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हर बीतते दिन के साथ नरेन्द्र मोदी अपने हिटलरी रूप (Hitleri form of Narendra Modi) पर से एक-एक कर सारे आवरण उतारते चले जा रहे हैं। अब वे खुले आम विपक्ष के सभी दलों और मतभेद के सभी स्वरों को गालियां देने और धमकियां देने पर उतर पड़े हैं। रुपयों की ताकत और दमन के डर के बल पर उन्होंने सारे मीडिया को अपने कब्जे में कर लिया है। कॉरपोरेट का मीडिया पर कब्जा है (media is occupied by Corporates) और कॉरपोरेट पूरी तरह मोदी के साथ मिल चुका है। मोदी के पक्ष में हवा बनाने के लिये पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है। वेतनभोगी भक्तों की एक बड़ी फौज तैयार कर ली गई है जो सड़कों से लेकर मीडिया, सोशल मीडिया और प्रचार के दूसरे साधनों (Media, social media and other means of propaganda) तक अपना वर्चस्व बनाये रखते है। ये किसी को भी पीट-पीट कर मार सकते हैं, किसी के भी खिलाफ गंदे से गंदा धुंआधार प्रचार कर सकते हैं। और मीडिया में इनकी भूमिका का तो आलम यह है कि ये ही भीड़ बन कर मीडिया के हर उस कार्यक्रम में उपस्थित रहते हैं जिसे मीडिया सरे-जमीन रिपोर्टिंग के नाम पर प्रसारित किया करता है।


मोदी ने अंध और आक्रामक राष्ट्रवाद (blind and aggressive nationalism) का बाकायदा एक उन्माद पैदा कर दिया है और आंतरिक शत्रु के रूप में अल्प-संख्यकों, दलितों और तमाम कमजोर तबकों की शिनाख्त करके उन्हें हमलों को शिकार बनाया जा रहा है। बुद्धिजीवियों के दमन में तो ये बेशर्मी की सारी सीमाएं लांघ चुके हैं। जिस किसी को किसी भी काल्पनिक अभियोग में पकड़ कर जेलों में ठूस दिया जा रहा है। 'अर्बन नक्सल' (Urban Naxal) के नाम पर पकड़े गये देश के कुछ प्रमुख बुद्धिजीवियों की

जेल से रिहाई में सुप्रीम कोर्ट ही बाधा बना हुआ है।

पूरी की पूरी न्याय प्रणाली आज मोदी-शाह की मुट्ठी में दिखाई देती है। हाल में एनआईए का वह जज ने भाजपा में शामिल हो गया जिसने मालेगांव विस्फोट कांड के अपराधी (Malegaon convict) आरएसएस के असीमानंद को सबूत के अभाव के नाम पर बेकसूर घोषित कर दिया था। जज लोया की हत्या (murder of Judge Loya) के मामले में मुंबई हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से लेकर अन्य जजों और सुप्रीम कोर्ट तक की जघन्य भूमिका सब देख चुके हैं। सर्वोपरि, राफेल और सीबीआई के निदेशक के मामलों में सुप्रीम कोर्ट के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश ने जो निंदनीय भूमिका अदी की वह भी किसी से छिपी नहीं है।

राफेल मामले में सरकार की ओर से बंद लिफाफे में झूठी सूचना से सुप्रीम कोर्ट को जान-बूझ कर बहकाया गया, इसे जान कर भी सुप्रीम कोर्ट के जैसे कान में जूं तक नहीं रेंगी है। यही हाल हमने रफाल मामले में सीएजी की रिपोर्ट में देखा। मोदी को बचाने के लिये सीएजी ने रफाल के दाम को अपनी रिपोर्ट में उजागर करने के बजाय और उस पर और ज्यादा पर्दा डालने का काम किया।

चुनाव आयोग भी, पूरी तरह से संदेह के घेरे में है। वह चुनाव की शुद्धता के बजाय वोटों की गिनती में होने वाली देरी को ज्यादा महत्ता दे रहा है और सुप्रीम कोर्ट से कह रहा है कि इसी वजह से पचास फीसदी वीवीपैट की गिनती अनुचित जान पड़ती है।

वित्तीय मामलों में मोदी सरकारी खजाने को निजी खजाना माने हुए हैं। कोई उनसे पूछने वाला नहीं है कि उन्होंने सिर्फ अपने प्रचार के लिये चार हजार करोड़ रुपये खर्च कर दिये ! मोदी ने अपने चंद मित्र पूंजीपतियों को लाखों करोड़ रुपये सरकारी बैंकों से इस प्रकार बंटवा दिये जैसे वह उनकी निजी संपत्ति हो !


मोदी के लिये कूटनीति पूरी तरह से एक निर्रथक विषय है। वे अन्य देशों के राजनेताओं से उसी प्रकार गले मिलते हैं, जैसे आरएसएस अपने संगठनों के रहस्य पर पर्दा डालने के लिये समाज के प्रतिष्ठित जनों को अपने कार्यक्रमों में ला कर अपने गलत कामों के लिये उनकी सम्मतियां बंटोरता रहा है। इन मुलाकातों को नीतिगत मामलों से कोई संबंध नहीं होता है। उनका पूरा आचरण यह है कि वे पड़ौसियों से हर मामले को सैनिक ताकत के बल पर सुलझाने पर विश्वास करते हैं।


और जहां तक देश की गरीब जनता, किसानों, मजदूरों का सवाल है — मोदी के पास उनके लिये सिवाय दमन की भाषा के कोई दूसरी भाषा नहीं है। वे भूल से भी पहले से सांसत में फंसे लोगों को राहत देने के किसी भी कदम की बात नहीं करते है। राहत की बात को वे 'भीख' कहते हैं। वे मूलतः उन्हें अपना गुलाम मानते हैं और गुलाम के लिये कोई अधिकार नहीं हुआ करते, इस बात पर उनका गहरा यकीन है।

और, हम एक बार फिर दोहरायेंगे कि मोदी ने अपनी सारी मनमानियों के लिये हिंदुत्व के नाम पर जघन्य अंध भक्तों की ऐसी फौज तैयार कर ली है जो पूरी तरह से हिटलर के 'तूफानी दस्तों' और मुसोलिनी के फासिस्टों की 'आर्दिती' नामक लाखों लोगों की हमलावर सेना से पूरी तरह से मिलती-जुलती है।

कहने का तात्पर्य यह है कि मोदी के नाम से जिस प्रकार की एक समग्र राजनीतिक ताकत का उदय हुआ है, वह शुद्ध रूप से फासीवाद है। कल तक जिन चंद वामपंथियों में इस बात का वहम था कि यह फासीवाद नहीं है, या तो वे अब अपनी भूल को पूरी तरह मान चुके हैं, या फासिस्टों के हाथों मरने के पहले ही खुद किसी कब्र में अपने को दफना चुके हैं !

इसीलिये हमारे सामने दूसरा सवाल है, कि इस दानवी शक्ति का मुकाबला करने के लिये विपक्ष के दल क्या कर रहे है ?


शुरू में चुनाव-पूर्व महागठबंधन का ही एक नारा उठा था। उस पर विपक्ष के दलों की आपस में बैठकें भी हुईं। लेकिन अंत में कुल मिला कर पाया गया कि संसदीय राजनीति में दलों के बीच आपसी प्रतिद्वंद्विता के सच को स्वीकार कर भले ही चुनाव-पूर्व जैसा कोई पूर्ण गठबंधन न बन पाए, लेकिन इसके बावजूद मोदी को पराजित किया जा सकता है और चुनावोत्तर गठबंधन के जरिये भी इस राक्षसी शक्ति का मुकाबला किया जा सकता है। विपक्ष की इस समझ का एक व्यवहारिक, स्थानिक राजनीति के चरित्र का पहलू मोटे तौर पर सबकों समझ में भी आ रहा था।


लेकिन इस समझ में जिस एक बात को नजरंदाज किया जा रहा है, वह यह कि चुनाव के पूरे काल में भी राज सत्ता का मोदी के पूरी तरह से कब्जे में रहेगी। सेना और न्यायपालिका के सारे अंगों को मोदी ने अपने कब्जे में लेकर यह सुनिश्चित कर लिया है कि इस दौरान भी उनकी निरंकुशता पर सवाल उठाने वाला कोई नहीं रहेगा। पुलवामा प्रकरण में सेना की भूमिका से लेकर हाल में अंतरीक्ष में किये गये प्रयोग पर राष्ट्र के नाम संबोधन के मामले में चुनाव आयोग की भूमिका इसके सबसे ज्वलंत उदाहरण है। गुजरात में हार्दिक पटेल को वहां के हाई कोर्ट ने चुनाव लड़ने से रोक दिया है। दरअसल, मोदी चुनाव के दौरान और उसके परिणामों की घोषणा के वक्त तक भी और क्या-क्या कर सकता है, इसे वही समझ सकता है जो हिटलर और मुसोलिनी के इतिहास से परिचित है। अर्थात मोदी की गति-प्रकृति हिटलर-मुसोलिनी के पथ से ही पूरी तरह से परिचालित हो रही है।

ऐसे में, चुनावोत्तर परिस्थिति हमें अभी काफी दूर की बात लगने लगी है। विपक्ष के सभी दलों के बीच चुनावों के पहले ही एक प्रकार का निरंतर संवाद और सबकी संयुक्त रणनीति का बनना बहुत जरूरी जान पड़ता है। अगर आपको इस बात में कोई संदेह नहीं है कि आपका मुकाबला हिटलर से है तो उससे संघर्ष की आपकी सारी रणनीति भी उसी के अनुसार तय होनी चाहिए !

किसी भी राजनीतिक दल की अपनी निजी वासना कुछ भी क्यों न हो, वह है अंततः  उसकी निजी वासना ही। जब भी आप अन्य दलों से किसी प्रकार की अन्तरक्रिया करते है, आप अपने तक केंद्रित नहीं रह सकते हैं। प्रेम का कोई भी रूप अपने में सिमट कर मुमकिन नहीं होता है। आपकी तरह ही आपसे मिलने वाला हर दल ऐसे संबंध में एक आत्मकेंद्रित दल के बजाय एक खुला हुआ दल हो जाता है। अपनी सीमाओं से उसे निकलना होता है। इस प्रकार के मेल में किसकी क्या सीमा है, वह तब मायने नहीं रखती है। ऐसे मेल में सभी दल एक दूसरे के खुले हुए स्थान को भरने का काम करते हैं। तभी उस मिलन को एक निश्चित स्वरूप मिलता है।


इसका अर्थ यह नहीं है कि इसमें किस दल की क्या हैसियत है, उसकी कोई भूमिका नहीं होती है। लेकिन उसे भी सही रूप में सामने लाने के लिये इस मिलन को संभव बनाना जरूरी है। अगर आप एक जीवंत दल है तो उसमें इस प्रकार का खुलापन नितांत जरूरी है। हम जब कांग्रेस के नेतृत्वकारी स्थान पर बल देते हैं तो इसीलिये क्योंकि विपक्ष के अन्य सब बंद दलों में भी यह सबसे विस्तृत और साथ ही सबसे अधिक खुला हुआ दल भी है जो अन्य को अपने अंदर जगह दे सकता है और अन्य के खुले स्थान को ढक भी सकता है। इस बात को अच्छी तरह से समझने की जरूरत है कि फासीवाद विरोधी मोर्चा ही उसमें शामिल सभी दलों को अपना वास्तविक और विकासमान स्वरूप प्रदान कर सकता है। अन्यथा विपक्ष के दल भी आत्म-सीमित संभावना-विहीन कमजोर संगठन बन कर रह जाने के लिये अभिशप्त होंगे। संभावनाएं हमेशा सार्थक मिलन में ही होती है।


हमारी दृष्टि में, अभी तक के सारे घटनाक्रम को समझते हुए ही मोदी के फासीवाद के खिलाफ फासीवाद-विरोधी व्यापकतम संयुक्त मोर्चा के गठन के काम की अवहेलना नहीं की जानी चाहिए।

0 अरुण माहेश्वरी

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