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शेष नारायण सिंह

अमरनाथ यात्रा के यात्रियों पर आतंकवादी हमले के बाद जम्मू-कश्मीर की राजनीति फिर से एक बार चर्चा में है।

कश्मीर में जवाहरलाल नेहरू की भूमिका पर नए राजनेता ज़बरदस्त हमले कर रहे हैं। ज़ाहिर है कि उनको जम्मू-कश्मीर के बारे में या तो मालूमात कम हैं या वे इतिहास को तोड़ मरोड़ कर पेश करना चाहते हैं।

कश्मीर के बारे में एक बात बिलकुल साफ़ होनी चाहिए कि जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय में सबसे बड़ी भूमिका चार भारतीय नेताओं की है जिनके नाम हैं महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू , सरदार पटेल और शेख मुहम्मद अब्दुल्ला।

कश्मीर का भारत में विलय महात्मा गांधी की विरासत का हिस्सा है।

आजकल तरह तरह की बातें हो रही हैं इसलिए ज़रूरी है कि जम्मू-कश्मीर के विलय के 70 साल पुराने इतिहास पर एक नज़र फिर डाल ली जाए।

यह भी लाजिम है कि हम समझें कि जम्मू-कश्मीर में आज़ादी का मतलब समय समय पर बदलता रहा है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण विचार यह रहा है कि 26 अक्टूबर 1947 के दिन जब जम्मू-कश्मीर के राजा ने भारत में अपने राज्य के विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत किया था तो कश्मीरी अवाम ने अपने को आज़ाद माना था। उस दौर में जम्मू-कश्मीर का पूरा राज्य शेख अब्दुल्ला के साथ था। और कुछ लोगों को छोड़कर जम्मू-कश्मीर का हर नागरिक भारत के साथ विलय का पक्षधर था।

देश के बँटवारे के वक़्त अंग्रेजों ने देशी रियासतों को भारत या पाकिस्तान के साथ जा मिलने की आज़ादी दी थी। बहुत ही पेचीदा मामला था। ज़्यादातर देशी राजा तो भारत के साथ मिल गए लेकिन जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर का मामला विवादों के घेरे में बना रहा। कश्मीर में ज़्यादातर लोग तो आज़ादी के पक्ष में थे। कुछ लोग चाहते थे कि पाकिस्तान के साथ मिल जाएँ लेकिन अपनी स्वायत्तता को सुरक्षित रखें। इस वर्ग में प्रजा परिषद

वाले नेता शामिल थे।

महाराजा हरि सिंह के प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान की सरकार के सामने एक स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का प्रस्ताव रखा जिसमें कहा गया था कि लाहौर सर्किल के केंद्रीय विभाग पाकिस्तान सरकार के अधीन काम करेगें। 15 अगस्त को पाकिस्तान की सरकार ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा के स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसके बाद पूरे राज्य के डाकखानों पर पाकिस्तानी झंडे फहराने लगे। भारत सरकार को इस से चिंता हुई और जवाहर लाल नेहरू ने अपनी चिंता का इज़हार इन शब्दों में किया।

"पाकिस्तान की रणनीति यह है कि अभी ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ कर ली जाए और जब जाड़ों में कश्मीर अलग थलग पड़ जाए तो कोई बड़ी कार्रवाई की।"

इसके बाद नेहरू ने सरदार पटेल को एक पत्र भी लिखा कि ऐसे हालात बन रहे हैं कि महाराजा के सामने और कोई विकल्प नहीं बचेगा और वह नेशनल कान्फरेन्स और शेख अब्दुल्ला से मदद मांगेगा और भारत के साथ विलय कर लेगा। अगर ऐसा हो गया तो पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर किसी तरह का हमला करना इसलिए मुश्किल हो जाएगा कि उसे सीधे भारत से मुकाबला करना पड़ेगा। इस बीच जम्मू में साम्प्रदायिक दंगें भड़क उठे थे। बात अक्टूबर तक बहुत बिगड़ गयी और महात्मा गाँधी ने इस हालत के लिए महाराजा को व्यक्तिगत तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया।

उधर पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बढाने के लिए लाहौर से आने वाली कपड़े, पेट्रोल और राशन की सप्लाई रोक दी। जम्मू-कश्मीर की संचार व्यवस्था पाकिस्तान के पास स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के बाद आ ही गयी थी। उसमें भी भारी अड़चन डाली गयी।। हालात तेज़ी से बिगड़ रहे थे।

राजा ने पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने की कोशिश शुरू कर दी। नतीजा यह हुआ कि उनके प्रधान मंत्री मेहर चंद महाजन को कराची बुलाया गया। जहां जाकर उन्होंने अपने ख्याली पुलाव पकाए।

महाजन ने कहा कि उनकी इच्छा है कि कश्मीर पूरब का स्विटज़रलैंड बन जाए , स्वतंत्र देश हो और भारत और पाकिस्तान दोनों से ही बहुत ही दोस्ताना सम्बन्ध रहे। लेकिन पाकिस्तान को कल्पना की इस उड़ान में कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसने कहा कि पाकिस्तान में विलय के कागजात पर दस्तखत करो फिर देखा जाएगा।

इधर 21 अक्टूबर 1947 के दिन राजा ने अगली चाल चल दी। उन्होंने रिटायर्ड जज बख्शी टेक चंद को कश्मीर का नया संविधान बनाने का काम शुरू करने के लिए नियुक्त कर दिया। पाकिस्तान को यह स्वतंत्र देश बनाए रखने का महाराजा का आइडिया पसंद नहीं आया और पाकिस्तान सरकार ने कबायली हमले की शुरुआत कर दी।

राजा मुगालते में थे और पाकिस्तान की फौज़ कबायलियों को आगे करके श्रीनगर की तरफ बढ़ रही थी। बातचीत का सिलसिला भी जारी था। पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव मेजर ए एस बी शाह श्रीनगर में थे और प्रधान मंत्री समेत बाकी अधिकारियों से मिल जुल रहे थे।

कश्मीर को मुग़ल सम्राट अकबर ने 1586 में अपने राज्य में मिला लिया था। उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था। और जब 361 साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर 1947 में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना। इस बीच मुसलमानों, सिखों और हिन्दू राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा। अंतिम हिन्दू राजा, हरी सिंह के खिलाफ आज़ादी की जो लड़ाई शुरू हुयी उसके नेता, शेख अब्दुल्ला थे।। शेख ने आज़ादी के पहले "कश्मीर छोड़ो" का नारा दिया। इस आन्दोलन को जिनाह ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैरख्वाह थे जबकि जवाहरलाल नेहरू "कश्मीर छोड़ो" आन्दोलन में शामिल हुए और शेख अब्दुल्ला को समर्थन दिया। इसलिए कश्मीर में हिन्दू या मुस्लिम का सवाल कभी नहीं था। वहां तो गैर कश्मीरी और कश्मीरी शासक का सवाल था और उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के इकलौते नेता थे।

1 अगस्त 1947 को महात्मा गांधी कश्मीर गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि जिस अमृतसर समझौते को आधार बनाकर हरि सिंह कश्मीर पर राज कर रहे हैं वह वास्तव में एक बैनामा है। और अंग्रेजों के चले जाने के बाद उस गैर कानूनी बैनामे का कोई महत्व नहीं है।

राजा हरी सिंह हर हाल में रियासत पर अपना अधिकार बनाए रखना चाहते थे लेकिन कश्मीरी जनता के नेता शेख अब्दुल्ला केवल कश्मीर की भलाई की बात करते थे। कश्मीरी अवाम के हित के लिए उन्होंने भारत और पाकिस्तान से बात चीत का सिलसिला जारी रखा। अपने दो साथियों, बख्शी गुलाम मुहम्मद और गुलाम मुहम्मद सादिक को तो कराची भेज दिया और खुद दिल्ली आ गए। वहां वे जवाहरलाल नेहरू के घर पर रुके। कराची गए शेख के नुमाइंदों से न तो जिन्ना मिले और न ही लियाक़त अली।

शेख ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि कश्मीरी अवाम के नेता वहां दूसरे दर्जे के पाकिस्तानी नेताओं से बात कर रहे थे और इधर कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के साथ बढ़ रहे कबायली कश्मीर की ज़मीन और कश्मीरी अधिकारों को अपने बूटों तले रौंद रहे थे। तेज़ी से बढ़ रहे कबायलियों को रोकना डोगरा सेना के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह के बस की बात नहीं थी। पाकिस्तान के इस हमले के कारण कश्मीरी अवाम पाकिस्तान के खिलाफ हो गया। क्योंकि महत्मा गांधी और नेहरू तो जनता की सत्ता की बात करते हैं जबकि पाकिस्तान उनकी आज़ादी पर ही हमला कर रहा था। इस के बाद कश्मीर के राजा के पास भारत से मदद माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं था।

महाराजा के प्रधान मंत्री, मेहर चंद महाजन 26 अक्टूबर को दिल्ली भागे। उन्होंने नेहरू से कहा कि महाराजा भारत के साथ विलय करना चाहते हैं। लेकिन एक शर्त भी थी। वह यह कि भारत की सेना आज ही कश्मीर पंहुच जाए और पाकिस्तानी हमले से उनकी रक्षा करे वरना वे पाकिस्तान से बात चीत शुरू कर देगें।

नेहरू आग बबूला हो गए और महाजन से कहा '" गेट आउट"।

बगल के कमरे में शेख अब्दुल्ला आराम कर रहे थे। बाहर आये और नेहरू का गुस्सा शांत कराया। सरदार पटेल के सचिव वी पी दत्त के झोले में हमेशा विलय के दस्तावेज़ रखे रहते थे। नेहरू से डांट खाने के बाद महाराजा ने विलय के कागज़ात पर दस्तखत किया और उसे 27 अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया। भारत की फौज़ को तुरंत रवाना किया गया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया।कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी। उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी लेकिन अब वह बात नहीं है।

 बाद में तो खैर शेख अब्दुल्ला के बडबोलेपन ने हालात को बहुत बिगाड़ा और उनको अगस्त १९५३ में सत्ता से बेदखल होना पड़ा और वे गिरफ्तार भी हो गए। लेकिन जवाहरलाल का मानना था कि शेख को शामिल किए बिना कश्मीर की समस्या का हल नहीं निकलेगा। इस सिलसिले में ६ अप्रैल १९६४ को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई। शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया जिसे लिखा , कश्मीरी मामलों के जानकार बलराज पुरी ने था। शेख ने कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था। वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले ८ अगस्त १९५३ तक कहा था। नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे।। नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा। लेकिन उनके वहां रहते ही जवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई। नेहरू के मरने के बाद तो हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे और बिगड़ते ही गए।

आज हालात बिगड़ गए हैं। पाकिस्तानी पैसे पर पलने वाले कश्मीरी नेताओं का एक वर्ग वहां है जिसको हर हाल में पाकिस्तान की तारीफ करना है जो कश्मीर में पाकिस्तान का क़ब्ज़ा करवाना चाहता है।यही नेता आज़ादी के बहाने राज्य में अशांति फैला रहे हैं। ज़रुरत इस बात की है कि इस वर्ग को हर तरह से अलग थलग किया जाए। ज़ाहिर है कि इसके लिए पाकिस्तान को ही कमज़ोर करना पडेगा और कश्मीरी अवाम को बताना पडेगा कि पाकिस्तान कश्मीरी अवाम का दुश्मन है। ऐसी हालत में महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू जैसी राजनीति की बुलंदियों को नज़र में रखकर कश्मीर में हालात को सामान्य करने की ज़रूरत है।

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