भीमराव अंबेडकर को यहां से देखो : भारत एक खोज को अछूत की खोज ने ढंक दिया
आधुनिक युग में अछूत कैसे जीएंगे ? गैर अछूत कैसे जीएंगे इसके बारे में कोई विवाद ही नहीं था, क्योंकि हम सब जानते थे कि वे कैसे हैं और उन्हें क्या चाहिए ? किंतु अछूत को हम नहीं जानते थे। हम कबीर को जानते थे, रैदास को जानते थे। ये हमारे लिए कवि थे। साहित्यकार थे। संत थे। किंतु ये अछूत थे और इसके कारण इनका संसार भिन्न किस्म का था यह सब हम नहीं जानते थे।
अछूत की खोज आधुनिक युग की महानतम सामाजिक उपलब्धि है।
The search for the untouchables is the greatest social achievement of the modern era.
अछूत के उद्धाटन के बाद पहली बार देश के विचारकों को पता चला वे भारत को कितना कम जानते हैं। भारत एक खोज को अछूत की खोज ने ढंक दिया। आज भारत एक खोज सिर्फ किताब है, सीरियल है,एक प्रधानमंत्री के द्वारा लिखी मूल्यवान किताब है। इस किताब में भी अछूत गायब है। उसका इतिहास और अस्तित्व गायब है।
अंबेडकर ने भारत को सभ्यता की मीनारों पर चढ़कर नहीं देखा बल्कि शूद्र के आधार पर देखा। शूद्र के नजरिए से भारत के इतिहास को देखा, शूद्र की संस्कृतिहीन अवस्था के आधार पर खड़े होकर देखा। इसी अर्थ में अंबेडकर की अछूत की खोज आधुनिक भारत की सबसे मूल्यवान खोज है।
भारत एक खोज सभ्यता विमर्श को सामने लाती है, अछूत खोज परंपरा और इतिहास की असभ्य और बर्बरता की परतों को खोलती है। अंबेडकर इस अर्थ में सचमुच में बाबासाहेब हैं कि उन्होंने भारत के आधुनिक एजेण्डे के रूप में अछूत को प्रतिष्ठित किया। आधुनिक युग की सबसे जटिल समस्या के रूप में अछूत समस्या को पेश किया।
आधुनिकाल में किसी के लिए स्वाधीनता, किसी के लिए समाज सुधार, किसी के लिए औद्योगिक विकास, किसी के लिए क्रांति और
अछूत समस्या से संघर्ष किसी क्रांति के लिए किए गए संघर्ष से भी ज्यादा दुष्कर है। आधुनिक काल में क्रांति संभव है, आधुनिकता संभव है, औद्योगिक क्रांति संभव है किंतु आधुनिक काल में अछूत समस्या का समाधान तब ही संभव है जब मानवाधिकार के प्रकल्प को आधार बनाया जाए।
क्रांति, आधुनिकता, औद्योगिक क्रांति इन सबका आधार मानवाधिकार नहीं हैं। बल्कि किसी न किसी रूप में इनमें मानवाधिकारों का हनन होता है। अछूत समस्या मानवीय समस्या है इसके खिलाफ संघर्ष करने का अर्थ है स्वयं के खिलाफ संघर्ष करना और इससे हमारा बौद्धिकवर्ग, राजनीतिज्ञ और मध्यवर्ग भागता रहा है। ये वर्ग किसी भी चीज के लिए संघर्ष कर सकते हैं, किंतु अछूत समस्या के लिए संघर्ष नहीं कर सकते।
अछूत समस्या अभी भी मध्यवर्ग और पूंजीपतिवर्ग के चिन्तन को स्पर्श नहीं करती। अछूत सम्सया को वे महज घटना के रूप में दर्शकीय भाव से देखते हैं। अछूत समस्या न तो घटना है और न परिघटना और न संवृत्तिा ही है। बल्कि मानवीय समस्या है मानवाधिकार की समस्या है। मानवाधिकारों के विकास की समस्या है। हमारे समाज में मानवाधिकारों के विकास को लेकर जितनी जागृति पैदा होगी अछूत समस्या उतनी ही कम होती जाएगी। जिस समाज में मानवाधिकारों का अभाव होगा वहां पर अछूत समस्या, बहिष्कार की समस्या उतनी प्रबल रूप में नजर आएगी।
अछूत समस्या के पेचोखम
भारतीय समाज में शूद्र सिर्फ अछूत नहीं है। बल्कि गुमशुदा भी है। हम उसे कम से कम जानते हैं। हम उसे देखकर भी अनदेखा करते हैं। उसका कम से कम वर्णन करते हैं। अछूतों के जीवन के व्यापक ब्यौरे तब ही आए जब हमें आधुनिक काल में ज्योतिबा फुले और अंबेडकर जैसे प्रतिभाशाली विचारक मिले। यह सोचने वाली चीज है कि अंबेडकर ने जाति व्यवस्था के मर्म का उद्धाटन करते हुए जितने विस्तार के साथ अछूतों की पीड़ा को सामने रखा और उससे मुक्त होने के लिए सामाजिक-राजनीतिक प्रयास आरंभ किए वैसे प्रयास पहले कभी नहीं हुए।
Caste was not a psychological thing, but it has the solid economic base
आधुनिक काल के पहले शूद्र हैं किंतु अनुपस्थित और अदृश्य हैं। जाति व्यवस्था है किंतु जाति व्यवस्था के अनुभव गायब हैं। जाति कभी मनोवैज्ञानिक चीज नहीं थी। बल्कि जाति का ठोस आर्थिक आधार था। जाति के ठोस आर्थिक आधार को बदले बगैर जाति की संरचनाओं को बदलना संभव नहीं था। संत और भक्त कवियों के यहां जाति एक मनोदशा के रूप में दाखिल होती है। मनोदशा के धरातल पर ही ईश्वर सबका था और सब ईश्वर के थे। भक्ति में भेदभाव नहीं था। भक्ति का सर्वोच्च रूप वह था जो मनसा भक्ति से जुड़ा था। वास्तविकता इसके एकदम विपरीत थी। ईश्वर और धर्म की सत्ताा के वर्चस्व के कारण भेद और वैषम्य के सभी समाधान मनोदशा के धरातल पर ही तलाशे गए। मन में ही सामाजिक समस्याओं के समाधान तलाशे गए। सामाजिक यथार्थ से भक्त कवियों का लगाव एकदम नहीं था। यही वजह है कि वे जाति भेद के सामाजिक रूपों को देखने में असमर्थ रहे। इस कमजोरी के बावजूद भक्त कवियों ने जाति भेद के खिलाफ मनोदशा के स्तर पर संघर्ष करके कम से कम सामंजस्य का वातावरण तो बनाया। यह दीगर बात है कि सामंजस्य के पीछे वर्चस्वशाली वर्गों की हजम कर जाने की मंशा काम कर रही थी।
उल्लेखनीय है सामंजस्य की बात तब उठती है जब अन्तर्विरोध हों, टकराव हो, तनाव हो। वरना सामंजस्य पर इतना जोर क्यों ?
God's departure for the first time after coming to modernity
आधुनिकाल आने के बाद पहली बार ईश्वर की विदाई होती है। धर्म के वैचारिक आवरण के बाहर पहली बार मनुष्य झांकता है। उसे सारी दुनिया और अपनी परंपराएं, सामाजिक यथार्थ वास्तव रूप में दिखाई देता है और उसकी वास्तव रूप में ही अभिव्यक्ति भी करता है। आधुनिक काल में दुख पहले गद्य में अभिव्यक्त होता है। मध्यकाल में दुख पद्य में अभिव्यक्त होता है। दुख और अन्तर्विरोध की अभिव्यक्ति गद्य में हुई या पद्य में इससे भी दुख के संप्रेषण की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। मध्यकाल में मनुष्य अपने दुख और पिछडेपन के लिए भाग्य को दोष देता था, पुनर्जन्म के कर्मों को दोष देता था, ईश्वर की कृपा को दोषी ठहराता था। किंतु आधुनिक युग में मनुष्य को पहली बार अपने दुख और कष्ट के कारण के तौर पर शिक्षा का अभाव सबसे बड़ी चीज नजर आती है। यही वजह है कि शूद्रों में सामाजिक समानता, उन्नति के मंत्र के तौर पर शिक्षा को प्राथमिक महत्व पहली बार ज्योतिबा फुले ने दिया। सन् 1848 में पुणे में फुले ने एक पाठशाला खोली, यह शूद्रों की पहली पाठशाला थी। भारत के ढाई हजार साल के इतिहास में शूद्रों की यह पहली पाठशाला थी। असल में पाठशाला तो प्रतीक मात्र है उस आने वाले तूफान का जो ज्योतिबा फुले महसूस कर रहे थे।
सन् 1848 में शूद्रों की शिक्षा का आरंभ करके कितना बड़ा क्रांतिकारी कार्य किया था यह बात आज कोई नहीं समझ सकता। उस समय शूद्रों को पढ़ाने के लिए शिक्षक नहीं मिलते थे अत: ज्योतिबा फुले ने अपनी अशिक्षित पत्नी को सुशिक्षित कर अध्यापिका बना दिया। इस उदाहरण में अनेक अर्थ छिपे हैं। पहला अर्थ यह कि शूद्रों के साथ अतीत में सबकुछ अच्छा नहीं होता रहा है। भारत का अतीत जाति सामंजस्य की बजाय जातीय घृणा के आधार पर टिका हुआ था। जातीय घृणा के कारण शूद्रों के लिए स्वतंत्र शिक्षा की व्यवस्था करनी पड़ी। दूसरा अर्थ यह संप्रेषित होता है कि शूद्र सामाजिक तौर पर अति पिछडे थे। तीसरा अर्थ यह कि भारत में शूद्रों के पठन-पाठन की परंपरा ही नहीं थी। सामंजस्य और भक्ति के नाम पर सामाजिकभेदों से जुड़ी सभी चीजों को छिपाया हुआ था। यही वजह है कि शूद्रों के लिए शिक्षा की व्यवस्था की शुरूआत की गई तो चारों ओर जबर्दस्त हंगामा हुआ।
आधुनिक काल में पहली बार शूद्रों को यह बात समझाने में ज्योतिबा फुले को सफलता मिली कि मनुष्य के अस्तित्व की पहचान शिक्षा से होती है। शिक्षा के अभाव में मनुष्य पशु समान होता है। शूद्रों के लिए शिक्षा का अर्थ वही नहीं था जो सवर्णों के लिए था। शूद्रों के लिए शिक्षा अस्तित्वरक्षा, स्वाभिमान, आत्मनिर्भरता और आत्मोद्धार के साथ अस्मिता की स्थापना का उपकरण भी थी। यही वजह है कि शिक्षा का शूद्रों में जितना प्रसार हुआ है अस्मिता की राजनीति का भी उतना ही प्रसार हुआ है।
ज्योतिबाफुले -अंबेडकर के द्वारा शुरू की गई अस्मिता की राजनीति विदेश से लायी गई चीज नहीं है। साम्राज्यवादी साजिश का अंग नहीं है। बल्कि यह तो भारत के संतुलित विकास के परिप्रेक्ष्य के गर्भ से उपजी राजनीति है। इसका आयातित अस्मिता की मौजूदा राजनीति के साथ तुलना करना सही नहीं होगा। शूद्रों की शिक्षा का लक्ष्य था, सामाजिक भेदभाव को खत्म करना, मानवाधिकारों के प्रति सचेतनता पैदा करना और समानता को व्यापक मूल्य के रूप में स्थापित करना।
अछूत समस्या हमारे देश में कई हजार सालों से है। किंतु इसके खिलाफ कभी सामाजिक आंदोलन नहीं हुए। आखिरकार क्या कारण है कि भारत में विगत ढाई हजार सालों में कभी क्रांति नहीं हुई ?
क्या अछूत समस्या को खत्म किए बगैर क्रांति संभव है ?
Is the revolution possible without ending the untouchability problem?
क्या वजह है कि आधुनिक काल में ही अछूत समस्या के खिलाफ सामाजिक आंदोलन संभव हो पाया ? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि क्या भारत में जाति भेद खत्म हो सकता है ? इन सभी सवालों का एक-दूसरे के साथ गहरा संबंध है।
भारत में जाति व्यवस्था के खिलाफ क्रांति न हो पाने के कारण
Reasons for not being revolutioned against caste system in India
भारत में जाति व्यवस्था के खिलाफ क्रांति अथवा सामाजिक क्रांति न हो पाने के तीन प्रधान कारण हैं, पहला - अंधविश्वासों में आस्था, दूसरा, पुनर्जन्म की धारणा में विश्वास और तीसरा, कर्मफल के सिद्धान्त के प्रति विश्वास। इन तीन विचारधारात्मक बाधाओं के कारण भारत में सामाजिक क्रांति नहीं हो पाई। अंधविश्वासों में आस्था के कारण हमने कभी जाति भेद क्यों है ? गरीब गरीब क्यों है और अमीर अमीर क्यों है ? क्या पीपल के पेड़ को पूजने से मनोकामना पूरी होती है ? क्या साहित्य में जो रूढ़ियां चलन में हैं वे वास्तव में भी हैं ? इत्यादि चीजों को यथार्थ में कभी परखा नहीं। हम यही मानकर चलते रहे हैं कि मनुष्य गरीब इसलिए है क्योंकि पहले जन्म में कभी बुरे कर्म किए थे। उसका ही फल है कि इस जन्म में गरीब है। अमीर इसलिए अमीर है क्योंकि वह पहले जन्म में पुण्य करके आया है।
अच्छे कर्म करोगे अच्छे घर में जन्म लोगे। बुरे कर्म करोगे नीच कुल में जन्म होगा। निचली जाति में उन्हीं लोगों का जन्म होता है जिन्होंने पहले बुरे कर्म किए थे। निचली जातियों को नरक के प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया और एक नए किस्म के प्रचार अभियान की शुरूआत हुई। इससे जाति भेद को वैधता मिली। कर्मफल के सिद्धान्त की सबसे बड़ी किताब है श्रीमद्भगवतगीता इसके आधार पर कर्मफल के सिद्धान्त को खूब प्रचारित किया गया। कर्म किए जा फल की चिन्ता मत कर। उल्लेखनीय है गीता को आदर्श दार्शनिक किताब के रूप में तिलक से लेकर गांधी तक सभी ने प्रधान दर्जा दिया था। गीता आज भी मध्यवर्ग की आदर्श किताब है।
उल्लेखनीय है कि बाबासाहेब अंबेडकर ने जाति प्रथा को इन तीनों विचारधारात्मक बाधाओं के दायरे बाहर निकालकर पेश किया। संभवत: बाबासाहेब अकेले बड़े स्वाधीनता सेनानी थे जिनकी कर्मफल के सिद्धान्त, पुनर्जन्म और अंधविश्वासों में आस्था नहीं थी। यदि इन तीनों चीजों में आस्था रही होती तो अछूत समस्या को राष्ट्रीय समस्या बनाना संभव ही न होता।
कहने का तात्पर्य यह है अछूत समस्या से मुक्ति के लिए, जाति प्रथा से मुक्ति के लिए चार प्रमुख कार्य किए जाने चाहिए।
पहला- अंधविश्वासों के खिलाफ जंग।
दूसरा- पुनर्जन्म की धारणा के खिलाफ जनजागरण।
तीसरा- कर्मफल के सिद्धान्त के खिलाफ सचेतनता।
चौथा- अछूत जातियों के साथ रोटी-बेटी के संबंध और पक्की दोस्ती।
ये चारों कार्यभार एक-दूसरे से अविच्छिन्न रूप से जुड़े हैं। इनमें से किसी एक को भी त्यागना संभव नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है शिक्षा, नौकरी अथवा आरक्षण मात्र से अछूत समस्या का समाधान संभव नहीं है। अछूत समस्या को खत्म करने के लिए आम लोगों में खासकर दलितों में विज्ञानसम्मत चेतना का प्रसार करना बेहद जरूरी है। विज्ञान सम्मत चेतना के अभाव में दलित हमेशा दलित रहेगा। उसकी दलित चेतना से मुक्ति नहीं होगी। जाति भेद कभी खत्म नहीं होगा।
हमें इस तथ्य पर ध्यान देना चाहिए कि हमारी शिक्षा हमें कितना विज्ञानसम्मत विवेक देती है ? सच यही है कि हमारी शिक्षा में कूपमंडूकता कूटकूटकर भरी पड़ी है। पैंतीस साल के शासन के वाबजूद पश्चिम बंगाल की शिक्षा व्यवस्था में से कूपमंडूकता को पूरी तरह विदा नहीं कर पाए हैं।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जाति प्रथा एक तरह का पुराने किस्म का सामाजिक अलगाव है। जाति प्रथा को आज नष्ट करने के लिए सामाजिक अलगाव को नष्ट करना बेहद जरूरी है। सामाजिक अलगाव आज के दौर में व्यापक शक्ल में सामने आया है। हम एक-दूसरे के दुख-सुख में साझीदार नहीं बनते। कभी एक-दूसरे के बारे में खबर-सुध नहीं लेते। यही सामाजिक अलगाव पहले जातियों में भी था। खासकर निचली कही जाने वाली जातियों के प्रति सामाजिक अलगाव यकायक पैदा नहीं हुआ। बल्कि इसे पैदा होने में सैकड़ों साल लगे। सामाजिक अलगाव को अब हमने वैधता प्रदान कर दी है। सामाजिक अलगाव को हम स्वाभाविक मानने लगे हैं। नए युग की विशेषता मानने लगे हैं। नए आधुनिक जीवन संबंधों की अनिवार्य परिणति मानने लगे हैं। सामाजिक अलगाव की अवस्था में जाति भेद और जातिघृणा बढ़ेगी। क्योंकि सामाजिक अलगाव से जातिघृणा को ऊर्जा मिलती है। यह अचानक नहीं है कि सन् 1970 के बाद के वर्षों में पूंजीवादी विकास जितना तेज गति से हुआ है। सामाजिक अलगाव में भी इजाफा हुआ है। जाति संगठनों में भी इजाफा हुआ है। जातिघृणा और जाति संघर्ष बढ़े हैं। जातिघृणा,जातिसंघर्ष और जातिगत तनाव तब ही पैदा होते हैं जब हम अलगाव की अवस्था में होते हैं।
सामाजिक अलगाव पूंजीवादी विकास की स्वाभाविक परिणति है ,इसका सचेत रूप से प्रतिवाद किया जाना चाहिए। अचेत रूप से सामाजिक अलगाव को स्वीकार लेने का अर्थ है आपसी अलगाव में इजाफा। अलगाव खत्म होगा तो संगठन की महत्ताा भी समझ में आती है। सामाजिक शिरकत, सामाजिक साझेदारी, व्यक्तिगत और सामाजिक भावनात्मक विनिमय और आर्थिक सहयोग ये चीजें जितनी बढ़ेंगी उतनी ही भेद की दीवार गिरेगी।
हमें सोचना चाहिए आरक्षण किया, संविधान में संरक्षण दिया, तमाम किस्म के कानून बनाए, सभी दल इन कानूनों के प्रति वचनबध्द हैं,इसके बावजूद जाति उत्पीड़न थमने का नाम नहीं ले रहा। एससी, एसटी का अलगाव कम नहीं हो रहा। उनकी असुरक्षा की भावना कम नहीं हो रही। इस प्रसंग में पश्चिम बंगाल के उदाहरण से समझाना चाहू