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सरदार सरोवर बांध ऐसे विकास का प्रतीक है जो न्याय और टिकाऊ विकास की अवधारण पर आधारित नहीं है

Truth of Sardar Sarovar Dam: Modi's insensitivity, temples did not invest money in the dam

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने 67वें जन्मदिन के मौके पर 17 सितंबर को सरदार सरोवर बांध का उद्घाटन किया. उन्होंने इस बांध के तीन दशक से अधिक के जटिल और विवादास्पद इतिहास को खारिज करते हुए दावा किया, ‘मैंने तय किया था कि विश्व बैंक के साथ या इसके बगैर हमें परियोजना को आगे बढ़ाना है.’ जबकि तथ्य कुछ और हैं. उन्होंने यह भी दावा कि जब विश्व बैंक पीछे हट गया तो गुजरात के मंदिरों से इस परियोजना के लिए दान आया. एक बार फिर से उन्हें सच को तोड़ा-मरोड़ा.

बांध में मंदिरों ने पैसा नहीं लगाया. 1993 में जब विश्व बैंक कुल 30 करोड़ डॉलर के कर्ज का आखिरी किश्त देने से पहले ही जब हट गया तो सरकार ने इस परियोजना के लिए पैसे दिए. इस बांध के खिलाफ लोगों ने भी लंबा संघर्ष किया. मोदी ने इन अभियानों को दुष्प्रचार फैलाने वाला कहा. इससे साफ है कि सत्ता में चाहे कोई भी पार्टी रहे लेकिन जिम्मेदार, बराबरी वाला और टिकाऊ विकास अभी काफी दूर है.

विश्व बैंक ने पीछे हटने का निर्णय एक स्वतंत्र जांच के बाद लिया था.इसमें यह सामने आया कि पुनर्वास और पर्यावरण के मसले पर काम विश्व बैंक की नीतियों के मुताबिक नहीं हो रहा है. इसके बाद बैंक के पास हटने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था. नर्मदा बचाओ आंदोलन के नेतृत्व में विरोध करने वालों की चिंताओं को इस रिपोर्ट में शामिल किया गया था.

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विश्व बांध आयोग का गठन कब और क्यों हुआ? | When and why was the World Commission on Dams formed?

दुनिया के दूसरे हिस्सों में बड़ी बांध परियोजनाओं को लेकर भी सवाल उठ रहे थे. इसी वजह से 1998 में विश्व बांध आयोग का गठन हुआ. इसके बाद से ऐसी परियोजनाओं की फंडिंग लगातार कम हुई है. क्योंकि इनकी सामाजिक और पर्यावरणीय कीमत काफी अधिक है.

सरदार सरोवर परियोजना की आधारशिला जवाहरलाल नेहरू ने 1961 में रखी थी. हालांकि, बांधों को आधुनिक भारत के मंदिर कहने वाले नेहरू बड़ी परियोजनाओं पर शंका जताने लगे थे. 1987 में बांध पर काम शुरू हुआ. 138 मीटर उंचाई वाले इस बांध से जुड़े कई सामाजिक और पर्यावरणीय सवाल उठे.

मोदी लोगों को यह यकीन दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि कई अवरोधों के बावजूद बांध का काम उनकी वजह से पूरा हो पाया.

यह सच है कि नरेंद्र मोदी ने प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर इसे गुजराती अस्मिता से जोड़ दिया और जिसने भी इसका विरोध किया उसे गुजरात विरोधी ठहरा दिया. लेकिन यह बांध पूरा इसलिए हो पाया कि केंद्र की सभी सरकारें बड़ी परियोजनाओं की समर्थक रहीं. सालों के विरोध और सुप्रीम कोर्ट तक में चली न्यायिक प्रक्रियाओं के बाद नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण ने 2014 में केंद्र में भाजपा में सरकार बनने के कुछ ही दिनों के अंदर परियोजना पूरा करने को हरी झंडी दे दी. उस वक्त तक बांध की उंचाई 121.92 मीटर थी. इसे बढ़ाकर 138.68 मीटर करने के निर्णय को जल विशेषज्ञों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने जल्दबाजी वाला, गैर बुद्धिमता पूर्ण और खतरनाक बताया था.

सरदार सरोवर समेत नर्मदा पर बने कई बांधों को लेकर काफी लिखा गया है.

कई अध्ययनों में यह बात आई है कि गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में ठीक से पुनर्वास नहीं हुआ. मध्य प्रदेश सरकार ने तो नर्मदा जल विवाद निवारण प्राधिकरण के उस आदेश को भी चुनौती दी है जिसमें विस्थापितों को ‘जमीन के बदले जमीन’ देने को कहा गया था. प्रदेश सरकार विस्थापितों को जमीन नहीं पैसे देना चाहती है. हजारों परिवार अब भी मुआवजे के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

साफ है कि मोदी जिसे ‘इंजीनियरिंग का चमत्कार’ कह रहे हैं, उसके लिए आम लोगों ने बड़ी कीमत चुकाई है. इनकी जमीन और रोजी गई और मिला कुछ नहीं. इस पर मोदी द्वारा इनके ‘बलिदानों’ के लिए शुक्रिया अदा करना संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है.