मेघालय, नगालैंड और त्रिपुरा में हुए विधानसभा चुनावों से पूरे देश को यह सबक लेनी चाहिए कि सामान्यीकरण से बचा जाए. त्रिपुरा में भारतीय जनता पार्टी को भारी जीत मिली. उसने 25 साल से शासन कर रहे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को उखाड़ फेंका. इसे मुख्यधारा की मीडिया ने पूर्वोत्तर में भगवा जीत कहकर प्रचारित किया. वे यह भूल गए कि पूर्वोत्तर में आठ राज्य हैं और ये आपस में राजनीति, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक तौर पर काफी अलग हैं. उन्हें एक साथ रखकर देखना उनकी अपनी विशिष्ट पहचान का अपमान है. उन राज्यों से बाहर उन्हें एक साथ देखने की प्रवृत्ति है और ये वहां के लोगों को परेशान करते रहा है.
त्रिपुरा में सत्ता विरोधी लहर के अलावा भाजपा को सबसे अधिक फायदा वहां की आबादी में हिंदुओं की संख्या अधिक होने से हुआ. इसने भाजपा के एजेंडे को स्वीकार किया. पहाड़ी राज्यों में ईसाई बहुसंख्यक हैं और वहां की कहानी बिल्कुल अलग है. त्रिपुरा में भाजपा को इतनी सीटें मिली हैं कि वह अपने बूते सरकार बना ले. लेकिन उसे यह कामयाबी एक ऐसी क्षेत्रीय पार्टी के सहयोग से मिली है जो राज्य के आदिवासियों के लिए अलग राज्य की मांग करती है. इंडिजिनस पीपल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा यानी आईपीएफटी त्रिपुरा सरकार में जूनियर पार्टनर है लेकिन वह भाजपा को काफी परेशान कर सकती है. क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के लिए अलग राज्य की मांग को मानना आसान नहीं होगा.
मेघालय और नगालैंड में स्थानीय राजनीति का अपना अलग मिजाज है. मेघालय का गठन
नगालैंड इस बार भी अलग रहा. वहां की क्षेत्रीय पार्टियां केंद्र की सत्ताधारी पार्टी के साथ बने रहना चाहती हैं. इसी का फायदा भाजपा ने उठाया. टी.आर. जेलियांग की नगा पीपुल्स फ्रंट से अलग होकर नेफियू रिओ ने नैशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी बनाया. भाजपा ने इसके साथ चुनाव के पहले गठबंधन किया. इसका फायदा भाजपा को मिला. एनडीपीपी और भाजपा ने नगालैंड में सरकार बनाई. आने वाले दिनों में अगर एनपीएफ में एक और टूट हो और इसके कुछ लोग सरकार में शामिल हो जाएं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. क्योंकि इस चुनाव के पहले तक नगालैंड विधानसभा में विपक्ष का एक भी विधायक नहीं था. नगालैंड में सत्ता में बने रहने का लोभ ऐसा है जो अलग-अलग तत्वों को एक साथ बनाए रखता है.
पूर्वोत्तर से बाहर के भारत के लिए इन राज्यों के चुनावों से क्या सबक निकलते हैं? पहला सबक तो ये है कि त्रिपुरा के नतीजे बाकी दो राज्यों की राजनीतिक हकीकत को बयां नहीं करते हैं. भाजपा ने त्रिपुरा में जीत भले ही हासिल कर ली हो लेकिन बाकी दो राज्यों में वह क्षेत्रीय दलों पर निर्भर है. निकट भविष्य में भाजपा अपने बूते सरकार बनाने की स्थिति में आते नहीं दिख रही. दूसरा सबक यह है कि भाजपा कांग्रेस से अलग नहीं है. सत्ता में आने के लिए ये दोनों पार्टियां कुछ भी कर सकती हैं. तीसरा सबक यह है कि भाजपा इन राज्यों में ‘विकास’ का मंत्र बेचने में इसलिए कामयाब हो गई क्योंकि उसके साथ इस क्षेत्र में कुशासन का दाग नहीं चिपका है. कांग्रेस के साथ यह चिपका हुआ है. अगले लोकसभा चुनावों में भाजपा को भी इस मोर्चे पर दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा क्योंकि जो वादे किए गए हैं, उन्हंे पूरा करना आसान नहीं है. अंतिम सबक यह है कि असम और त्रिपुरा जैसे राज्यों में जहां सीधा मुकाबला हो वहां तो भाजपा जीत हासिल कर लेती है लेकिन पूर्वोत्तर के बाकी राज्यों में सत्ता हासिल करने के लिए इसे क्षेत्रीय स्तर पर तोड़जोड़ करना पड़ रहा है और क्षेत्रीय पार्टियों का सहारा लेना पड़ रहा है. यह तोड़जोड़ करने में भाजपा इसलिए कामयाब हो पा रही है क्योंकि उसके पास सत्ता का चुंबक है जो क्षेत्रीय दलों को आकर्षित करता है.
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इकॉनोमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली वर्षः 53, अंकः 10, 10 मार्च, 2018
(Economic and Political Weekly)