बीती 13 फ़रवरी को जस्टिस अरुण मिश्र (Justice Arun Mishra) और दो अन्य जजों की एक पीठ ने विभिन्न राज्यों की सरकारों को ये आदेश दे दिया कि वे अपने वनों से अनधिकृत लोगों या समुदायों को 12 जुलाई को बाहर निकाले। सर्वोच्च न्यायालय का आदेश (Supreme Court Order) दरअसल एक पुरानी याचिका पर था जिस पर मार्च 2018 में एक दूसरी बेंच के आदेश से सम्बंधित था और राज्यों के मुख्य सचिव उन पर आधिकारिक जवाब दे रहे थे। अदालत के आदेश से देश भर में मानवाधिकारों और आदिवासी अधिकारों के लिए कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं और संगठनों ने गहन निराशा और गुस्से की अभिव्यक्ति की। अगर यह आदेश लागू हो गया तो देश भर के वनों से 20 लाख से अधिक आदिवासी और वनों पर आधारित अन्य समूह विस्थापित होंगे जो देश में पुनः हम एक बड़े सामाजिक और सांस्कृतिक संकट को जन्म दे सकता है। इस पूरे प्रश्न पर हमें बहुत संजीदगी से विचार करने की जरुरत है कि क्यों आज का पूंजीवादी ‘वन संरक्षण’ (Capitalist 'Forest Conservation) आदिवासियों को वनों का दुश्मन बना रहा है और क्यों सरकार और न्यायालय इस सन्दर्भ में नकारात्मक हुए हैं।
What is the background of the order of the top court relating to eviction of tribals
पहले इस पूरे प्रश्न के पृष्ठभूमि जानना जरूरी है। क्यों ये आदेश आया, इसके पीछे कौन लोग है और क्या आदिवासियों को भूमिहीन करने की साजिश में सरकार भी शामिल है ? (Is the government involved in the conspiracy to make the tribals landless?)
यूं तो हम
The questions that were raised in front of the court were the following -
1. अनिधकृत लोगों को वनों से तुरंत बाहर किया जाए। अदालत का मानना था कि जो क्लेम रिजेक्ट किए गए हैं उन्हें तुरंत हटाया जाया।
2. वनाधिकार कानून 2006 भारतीय वन अधिनियम (Indian forest act) और वाइल्ड लाइफ एक्ट (Wild Life Act) और पर्यावरण सम्बन्धी और कई कानूनों का उल्लंघन करता है अतः इसे ख़ारिज कर दिया जाना चाहिए क्योंकि ये असंवैधानिक है।
3. तीसरे महत्वपूर्ण बात कि ग्राम सभा को विशेषज्ञ समिति और अधिकारियों के निर्णयों को अस्वीकार करने की शक्ति गलत है क्योंकि इस संदर्भ में उन्हें कुछ पता नहीं है।
1. वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत कुल अनुसूचित जनजाति और अन्य वर्गों के कितने लोगों ने आवेदन किए।
2. अनुसूचित जनजाति और अन्य लोगों के कितने दावे स्वीकार किए गए उनकी जानकारी अलग-अलग दी जाए।
3. दोनों ही कैटेगरी में कितने दावे ख़ारिज किए गए उनकी पूर्ण जानकारी।
4. जिस भूमि पर दावा प्रस्तुत किया गया और जिन्हें निरस्त किया गया उसका पूरा क्षेत्रफल।
5. जिन आवेदनकर्ताओं के दावे ख़ारिज किए गए उन पर की गई कार्यवाही का ब्यौरा
6. अतिक्रमण हटाने से खाली की गई जमीन का पूरा क्षेत्रफल
7. अभी तक जिनका अतिक्रमण हटाना है और नहीं हटा है उस जमीन का ब्यौरा, क्षेत्रफल
8. इन सूचनाओं के लिए कट ऑफ डेट 31.12.2017 है।
मतलब ये कि जिन लोगों के दावा फार्म अस्वीकृत किए गए हैं, याचिकाकर्ताओं और अदालत के इस आदेश से वे अपने आप ही ‘अतिक्रमणकारी’ हो गए हों और जैसे उनके सभी अधिकार समाप्त हो गए हैं। क्योंकि ज्यादातर अस्वीकृत किए गए दावों में गाँव सभा की सहमति नहीं ली गई और वन विभाग और उनके अधिकारियों ने पूरे प्रयास किए कि ये अधिनियम पूर्णतः नाकाम जो जाए और इसके लिए क्रोनी कॉर्पोरेट और उसके द्वारा पोषित मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका रही है।
अगर याचिकाकर्ताओं को देखे तो इनमें से अधिकतर संस्थाएं महाराष्ट्र से हैं जो वाइल्ड लाइफ पर काम करते हैं और शायद फंड्स की भी कोई कमी उनके पास न हो। वन विभाग के कुछ रिटायर्ड अधिकारी, कुछ तथाकथित पूर्वजमींदार जिनकी सम्पति या बेनामी सम्पति में वन भी हो, ने वन अधिकार कानून 2006 को असंवैधानिक घोषित करवाने के लिए पूरा जोर लगा दिया है जिसमें वाइल्ड लाइफ पर काम करने वाले बहुत सारे अन्तरराष्ट्रीय संगठन भी शामिल हैं।
Central government secretive criminal silence
लेकिन जब इस प्रकार की जन हित याचिका (Public interest litigation) सर्वोच्च न्यायालय में आती है तो उसमें केंद्र सरकार एक पक्ष जरूर होती क्योंकि वन अधिकार अधिनियम कैसे लागू हो रहा है इसकी जानकारी उसे होगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
जब अदालत में इस याचिका की सुनवाई हुई तो इस से प्रभावित होने वाले समूहों विशेषकर आदिवासियों और वन आधारित अन्य समूहों जैसे घुमंतू जातियों, पशुपालकों और अन्य समुदायों और उनसे सम्बंधित विभागों को भी नोटिस दिया जाना चाहिए था ताकि वे इस सन्दर्भ में अपनी बात रख सकें, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
क्या इसे संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ नहीं कहा जाएगा जब न्यायालय बिना किसी जांच पड़ताल के और लोगों को बिना किसी अवसर के दिए इस नतीजे पर पहुँच जाती है कि जिन लोगों के दावा फार्म निरस्त किए गए हैं वे सभी ‘बाहरी’ हैं और उन्हें वनों से खदेड़ दिया जाना चाहिए।
क्या अदालत ने इस निर्णय के बाद जो सुनामी आने वाली है, उस पर विचार किया या नहीं।
ऐसा लगता है कि सम्बंधित मंत्रालयों को आमंत्रित न कर या नोटिस न भेजकर न्याय प्रक्रिया में गलती हुई है। यदि अदालत ने इन मंत्रालयों को नोटिस भेजा और ये सुनवाई के दौरान मौजूद नहीं थे तो उनके विरुद्ध मानहानि का मुक़दमा बनता है। ये बात अब न्यायालय को साफ़ करनी चाहिए कि क्या ये भूल थी या उन्होंने ऐसा फैसला सब जानके लिया था।
हम सभी जानते हैं कि भारत ने आदिवासियों के अन्तराष्ट्रीय घोषणापत्र 2007 पर हस्ताक्षर किए हैं लेकिन सरकार अभी भी आधिकारिक तौर पर यह मानने को तैयार नहीं कि आदिवासी देश के मूलनिवासी हैं क्योंकि इससे संघ परिवार और उसके इतिहास लेखकों को आर्यों के भारत पर आक्रमण के सिद्धांत को स्वीकार करना पड़ेगा, जो उनके भारत का मूल-नागरिक कहलाने और फिर ईसाई-मुसलमानों को विदेशी कहकर धमकाने के प्रोजेक्ट को बंद करना पड़ेगा।
आदिवासियों को वनवासी कहकर उनके प्रति इस समाज के क्रूर और ऐतिहासिक अन्याय को झुठलाने की साजिश भी है। यदि हम ये भी मान लें कि पुरानी गलतियों और अन्याय की जिम्मेवारी को आज की पीढ़ी पर क्यों लादें तो भी ये सवाल तो पूछना पड़ेगा कि आखिर इस समय की सरकार ने इस प्रश्न को गंभीरता से क्यों नहीं लिया। क्या सरकार जान समझकर कोर्ट में नहीं गई ताकि उसके कॉर्पोरेट चेले इस पूरे कानून को अदालत के जरिये खारिज करवा दें या सरकार कोई गेम खेल रही थी, ताकि आदिवासियों को पूर्णतः कमजोर कर दिल्ली मुंबई के बनियों के स्थाई गुलाम बना कर रखे।
अभी सरकार के आदिवासी मंत्रालय ने कहा कि सरकार को इस विषय में जानकारी है और वह इस कानून को बचाने के लिए पूर्णतः कृतसंकल्प है। इस विषय में हम केवल इतना कहना चाहते हैं कि एक वर्ष से अधिक हो गया था इस पूरी कानूनी प्रक्रिया को तब ये मंत्रालय कहां थे और दूसरे यह कि इस कानून के ईमानदार निष्पादन के लिए सरकार ने क्या क्या किया।
अब यदि अदालत के आदेश के संभावित परिणामो पे जाएँ तो ये पक्का है कि इसके लागू होने पर बीस लाख से अधिक आदिवासी और वनों पर आधारित अन्य समुदाय सीधे तौर पर प्रभावित होंगे लेकिन मेरी दृष्टि में मामला इससे ज्यादा गंभीर हो सकता है।
अपनी ही जमीन पर अतिक्रमणकारी घोषित हो गए आदिवासी
Tribal people declared as encroachment on their own land
13 फ़रवरी को सर्वोच्च न्यायालय के आदेश में राज्य सरकारों को 12 जुलाई तक अपने हलफनामे दाखिल करने को कहा गया है कि जिन लोगों के आवेदन निरस्त किए गए क्या उन पर कार्यवाही हुई है या नहीं। इस सन्दर्भ में अदालत ने सैटेलाईट इमेजेज भी मांगी हैं ताकि पता चल सके कि लोगों कहा पर केन्द्रित है। इस तिथि पर भी केंद्र सरकार वहां नहीं थी। अदालत में विभिन्न राज्य सरकारों ने अपने शपथ पत्र दिए और 12 जुलाई तक की गई कार्यवाही की बात कहीं।
अब आदिवासी मामलों से सम्बंधित मंत्रालय ने 31 मार्च 2017 तक सूचनायें इकट्ठा की हैं उसके अनुसार कुल 41,69,982 दावे आए जिसमें 40,31,557 व्यक्तिगत और 1,38,425 सामुदायिक थे और उसमें से 17,28,817 व्यक्तिगत और 62,889 सामुदायिक दावों को दावा प्रमाणपत्र दे दिया गया। इसका मतलब यह भी कि आधे से अधिक दावे निरस्त किए गए।
खैर, सरकार कहती है कि उसने 36,38,234 दावों का निस्तारण कर दिया जो कि लगभग 87.25% है।
अंग्रेजी के अख़बार द बिज़नस स्टैण्डर्ड की एक खबर के मुताबिक सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद विस्थापित होने वाले आदिवासी और वन समुदायों की संख्या 18 लाख 90 हज़ार तक होगी जबकि द वायर नामक न्यूज़ पोर्टल का कहना है कि ये संख्या 20 लाख तक हो सकती है।
दरअसल, आदिवासियों को वनों से विस्थापित करने की यह प्रक्रिया अन्य और प्रक्रियाओं को मजबूत करेगी और बड़े बांधों, अभयारण्यों, टाइगर जोन, संरक्षित क्षेत्रों, राजस्व वनों और वन विभाग के अंतर्गत आने वाले राजस्व ग्रामों के मध्य विवाद आदि से भी आदिवासियों पर गहरा असर पडा है और ऐसे अधिकारियों के हौसले बुलंद होंगे जो उनका हर कदम पर शोषण करते हैं।
पत्रिका डाउन टू अर्थ बताती है कि आदिवासी मामलों के मंत्रालय की नवम्बर 2018 तक की रिपोर्ट कहती है कि 18.94 लाख लोगों को कानूनी पट्टे दिए जा चुके हैं जबकि 19.39 लाख लोगों के दावे ख़ारिज हो चुके हैं। मतलब ये कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद इन 19.39 लाख लोगों के पास अपनी बात को पुनः रखने और अपने साथ हुए अन्याय के विरुद्ध लड़ने के शायद हर रास्ते बंद हो चुके हैं क्योंकि अदालत के एक आदेश में ही उसे अतिक्रमणकारी घोषित किया जा चुका है।
कौन कर रहा है वनों का दोहन Who's Tapping the Forests
इन सबमें महत्वपूर्ण बात यह है कि केंद्र सरकार का पर्यावरण और वन मंत्रालय की खतरनाक चुप्पी। ये बात किसी से छुपी नहीं है कि मंत्रालय ने प्राइवेट कंपनियों को वन क्षेत्रों में माइनिंग और ईको टूरिज्म के लिए जमीनें लीज पर देने के लिए इस कानून को ‘हल्का’ कर दिया ताकि ये सभी आसानी से हो सके।
वन अधिकार अधिनियम 2006 की धारा 12 (Section 12 of the Forest Rights Act 2006) किसी भी प्रोजेक्ट के लिए भू अधिग्रहण या माइनिंग अथवा अन्य उपयोग के लिए ग्राम सभा की सहमति या मंजूरी को अनिवार्य कहती है और यही ‘सहमति’ आज हमारे संगठनों और कंपनियों की आँखों की किरकिरी बनी है। सर्वोच्च न्यायालय में वकीलों की फौज ने अधिनियम के इस सेक्शन का विरोध किया बिलकुल वैसे ही जैसे भूमि अधिग्रहण अधिनियम में अधिग्रहण के लिए ग्राम सभा की मंजूरी को अनिवार्य करने के विरुद्ध खुद वर्तमान केंद्रीय सरकार रही है।
दिसंबर 2018 में सरकार ने संसद को बताया कि 2015-2118 के बीच 20,314.12 हेक्टेयर वन भूमि को गैर वानिकी उद्देश्यों के लिए सरकार ने विभिन्न कम्पनियों को सौंप दिया है। मंत्रालय के पास 4552 प्रपोजल आए और 1280 को अप्रूवल भी दे दिया गया। तेलंगाना, ओड़िशा और मध्य प्रदेश इस प्रक्रिया में और राज्यों से बहुत आगे हैं और इन तीनों राज्यों ने कुल 62% प्रोजेक्ट प्राइवेट कंपनियों को गैर वानिकी कार्यो के लिए सौंप दिए।
वन संरक्षण अधिनियम 1980 (Forest Conservation Act of 1980) के अंतर्गत सरकार ने गत चालीस वर्षों में 27,144 प्रोजेक्ट्स को साढ़े दस लाख हेक्टेयर वन भूमि का आवंटन किया है। इस समय भारत में 617 संरक्षित क्षेत्र हैं जिसमें 50 टाइगर प्रोजेक्ट क्षेत्र हैं। अभी तक की इन्वेस्टमेंट का 70% पैसा बाघों के संरक्षण के नाम पर खर्च हो रहा है बाकि 567 क्षेत्रों के लिए मात्र 30% फंड्स बचे हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि देश-विदेश में बाघों के संरक्षण के लिए पैसा देने वालों की कमी नहीं है क्योंकि वो दुनिया भर में ‘ईको टूरिज्म’ के जरिये आमदनी का बहुत बड़ा जरिया है। इन संरक्षित क्षेत्रों में बड़े-बड़े ‘टाइगर-प्रेमियों’ के बड़े-बड़े रिसोर्ट और होटल्स हैं। लेकिन इसके विरुद्ध न तो कोई पर्यावरणविद न्यायालय गया और न ही कोई जीवजन्तु प्रेमी। आज तक किसी ने ये प्रश्न खड़े नहीं किए कि अभयारण्यों के कारण क्यों आदिवासी जीवन को बर्बाद किया जा रहा है।
आदिवासियों की आज की स्थिति पर श्वेत पत्र की जरूरत
Need a white paper on the situation of tribals today
ऐसा अनुमान है कि 1950 से 1990 तक ‘विकास’ की विभिन्न परियोजनाओं, बांधों के नाम पर लगभग एक करोड़ आदिवासी अपनी जमीन से बेदखल हुए और उन्हें दोबारा से कहीं नहीं बसाया जा सका। ये आंकड़ें अलग परियोजनाओं के तहत विस्थापित लोगों के आधार पर जुटाए गए हैं। ये कम ज्यादा भी हो सकते हैं। लेकिन ये भी हकीकत है कि 1990 के बाद से विस्थापन के आंकड़े जरुर इससे कहीं ज्यादा होंगे क्योंकि वैश्वीकरण के दौर में तो आदिवासी क्षेत्रों के विकास की याद सभी को आई चाहे विकास में उनकी भागीदारी हो या नहीं। अभयारण्यों (Sanctuaries), संरक्षित क्षेत्रों (protected areas), बाघ परियोजनाओं (tiger projects), खदानों (quarries), माइनिंग (mining), बांध परियोजनाओं (dam projects) के चलते आदिवासियों के क्षेत्र पर दुश्मन की ललचाई नज़र थी और वे कामयाब हो रहे हैं क्योंकि सत्ताधारियों और पूंजपतियों के गठबंधन ने उनके पवित्र क्षेत्रों में सेंधमारी शुरू कर दी है और क़ानूनी प्रक्रिया अब देश के मूलनिवासियों के विरुद्ध जा रही है। उनका भोलापन अब उनके शोषण का हथियार बन गया है। जब और जहां उन्होंने विरोध किया तो उनके नाम के आगे माओवादी होने का ठप्पा लगा दिया गया और फिर प्रशासन और पुलिस को हथियार लेकर कुछ भी करने की छूट मिल गई। आदिवासी इलाको में ‘विकास’ के नाम पर जबरन सैन्यीकरण की प्रक्रिया बढ़ी और अपनी ही जमीन पर उन्हें उसके मल्कियत के सबूत देने पड रहे हैं। ऐतिहासिक अन्याय को ख़त्म करने के बजाये और बढ़ाया जा रहा है।