हमारी दुनिया फिर पलटकर पहले जैसी नहीं हो सकती है। बेशक, एक साल में रोहित को न्याय नहीं मिल पाया, इसके लिए हम शर्मिंदा हैं। पर इसका गर्व भी है कि नयी ताकत तथा नये तेवर के साथ, सामाजिक न्याय की लड़ाई जारी है। 0