भारतीय राजनीति में भाजपा के उत्थान के समानांतर, देश में शिक्षा के पतन की प्रक्रिया (Education collapse process) चल रही है। देश की नई शिक्षा नीति का अंतिम स्वरूप (The final shape of the new education policy) क्या होगा, यह जानना अभी बाकी है। परंतु भाजपा, पाठ्यक्रमों और शोधकार्य को कौन सी दिशा देना चाहती है, यह उसके नेताओं के वक्तव्यों और भाषणों से जाहिर है।
केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ (Union Human Resource Minister Ramesh Pokhriyal 'Nishank') ने हाल में शिक्षाविदों की एक बैठक में फरमाया कि संस्कृत, दुनिया की सबसे वैज्ञानिक भाषा है और देश की शीर्ष शैक्षणिक संस्थाओं को इस भाषा पर काम करना चाहिए। उनके अनुसार, आने वाले समय में संस्कृत ही कम्प्यूटरों की भाषा होगी।
इसके अतिरिक्त, मंत्रीजी ने कई अन्य रहस्योद्घाटन भी किए, जो उनके ज्ञान की गहनता और व्यापकता को उजागर करते हैं।
एक मौके पर उन्होंने अणु और परमाणु की खोज का श्रेय चरक को दिया तो दूसरे मौके पर प्रणव ऋषि को। उनके अनुसार, ऋषि नारद ने सबसे पहले परमाणु संबंधी प्रयोग किए थे। जब वे उत्तराखंड के मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने कहा था कि ज्योतिष शास्त्र, विज्ञान से ऊपर है।
मंत्रीजी का मानना है कि गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत की चर्चा प्राचीन हिन्दू धर्मग्रंथों में है। न्यूटन से बहुत पहले हमारे ऋषि-मुनि गुरूत्वाकर्षण बल के बारे में जानते थे।
इस तरह के दावे करने वाले पोखरियाल अकेले नहीं हैं। केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान
Plastic Surgery in Ancient India ?
मोदी के सत्ता में आने के बाद से तो प्राचीन भारत के बारे में अचंभित करने वाले दावे किए जा रहे हैं।
मुंबई में एक अस्पताल का उद्घाटन करते हुए मोदी ने कहा था कि भगवान गणेश इस बात का प्रमाण हैं कि प्राचीन भारत में प्लास्टिक सर्जरी होती थी। संघ परिवार के नेताओं ने हमारा जो ज्ञानवर्धन किया है उसके आधार पर हम कह सकते हैं कि प्राचीन भारत में हवाईजहाज, मिसाइलें, इंटरनेट, टेलीविजन और जैनेटिक इंजीनियरिंग आम थे।
संघ परिवार के मुखिया मोहन भागवत पहले ही कह चुके हैं कि विज्ञान की प्रगति के लिए वेदों का अध्ययन आवश्यक है।
गाय के राजनीति के क्षेत्र में प्रवेश के साथ ही प्राचीन ज्ञान के गुणगान का एक नया अध्याय खुल गया है। ऐसा बताया जाता है कि गाय में 33 करोड़ देवी-देवताओं का वास है और गाय का हर उत्पाद दैवीय और चमत्कारिक गुणों से संपन्न है। सरकार ने एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया है जो ‘पंचगव्य‘ (गोबर, गौमूत्र, दूध, दही और घी का मिश्रण) पर शोध करेगी। रामायण और महाभारत की कहानियों की वैज्ञानिकता सिद्ध करने के लिए धनराशि उपलब्ध करवाई जा रही है।
कुल मिलाकर प्रयास यही है कि आस्था और श्रद्धा, ज्ञान के पर्यायवाची बन जाएं। प्रयास यह भी है कि प्राचीन भारत को एक ऐसी आधुनिक दुनिया के रूप में प्रस्तुत किया जाए जिसने हजारों साल पहले वे वैज्ञानिक उपलब्धियां हासिल कर लीं थीं जो पश्चिमी राष्ट्रों ने पिछले सौ-डेढ़ सौ वर्षों में कीं हैं। ये दावे हिंदू राष्ट्रवाद को मजबूत बनाने की परियोजना का हिस्सा हैं।
पूर्व केन्द्रीय मंत्री सत्यपाल सिंह ने कहा था था कि डार्विन का क्रम-विकास सिद्धांत इसलिए सही नहीं है क्योंकि हमारे पूर्वजों ने बंदरों को मनुष्य बनते नहीं देखा!
ऐसा नहीं है कि विज्ञान को झूठा सिद्ध करने वाले दावे सिर्फ हिंदू धर्म के अनुयायी करते आए हैं। ईसाई कट्टरपंथियों ने डार्विन के सिद्धांत के प्रति उत्तर में विश्व के ईश्वर द्वारा रचे जाने का सिद्धांत प्रतिपादित किया था। जिया-उल-हक के शासनकाल में पाकिस्तान में प्रस्ताव किया गया था कि बिजली की कमी से निपटने के लिए जिन्नात की बेपनाह ताकत का इस्तेमाल किया जाए।
दरअसल हमेशा से और दुनिया में लगभग हर जगह तार्किक सोच का विरोध होता आया है। भारत में जब चार्वाक ने यह मानने से इंकार कर दिया कि वेद दैवीय रचनाएं हैं तो उसे प्रताड़ित किया गया और लोकायत परंपरा - जिसके अंतर्गत स्वतंत्र सोच को प्रोत्साहित किया जाता था - का दानवीकरण किया गया। यूरोप में गैलेलियो और कई अन्य वैज्ञानिकों के साथ चर्च ने क्या सुलूक किया, यह हम सबको ज्ञात है। तार्किक सोच को समाज के शक्तिशाली वर्ग, चाहे वे सामंत हों या पुरोहित, अपने वर्चस्व और सत्ता के लिए चुनौती मानते हैं।
भारत में भारतीय राष्ट्रवाद के उदय के साथ ही अंबेडकर, भगतसिंह और नेहरू जैसे नेताओं ने तार्किक सोच को बढ़ावा दिया। जो लोग समानता पर आधारित आधुनिक प्रजातांत्रिक भारत के निर्माण के विरोधी थे, जिन लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ कभी संघर्ष नहीं किया, जो जमींदारों, राजाओं और पुरोहित वर्ग के पिट्ठू थे - वे ही तार्किक सोच के विरोधी थे। इस वैचारिक समूह को लगा कि देश में जिस तरह के सामाजिक परिवर्तन हो रहे हैं उनसे भारत के गौरवशाली अतीत की छवि पूरी तरह खंडित हो जाएगी।
नेहरू मानते थे कि वैज्ञानिक सोच ही भविष्य के आधुनिक भारत की नींव बन सकती है। यही कारण है कि वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने की बात राज्य के नीति-निदेशक तत्वों में कही गई है। और इसी सोच के तहत, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, विज्ञान एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद व भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र आदि जैसी संस्थाएं बनाई गईं।
पिछले कुछ दशकों में हिन्दू राष्ट्रवादी राजनीति (Hindu nationalist politics) के उदय के साथ, नेहरू की नीतियों को गलत ठहराया जा रहा है और तार्किक सोच को ‘विदेशी अवधारणा‘ बताया जा रहा है। आस्था और श्रद्धा को वैज्ञानिकता और तार्किकता से ऊंचा दर्जा दिया जा रहा है। यही कारण है कि अंधश्रद्धा के खिलाफ लड़ने वाले, गोलियों का शिकार हो रहे हैं।
डॉ नरेन्द्र दाभोलकर, गोविंद पंसारे, एमएम कलबुर्गी और गौरी लंकेश को अपनी जान से इसलिए हाथ धोना पड़ा क्योंकि वे तार्किकता और वैज्ञानिक सोच के हामी थे। इसके विपरीत, मोदी से लेकर निशंक तक हिन्दू राष्ट्रवादी नेता एक ओर तार्किकता के विरोधी हैं तो दूसरी ओर जन्म-आधारित असमानता के समर्थक। हिन्दू राष्ट्रवाद आस्था को ज्ञान और श्रद्धा को विज्ञान बनाकर प्राचीन भारत का महिमामंडन कर रहा है। उसका अंतिम उद्देश्य उस युग के पदक्रम-आधारित समाज की पुनर्स्थापना है।
- राम पुनियानी
(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आईआईटी, मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
Modi and Hindu nationalists are opponents of rationality and supporters of birth-based inequality