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राष्ट्र-राज्य और राष्ट्रवाद : मिथ और हकीकत

 ईश मिश्र

आज दुनिया में राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय हित के नाम पर दक्षिणपंथी अतिवाद की मुखरता उंमादयुक्त आक्रामक हो चली है। भारत में, खासकर 2014 के संसदीय चुनाव और केंद्र में, मई 2014 में मोदी की सरकार बनने के बाद यह अतिवादी मुखरता, आरएसएस से संबद्ध या उसकी वैचारिक संतति, ‘हिंदुत्ववादी’ चरमपंथियों की गतिविधियों में साफ-साफ देखी जा सकती है। राष्ट्रवाद पर समयांतर के विशेषांक (जनवरी, 2018) के लिए इस लेख की शुरुआत यूरोप में नवजागरण और प्रबोधन (एन्लाइटेनमेंट) आंदोलनों के दौरान सामंतवाद से पूंजीवाद में संक्रमण और शासन की नई व्यवस्था के रूप में, आधुनिक राष्ट्रर-राज्य तथा उसकी वैधता की विचारधारा के रूप में राष्ट्रवाद के उदय की ऐतिहासिक समीक्षा से करने की योजना थी। लेकिन अपने मुल्क में, स्वघोषित राष्ट्रवादी पार्टी के राज में, राष्ट्रवाद की हालिया बर्बर अभिव्यक्ति और कुछ स्वघोषित राष्ट्रवादियों द्वारा उसका महिमामंडन देख दिल दहल गया। एक आदमी एक दूसरे आदमी को अवर्णनीय, अतुलनीय बर्बरता से मार डालता है। मारते और जलाते हुए, पीछे से कुल्हाड़ी से वार करने की शूरवीरता के महिमामंडन में, वैसी ही भाषा इस्तेमाल करता है, जैसी स्व-घोषित राष्ट्रवादी मुसलमानों; वामपंथियों; तर्कवादियों आदि सांप्रदायिकता विरोधी ताकतों को देशद्रोह की सनद बांटते हुए करता है। हत्यारा अपने इस कृत्य पर इतना गौरवान्वित है कि अपने किशोर भतीजे से अपनी ‘बहादुरी’ का वीडियो बनवाया और सोशल मीडिया में चला दिया। उदयपुर और जयपुर में बर्बर हत्या का महिमामंडन करते हत्यारे के जयकारे और वंदेमातरम् के नारों के साथ उग्र जुलूसों की खबरें आ रही हैं। यह कैसा राष्ट्रवाद है?


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18वीं सदी के दार्शनिक जिस व्यक्ति ने राष्ट्रवाद की रक्षा में जिस व्यक्ति को मारा उससे राष्ट्र को किसी खतरे की संभावना नहीं है। वह अपने गांव देश से दूर मां, पत्नी और तीन बेटियों की रोटी की तलाश में राजस्थान आया एक प्रवासी, बंगाली मजदूर था। उसके परिजनों को रात में इस वीडियो के दिवास्वप्न आने लगे हैं। उसका अपराध यह था कि उसका नाम मुसलमानों जैसा था।

इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक खबर के अनुसार भाजपा संचालित, एक ह्वाट्सऐप ग्रुप हत्या और हत्यारे का महिमामंडन कर रहा था और देश के प्रधानमंत्री उस वक्त ‘गुजरात के बेटे’ पर कांग्रेसी छींटाकशी का रोना रो रहे थे। जी, राजस्थान के राजसमंद में बंगाली मजदूर, अफरजुल को मार कर जलाते हुए, उसी वीडियो की बात हो रही है जो किसी भी संवेदनशील इंसान को विह्वल करने को काफी है। जिस आदमी ने जिस आदमी की हत्या नृशंस हत्या की, उसका उससे न तो कोई मतलब था न ही कोई दुश्मनी। वैसे ही जैसे राष्ट्रवाद के नाम पर युद्ध में बिना किसी आपसी दुश्मनी के, दो अपरिचित सैनिक एक-दूसरे की हत्या कर, एक-दूसरे के परिजनों को शोक के अथाह सागर में देते हैं। क्या है राष्ट्रवाद?

  भाजपानीत-आरएसएस निर्देशित मौजूदा राष्ट्रवाद-केंद्रित मौजूदाविमर्श और हिंदुत्व-राष्ट्रवादियों द्वारा राष्ट्र-द्रोह की सनद बांटते हुए उत्पात, राष्ट्रवाद पर विमर्श का नया पहलू है। सुविदित है कि फरवरी, 2016 में जेएनयू में भारत के टुकड़े होंगे किस्म के प्रायोजित नारों के माध्यम से सरकार ने इसे देशद्रोह और व्यभिचार का अड्डा बता कर कैम्पस पर धावा बोल दिया। छात्रसंघ के अध्यक्ष को गिरफ्तार कर उस पर देशद्रोह का मुकदमा ठोंक दिया। न्यायाधीश और पुलिस की उपस्थिति में ‘राष्ट्रवाद’ के कुछ पहरेदारों ने उस पर अदालत में जानलेवा हमला किया। जीन्यूज तथा टाइम्स नाऊ जैसे ‘मृदंग मीडिया’ चैनल देशद्रोह का जाप करने लगे। ‘राष्ट्र-द्रोह के आरोप’ में वांछित दो उदीयमान इतिहासकारों, अनिर्बन भट्टाचार्य और उमर खालिद के नाम, पुलिस, मृदंग मीडिया और सोशल मीडिया पर ऐसा उछाला जैसे वे कोई खतरनाक आतंकवादी हों! या यों कहें कि लग रहा था कि शासन-प्रशासन और उनके भोंपू इन दो बच्चों से ऐसे आतंकित हैं, जैसे अंग्रेजी हुक्मरान क्रांतिकारियों के नाम से होते थे।


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गौरतलब है कि राष्ट्रवादी मॉब-लिंचिंग के अंदेशे में दोनों गिरफ्तारी देने से पहले कुछ दिनों भूमिगत हो गए थे। मुसलमानों से नाम वाले नास्तिक उमर के कश्मीर और पाकिस्तान से रिश्तों की कहानियां गढ़ी जाने लगीं। वास्तविक और सोशल मीडिया की आभासी दुनिया के हर गली-कूचे में जेएनयू और देशद्रोह चर्चा और उन्माद का विषय बन गए। जेएनयू पर राष्ट्रवादी आक्रमण और प्रतिरोध के दौरान तथा बाद हर रेल/हवाई यात्रा, हर सभा, हर अड्डेबाजी में जेएनयू, देशद्रोह और उमर खालिद के सवालों से रबरू होना पड़ता रहता है। उमर से मेरी नजदीकी पर सवाल पूछा जाता है, अनिर्बन से नहीं, जबकि दिल्ली पुलिस ने दोनों को देश द्रोह एक सी धाराओं में बंद किया था और दोनों एक सा ही स्टैंड लेते हैं। राष्ट्रवाद क्या है?

जेएनयू आंदोलन पर बहुत लिखा जा चुका है, यहां मकसद उस पर विमर्श नहीं है, जिक्र की जरूरत इसलिए पड़ी कि वह राष्ट्रवाद और देशद्रोह पर नए विमर्श और फासावादी उत्पात का संदर्भविंदु बन गया है। यह लेख आरएसएस प्रायोजित फासीवादी राष्टोंमाद के संदर्भ में, आधुनिक राष्ट्र-राज्य की सत्ता की वैधता की विचारधारा के रूप में राष्ट्रवाद के उदय और विकास की संक्षिप्त समीक्षा का एक प्रयास है।

संदर्भ

उपरोक्त वीडियो के संदर्भ में सोचें तो इतनी आत्मघाती नफरत और राष्ट्रवादी बर्बरता एक ऐसे आम इंसान में कहां से आ रही है? धर्मोंमादी विषवमन और धर्म के नाम पर उन्मादी राजनैतिक लामबंदी का उद्योग 100 सालों बेरोक-टोक चल रहा है। 1923 में ही जाने-माने स्वतंत्रता सेनानी, मूर्धन्य पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी ने इस भयानक खतरे से आगाह करते हुए इसके विरुद्ध व्यापक उद्यम की जरूरत पर जोर दिया था।

गौरतलब है कि 1933 में कानपुर सांप्रदायिक दंगों के विरुद्ध इसी उद्यम को आंजाम देने में फिरकापरस्त आतताइयों के हाथों शहीद हो गए थे। वही ताकतें जो उपनिवेश-विरोधी आंदोलन में तपकर विकसित हो रहे भारतीय राष्ट्रवाद की यात्रा में बांटो-राज करो की औपनिवेशिक नीति के मुहरों के रूप में हिंदू-मुस्लिम राषट्रवाद के शिगूफों के रोड़े अटका रहे थे, वे आज देश की सामासिक संस्कृति के ताने-बाने तहस-नहस करते हुए देशद्रोह की सनद बांट रहे हैं। क्या है इनका राष्ट्रवाद?

क्या है राष्ट्रवाद और राष्ट्र-द्रोह?

सुविदित है कि भारत के गृहमंत्री ने ‘देशद्रोही’ नारों के हवाले से जेएनयू को देशद्रोह का अड्डा बताकर, कैंपस को पुलिस छावनी में तब्दील कर दिया। कुछ ‘राष्ट्रवादी’ विद्वानों ने कैंपस में सिगरेट के ठूठे; शराब की बोतलें; और इस्तेमाल कंडोमों की गिनती और गहन शोध के बाद एक डोजियर निकाल कर साबित करने की कोशिश की कि जेएनयू देशद्रोह का ही नहीं सेक्स और व्यभिचार का भी अड्डा है। क्या राष्ट्रवाद और यौनिक नैतिकता एक दूसरे से जुड़ी हुई अवधारणाएं हैं?


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 मैंने एक लेख (जेएनयू का विचार और संघी राष्ट्रोन्माद, समकालीन तीसरी दुनिया, अप्रैल, 2015) में लिखा था कि फरवरी 2015 से जेएनयू अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियों में इस कदर छाया रहा कि वह जातिवाचक संज्ञा, संस्थान से भाववाचक संज्ञा, विचार गया है। तमाम विश्वविद्यालयों के कुलपति घोषणा करने लगे कि उसे जेएनयू नहीं बनने देंगे, यानि राष्ट्र-दोह का अड्डा नहीं बनने देंगे। क्या है राष्ट्रवाद और राष्ट्र-द्रोह?

क्यों हत्या का उत्सव मनाते हैं, हिंदुत्व मार्का गोरक्षक राष्ट्रभक्त?

कुछ स्वघोषित गोरक्षक किसी को भी गोभक्षी के संदेह में मार देते हैं, बस उसका नाम मुसलमानों सा होना चाहिए और राष्ट्रवादी सरकार के मंत्री और संघ चिंतक गोमूत्र और गोगोबर की अतुलनीय महिमा पर व्याख्यान देते हैं। दो साल पहले का सुविदित दादरी कांड क्या है? एक मंदिर से घोषणा होती है कि सवर्ण हिंदू बहुल बस्ती में रहने वाले एक कारीगर के घर में गोमांस रखा है, पल भर में सैकड़ों की प्रायोजित भीड़ उसके घर में घुस कर उसकी हत्या कर देती है और पड़ोसी तटस्थ दर्शक बने रहते हैं। उस कारीगर का नाम मुसलमानों सा था। हत्यारे गांव के ही थे, हो सकता है मृतक का गांव के किसी से कोई झगड़ा हो लेकिन सैकड़ों की भीड़ में हर किसी का नहीं हो सकता। क्यों हत्या का उत्सव मनाते हैं, हिंदुत्व मार्का गोरक्षक राष्ट्रभक्त? गोरक्षक राष्ट्रवादियों के अनगिनत कारनामे जगजाहिर हैं? बस याद दिला दें कि अखलाक़ की हत्या के एक आरोपी की जेल में मौत हो जाने के बाद उसके शव को तिरंगे में लपेट कर अंतिम संस्कार किया गया था। राष्ट्रवाद क्या है और क्या है राष्ट्रद्रोह?

आज-कल वास्तविक और इंटरनेट की आभासी दुनिया के हर नुक्कड़ पर देशभक्ति की सनद बांटते लोग मिल जाते हैं। पूछो राष्ट्रवाद या देशद्रोह होता क्या है? वह जेएनयू में देश के टुकड़े करने के नारों की दुहाई देता है, कुछ बताता नहीं। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक फेसबुक ग्रुप में जेएनयू छात्रसंघ के तत्कालीन अध्यक्ष कन्हैया को लेकर अगर तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री स्मृति इरानी के संसद वक्तव्य से आशय निकालें तो ‘भारत माता की जय बोलना’ राष्ट्रवाद है और महिषासुर दिवस मनाना राष्ट्र द्रोह। सनद रहे कि उत्तर प्रदेश के सोनभद्र से लेकर झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और बंगाल की कई जनजातियां तथा दक्षिण भारत के कई समुदाय महिषासुर को अपना नायक मानती हैं। (महिषासुर: एक जननायक सं. प्रमोद रंजन) आरएसएस के विभिन्न शाखाओं, खासकर इनकी छात्र-शाखा, एबीवीपी के शूरवीरों के कृत्यों को राष्ट्रवाद मानें तो मां-बहन की गालियों और ईंट-पत्थर की बौछार के साथ भारत माता की जय बोलते हुए, राजनैतिक विरोधियों के कार्यक्रमों में उत्पात मचाना राष्ट्रवाद है और जनतांत्रिक ठंग से सभा करना, जुलूस निकालना, आजादी के नारे लगाना, नाटकों और फिल्मों के प्रदर्शन से अपनी बात कहना राष्ट्र-द्रोह। अवधारणाओं को अपरिभाषित रखना धूर्तता का एक मूलमंत्र है उसी तरह जैसे विचारों या कामों की बजाय, जन्म के आधार पर व्यक्तित्व की प्रवृत्तियों का निर्धारण ब्राह्मणवाद और नवब्राह्मणवाद का मूलमंत्र है। सत्तासीन संसदीय शाखा समेत आरएसएस की तमाम शाखाओं के सर्वविदित राष्ट्रवादी कृत्यों कतिपय उदाहरण इस लिए दिए कि विभिन्न शाखाओं कोई राष्ट्रवाद को लाखों साल पुराना बताता है तो हजारों। विचारधारा के रूप में राष्ट्रवाद एक आधुनिक अवधारणा है। यूरोप में सत्ता के केंद्र के रूप में आधुनिक राष्ट्र-राज्य (पूंजीवादी राज्य) के उदय के बाद उसकी विचारधारा के रूप राष्ट्रवाद अस्तित्व में आया। यह लेख राष्ट्रवाद के एक विश्लेषणात्मक, ऐतिहासिक सर्वेक्षण का प्रयास है।


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मनुष्यों के समूह के सार्वजनिक, सामाजिक-आर्थिक आचार-व्यवहार की आचारसंहिता बनाने और लागू करने के केंद्र के रूप में शासन और सुरक्षा तंत्रों पर आधारित राज्य, न तो साश्वत या नैसर्गिक है, न ही सार्वभौमिक। राज्य नैसर्गिक न होकर ऐतिहासिक है। दो पैरों पर चलने वाले प्राणी के रूप में, मनुष्यों और मनुष्य-समूहों के अस्तित्व के इतिहास का अधिकतम हिस्सा वर्गविहीन, राज्यविहीन समाजों का है, जिसे प्रागैतिहासिक काल या मार्क्सवादी शब्दावली में, आदिम सामदायिक उत्पादन पर आधारित आदिम साम्यवादी युग कहा जाता है। उत्पादन के साधनों में उन्नति, धातुओं के खनन और नई धातुओं तथा इनके उपयोग का ज्ञान; नई कारीगरी तथा शिल्पों का इल्म और उनमें तरक्की; बागवानी खेती तथा पशुपालन में निरंतर गुणात्मक और मात्रात्मक प्रगति आदि ऐतिहासिक कारणों से भरण-पोषण की अर्थव्यवस्था, कालांतर में अतिरिक्त उत्पादन की अर्थव्यवस्था में तब्दील हो गई। प्रकृति के संसाधनों पर ‘स्वाभाविक’ स्वामित्व तथा अतिरिक्त उत्पादन पर अधिकार के गड़बड़ झाले में समाज छोटे-बड़े में बंट गया। निजी संपत्ति के आगाज से असमानता का आविर्भाव हुआ और समाज दो वर्गों में बंट गया – श्रमजीवी और परजीवी। 18वीं सदी के दार्शनिक रूसो ने असमानता पर विमर्श में लिखा था कि लोहे और अनाज के अन्वेषण ने “मनुष्य को सभ्य बना दिया और मानवता का विनाश कर दिया”।

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