अयोध्या में रोड शो (Road show in Ayodhya) के क्रम में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा (Congress general secretary Priyanka Gandhi Vadra) के वहां की हनुमानगढ़ी जाने को लेकर भारतीय जनता पार्टी (Bharatiya Janata Party) और उसकी जमातों का बिफरना व बौखलाना समझ में नहीं आता। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद द्वारा हुड़दंग मचाकर उनकी पूजा-अर्चना में विघ्न डालना (Disturb the worship) और वित्तमंत्री अरुण जेटली का यह पूछे बिना न रह पाना तो और भी नहीं कि हनुमानगढ़ी जाने के पीछे उनकी आस्था व विश्वास थे या राजनीति? अच्छी बात यह है कि जेटली का यह सवाल किसी जवाब की मांग नहीं करता। उलटे भाजपाई जमातों को इस प्रतिप्रश्न के सामने ला खड़ा करता है कि वे हिन्दुत्व की कैसी पैरोकार हैं कि अपनी जमात के बाहर के किसी नेता का हिन्दू होना बर्दाश्त या स्वीकार नहीं कर पातीं? जैसे ही वह कहीं अपनी आस्था प्रदर्शित करता है, क्यों उसे अनेक तरह के शक और शुबहों से घेरने लग जाती हैं? क्या यह वैसे ही नहीं है जैसे वे अनेक देशवासियों की देशभक्ति पर अकारण भी शक किया करती हैं?
क्या ऐसा इसलिए है कि आस्थाओं और विश्वासों की राजनीति (Politics of beliefs and credence) के कीचड़ में खुद के आपादमस्तक लिप्त होने का अपराध उन्हें किसी की भी आस्था को राजनीति से इतर मानने ही नहीं देता? क्यों ये जमातें यह पूछते हुए कि प्रियंका रामलला के दर्शन करने विवादित रामजन्मभूमि क्यों नहीं गईं, छिपा नहीं पातीं कि उनके इस सवाल के पीछे भी उनकी स्वार्थी राजनीति ही है? तभी तो उनके इस सवाल के बाद आम लोग भी पूछने लगते हैं कि उनकी यह कैसी राजनीति है कि विपक्ष में रहते हुए भाजपा रामजन्मभूमि पर भव्य राममन्दिर निर्माण की रट लगाती नहीं थकती और सत्ता में आते ही सुर बदल लेती है?
जैसा कि भाजपा दावा करती है, अगर हिन्दुत्व की स्वयंभू अलमबरदार के तौर पर उसका अपने घोषणा पत्र में राममन्दिर निर्माण का वादा करना, फिर भूल जाना और सत्ता पा जाने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का रामजन्मभूममि की ओर मुंह तक न करना राजनीति नहीं है तो प्रियंका का अयोध्या की हनुमानगढ़ी में मत्था टेककर आशीर्वाद लेना क्योंकर राजनीति हो सकता है? खासकर जब यह किसी कांग्रेस नेता की पहली हनुमानगढ़ी यात्रा तक नहीं है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी इससे पहले भी उक्त गढ़ी में अपनी हाजिरी दर्ज करा चुके हैं। हां, अगर ये दोनों की राजनीति की दो अलग-अलग शैलियां हैं तो क्या भाजपाई जमातें चाहती हैं कि इस मसले पर सिर्फ वही राजनीति करें और इसी कारण कोई और ऐसा करने लगता है तो उन्हें असुविधा होने लगती है? जब तक देश में लोकतंत्र है, इसे क्यों कर स्वीकार किया जा सकता है?
बहरहाल, हमें नहीं मालूम कि कांग्रेस की ओर से इन जमातों को कैसे जवाब दिया जायेगा? दिया भी जायेगा या नहीं। लेकिन सच्चा जवाब तो सच पूछिये तो इस प्रति प्रश्न से ही जुड़़ा हुआ है कि अपनी राजनीतिक सुविधा के अनुसार रामजन्मभूमि और राममन्दिर की रट लगाने वाली भाजपाई जमातें अयोध्या की इस हनुमानगढ़ी तक जाने को कौन कहे, उसका नाम तक क्यों नहीं लेतीं? उन्हें इस मामले में भी कांग्रेस या प्रियंका गांधी से आगे दो कदम आगे बढ़ जाने से किसने रोक रखा है? किसी ने नहीं तो क्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना समेत पांच राज्यों की विधानसभाओं के गत चुनाव में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हनुमान को वनवासी, गिरिवासी, वंचित और दलित वगैरह करार दिया तो भी उनकी इस गढ़ी की कतई कोई चर्चा नहीं की?
कहीं इसलिए तो नहीं कि उसने देश के आजाद होने के पहले ही अपनी व्यवस्था में लोकतंत्र और चुनाव का अपनी तरह का अनूठा और देश का संभवत: पहला प्रयोग कर रखा है, अभी भी उसे सफलतापूर्वक संचालित करती आ रही है और लोकतंत्र से पुराने वैर के कारण इन जमातों को यह बात अच्छी नहीं लगती? इसी वैर के कारण तो कहा जाता है कि चुनाव लड़ते वक्त दिये जाने वाले उनके प्रत्याशियों द्वारा दिये जाने वाले शपथपत्रों में प्रदर्शित हो जाता हो तो हो जाता हो, वे अन्यत्र कहीं लोकतांत्रिक आचरण करती नहीं नजर आतीं। देश के लोकतंत्र के तहत खुद को मिली सुविधाओं को भी, कहते हैं कि वे लोकतंत्र के खात्मे के लिए ही इस्तेमाल करने का इरादा रखती हैं। इसीलिए वे अपने पितृपुरुषों में से एक नानाजी देशमुख के इस कथन को भी याद रखने की जरूरत नहीं समझतीं कि इस देश की लोकतांत्रिक यात्रा अब इतनी लम्बी हो चुकी है कि वह राजतंत्र के युग में पीछे लौटकर किसी राजा का राज्य स्वीकार नहीं करने वाला, भले ही वह अयोध्या के राजाराम का राज्य हो, सम्राट अशोक का या फिर अकबर का।
नानाजी देशमुख कहते थे कि चूंकि देशवासियों के लिए अब रानियों के पेट से जन्म लेने वाले सारे राजाओं के राज बेस्वाद हो चुके हैं, वे एक दिन उन्हें भी सबक सिखाकर ही मानेंगे जो देश के लोकतंत्र को भी राजतंत्र का लबादा ओ़ढ़ाने के फेर में हैं।
दूसरे पहलू पर जायें तो अमेठी से अयोध्या के बीच के अपने रोड शो (Priyanka Gandhi's Road Shows Between Amethi and Ayodhya) में प्रियंका ने बार-बार कहा कि यह लोकसभा चुनाव 2019 (Lok Sabha Elections 2019) देश के संविधान और लोकतंत्र बचाने का अवसर है और भाजपा व नरेन्द्र मोदी के राज में इन दोनों के ही खतरे में होने के कारण इसका सदुपयोग किया जाना बहुत जरूरी है। ऐसे में उनका अयोध्या की हनुमानगढ़ी जाना बहुत स्वाभाविक था, क्योंकि उसके द्वारा देश में संविधान लागू होने के बहुत पहले ही अपनी व्यवस्था में अंगीकार किया गया लोकतंत्र हमारे महान लोकतंत्र की बड़ी प्रेरणा है। यों, यह भी एक तरह से स्वाभाविक ही है कि प्रियंका द्वारा इस अलक्षित प्रेरणा को आगे किया जाना लोकतंत्र को लजानेवाली घृणा की राजनीति के अलमबरदारों को रास नहीं आ रहा। आये भी कैसे, अवध की गंगा-जमुनी संस्कृति के अनुरूप इस गढ़ी के निर्माण में अवध के नवाबों का उल्लेखनीय योगदान रहा है और इन अलमबरदारों का इस संस्कृति के संरक्षण का कोई इतिहास नहीं है।
अयोध्या की हनुमानगढ़ी का इतिहास History of Hanumangadhi of Ayodhya
यहां जानना दिलचस्प है कि अयोध्या की हनुमानगढ़ी (Hanumangarhi of Ayodhya) ने अठारहवीं शताब्दी की समाप्ति से बीस पच्चीस साल पहले ही वयस्क मताधिकार पर आधारित लोकतंत्र को व्यवस्था और जीवनदर्शन के तौर पर अंगीकार कर लिया था। वह भी अलिखित या अनौपचारिक रूप से नहीं, बाकायदा संविधान बना और लागू करके।
पर्शियन में लिखे गये इसके संविधान के अनुसार इसका सर्वोच्च पदाधिकारी गद्दीनशीन कहलाता है, जो वंश परम्परा, गुरू शिष्य परम्परा अथवा किसी उत्तराधिकार से नहीं आता। उसका निश्चित अवधि के लिए बाकायदा चुनाव होता है, जिसके बाद उसे वचन देना पड़ता है कि वह गढ़ी की सारी सम्पत्ति को सामूहिक मानेगा, उसका संरक्षक बनकर रहेगा, उसे निजी प्रयोग में नहीं लायेगा, बरबाद नहीं करेगा और पंचों के परामर्श के बगैर कोई कदम नहीं उठायेगा। वचनभंग करने की स्थिति में संविधान में उसे दंडित करने की भी व्यवस्था है।
रामानंदी साधुओं के निर्वाणी अखाड़े की इस गढ़ी में कोई भी वैष्णव विरक्त किसी नगा के अंतर्गत शिक्षा दीक्षा के लिए रह सकता है, लेकिन गढ़ी से सम्बद्धता या मताधिकार उसे यों ही नहीं मिल जाता। इसके लिए उसे एक निर्धारित प्रक्रिया से गुजरना होता है। शिक्षा-दीक्षा के लिए गढ़ी में आने वाले को सादिक चेला या साधक शिष्य कहते हैं। साधु बनने से पहले उसे छोरा बनना पड़ता है, फिर बारी-बारी से बंदगीदार, हुरदंगा, मुरेठिया, नगा और प्रतिश्रेणी नगा। प्रतिश्रेणी नगा हो जाने के बाद वह गढ़ी का सदस्य हो जाता है और उसे मताधिकार मिल जाता है।
जानना दिलचस्प है कि छठे गद्दीनशीन बाबा बलरामदास (Sixth Guddinshin Baba Bal Ramadas) के समय साधुओं की संख्या छ: सौ से ज्यादा हो गई और उनमें से अनेक के धर्मप्रचार के लिए विचरण करते रहने के कारण प्रबंध में समस्याएं आने लगीं, तो उनकी चार पट्टियां बनाई गईं- सागरिया, बसंतिया, उज्जैनिया और हरिद्वारी। व्यवस्था दी गई कि ये चारो निर्वाणी अखाड़े से ही सम्बद्ध रहेंगी। प्रत्येक पट्टी के तीन उपविभाग भी बनाये गये-जमात खालसा, जमात हुंडा और जमात झुंडी।
नियमानुसार गढ़ी में कुल तीन पंचायतें हैं-पट्टी पंचायत, अखाड़ा पंचायत और अखाड़ा कार्यकारिणी की पंचायत।
पहले चारो पट्टियों के मतदाता अपने महंत का चुनाव करते हैं, फिर अखाड़ा पंचायत चुनी जाती है। अंत में अखाड़े और चारो पट्टियों से चुने गये 24 पंच अपना सरपंच चुनते हैं, जो अखाड़ा कार्यकारिणी की पंचायत का सरपंच कहलाता है। उसका कार्यकाल दो साल होता है और उसको गद्दीनशीन के समक्ष सच्चाई, ईमानदारी व निष्पक्षता की शपथ लेनी पड़ती है। जैसा कि बता आये हैं, गद्दीनशीन को भी अखाड़े के पंच ही चुनते हैं।
पट्टी, अखाड़े अथवा अखाड़ा कार्यकारिणी की पंचायतों की बैठकें आहूत करने और उनकी सूचनाएं देने-दिलाने के लिए 'कोतवाल' नाम के एक पदाधिकारी की नियुक्ति होती है, जबकि हिसाब-किताब रखने वाले पदाधिकारी को 'गोलकी' या 'मुख्तार' कहते है। पट्टियों की हर जमात से हर तीन वर्ष के लिए गोलकी नियुक्त किये जाते हैं और इस नियुक्ति में भी मतदाताओं का फैसला ही सिर माथे होता है। सच्चे अर्थों में पंच ही गढ़ी के प्रबंधक और मालिक होते हैं।
अखाड़ा कार्यकारिणी की पंचायत में कोरम तब पूरा माना जाता है, जब कम से कम 16 पंच उपस्थित हों। सारे फैसले बहुमत से किये जाते हैं और किसी मसले पर पक्ष विपक्ष के मत बराबर हो जायें तो सरपंच को निर्णायक मत देने का अधिकार होता है। पंचायत जरूरत पड़ने पर गढ़ी की परम्पराओं का पालन न करने या उसकी प्रतिष्ठा भंग करने वालों पर दंड तय कर सकती है। उनका सेर-सीधा बंद कर सकती है।
ज्ञातव्य है कि सेर-सीधा किसी साधु के सम्मान का प्रतीक होता है और इसके बंद होने का अर्थ है सम्बंधित साधु का गढ़ी से निष्कासन। गढ़ी के दिशावाहकों ने शुरू से ही उसे मौरूसी या हाकिमी मठ बनाने के बजाय पंचायती मठ बनाया और लोकतंत्र व सामूहिकता के सिद्धांतों को अपनाने पर जोर दिया। लम्बे इतिहास में गढ़ी को इसका लाभ भी मिला।
वह सम्पत्तियों व परिसम्पत्तियों को लेकर दूसरे मठों व मंन्दिरों जैसे झगड़ों की शिकार नहीं हुई क्योंकि न वहां व्यक्तिगत सम्पत्ति है और न उसके लिए झगड़े की बांसुरी बजती है। साधुओं की चारो पट्टियों को सत्ता संघर्ष से बचाने के लिए नियम है कि गद्दीनशीन बारी-बारी से हर पट्टी से चुना जायेगा और महज अखाड़े के प्रति उत्तरदायी होगा। पट्टियों के महंतों के चुनाव में भी ध्यान रखा जाता है कि समान अवसर के सिद्धांत का उल्लंघन न हो। इसकी तीनों जमातों से बारी-बारी से महंत चुने जाते है और जिस जमात की बारी होती है, वह चुनाव में हिस्सा नहीं लेती। कार्यकाल समाप्ति से पहले पद रिक्त हो जाने पर उपचुनाव भी कराये जाते हैं।
कृष्ण प्रताप सिंह, लेखक फैजाबाद स्थित वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं।