Hastakshep.com-Opinion-Hindutva group-hindutva-group-Netaji Subhash Chandra Bose-netaji-subhash-chandra-bose-Shaheed Bhagat Singh-shaheed-bhagat-singh-Subhas Chandra Bose-subhas-chandra-bose-देशद्रोह-deshdroh-नेताजी सुभाष चन्द्र बोस-netaajii-subhaass-cndr-bos-शहीद भगत सिंह-shhiid-bhgt-sinh-हिंदुत्ववादी टोली-hindutvvaadii-ttolii

एक अत्यधिक परेशान करने वाले घटनाक्रम में आरएसएस के जेबी छात्र संगठन, एबीवीपी ने दिल्ली यूनिवर्सिटी में 20 अगस्त 2019 की रात शहीद भगत सिंह और नेताजी की मूर्तियों को वीडी सावरकर की मूर्ति के साथ एक ही पीठिका पर रखकर अनावरण करने का दुस्साहस किया।

भगत सिंह और नेताजी जैसे महान स्वतंत्रता सेनानियों, जिन्होंने देश की आज़ादी के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर कर दिए, की मूर्तियों को सावरकर की मूर्ति के साथ प्रदर्शित करना भगत सिंह और नेताजी का सिर्फ़ अपमान ही नहीं, बल्कि उनकी एक बार फिर हत्या करना है।

देश और दुनिया अभी इस सच्चाई को भूली नहीं है कि भगत सिंह और नेताजी ने एक ऐसे आज़ाद समावेशी भारत के लिए जान दी जो प्रजातान्त्रिक-धर्मनिरपेक्ष होना था। एक ऐसा देश जहां धर्म-जाति का बोलबाला नहीं बल्कि समानता और न्याय फले-फूलेंगे। इन शहीदों ने 'इंक़लाब ज़िंदाबाद' और 'जय हिन्द' जैसे नारों की ललकार से गोराशाही के ख़िलाफ़ देश की जनता को लामबंद किया था।

भगत सिंह ने दूसरे इन्क़िलाबी साथियों के साथ मिलकर 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन' गठित की थी और सशस्त्र क्रांति द्वारा विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने की जद्दोजहद करते हुए अपनी जान क़ुर्बान की थी। नेताजी भी इस सच से भलीभाँति वाक़िफ़ थे कि अँगरेज़ शासक एक साम्राज्यवादी गिरोह है जिसके चुंगल से शांतिपूर्वक आंदोलन द्वारा मुक्ति संभव नहीं हो सकती। उन्होंने एक बड़ा जोखिम भरा क़दम उठाते हुए देश से 1940 में पलायन किया और विदेशों में रहकर आज़ाद हिन्द फ़ौज (INA) का पुनर्गठन किया और उस की कमान संभाली। इस सेना में सभी धर्मों और जातियों के लोग, पुरुष और महिलाएं, थे।  इसी में लड़ाई का नेतृत्व करते हुए वे आज के ताईवान क्षेत्र में एक जहाज़ दुर्घटना में 1945 में शहीद हो गए। इन दोनों ने गोरे शासकों के सामने कभी समर्पण नहीं किया, कभी माफ़ी नहीं माँगी और शहीद होने वाले दिन

तक विदेशी शासन के खिलाफ लोहा लेते रहे।

इन शहीदों के विपरीत हिंदुत्व टोली के 'वीर' सावरकर ने अपने राजनैतिक जीवन के प्रारंभिक सालों को छोड़ कर (जब उन्होंने 1857 पर नायब किताब लिखी) जब वे कालापानी जेल (सेलुलर जेल) में बंदी बनाये गए, तो उन्होंने देश में चल रही आज़ादी के लड़ाई से ग़द्दारी करते हुए खुल्ले-आम अँगरेज़ शासकों का दमन थाम लिया। वे अँगरेज़ हुक्मरानों की बांटो और राज करो नीति को लागू करने का एक बड़ा मोहरा बन गए। उन्होंने समावेशी भारत से नाता तोड़ कर हिन्दू अलगाववाद का रास्ता पकड़ लिया जिसे उन्होंने 'हिंदुत्व' का नाम दिया। वे दो राष्ट्र सिद्धांत के प्रवक्ता बन गए।

अंग्रेज़ों की जेल में क़ैद होने के बावजूद शासकों ने उनको साम्प्रदायिक विभाजन की राजनीती फैलाने की पूरी छूट दी। उन्होंने किस तरह अँगरेज़ शासकों की दलाली की उस का एक छोटा सा ब्यौरा समकालीन हिन्दू महासभा के दस्तावेज़ों पर आधारित निम्मनलिखित में पेश है।

'वीर' सावरकर ने अँगरेज़ शासकों की सेवा में 5 माफ़ीनामे पेश किए और 50 साल की कुल सज़ा में से 35+ साल की छूट पाई

'वीर' सावरकर 4 जुलाई 1911 से 2 मई 1921 तक सेलुलर जेल में बंदी थे।  9 साल 10 महीनों के इस काल में उन्होंने अँगरेज़ शासकों की सेवा में  5 पांच दया याचिकाएं 1911, 1913, 1914, 1918 और 1920 में पेश कीं। यह याचिकाएं किसी राजनैतिक क़ैदी की ओर से लिखी गए ऐसे प्रार्थना पत्र नहीं थे जो जेल क़ानून के तहत सुविधाओं की मांग करते हों बल्कि सीधे बिना शर्त के माफ़ीनामे थे जिन में इस 'वीर' ने अपने इन्किलाबी इतिहास के लिए माफ़ी माँगी थी और ज़ालिम अँगरेज़ , सरकार से वफादारी की घोषणा की थी। अभिलेखागारों में उपलब्ध इस के 2 नमूने यहाँ प्रस्तुत हैं।

1913 का माफ़ीनामा इन शर्मनाक शब्दों के साथ ख़त्म हुवा:

"इसलिए, सरकार अगर अपने विविध उपकारों और दया दिखाते हुए मुझे रिहा करती है तो मैं और कुछ नहीं हो सकता बल्कि मैं संवैधानिक प्रगति और अंग्रेज़ी सरकार के प्रति वफ़ादारी का, जो कि उस प्रगति के लिए पहली शर्त है, सबसे प्रबल पैरोकार बनूँगा…इसके अलावा, मेरे संवैधानिक रास्ते के पक्ष में मन परिवर्तन से भारत और यूरोप के वो सभी भटके हुए नौजवान जो मुझे अपना पथ प्रदर्शक मानते थे वापिस आ जाएंगे। सरकार, जिस हैसियत में चाहे मैं उसकी सेवा करने को तैयार हूँ, क्योंकि मेरा मत परिवर्तन अंतःकरण से है और मैं आशा करता हूँ कि आगे भी मेरा आचरण वैसा ही होगा। मुझे जेल में रखकर कुछ हासिल नहीं होगा बल्कि रिहा करने में उससे कहीं ज़्यादा हासिल होगा। ताक़तवर ही क्षमाशील होने का सामर्थ्य रखते हैं और इसलिए एक बिगड़ा हुआ बेटा सरकार के अभिभावकीय दरवाज़े के सिवा और कहाँ लौट सकता है? आशा करता हूँ कि मान्यवर इन बिन्दुओं पर कृपा करके विचार करेंगे।"

1920 का माफीनामा भी कुछ कम शर्मसार करने वाला नहीं था। इस का अंत इन शब्दों के साथ हुआ:

"...मुझे विश्वास है कि सरकार गौर करगी कि मैं तयशुदा उचित प्रतिबंधों को मानने के लिए तैयार हूं, सरकार द्वारा घोषित वर्तमान और भावी सुधारों से सहमत व प्रतिबद्ध हूं, उत्तर की ओर से तुर्क-अफगान कट्टरपंथियों का खतरा दोनों देशों के समक्ष समान रूप से उपस्थित है, इन परिस्थितियों ने मुझे ब्रिटिश सरकार का ईमानदार सहयोगी, वफादार और पक्षधर बना दिया है। इसलिए सरकार मुझे रिहा करती है तो मैं व्यक्तिगत रूप से कृतज्ञ रहूंगा। मेरा प्रारंभिक जीवन शानदार संभावनाओं से परिपूर्ण था, लेकिन मैंने अत्यधिक आवेश में आकर सब बरबाद कर दिया, मेरी जिंदगी का यह बेहद खेदजनक और पीड़ादायक दौर रहा है। मेरी रिहाई मेरे लिए नया जन्म होगा। सरकार की यह संवेदनशीलता दयालुता, मेरे दिल और भावनाओं को गहराई तक प्रभावित करेगी, मैं निजी तौर पर सदा के लिए आपका हो जाऊंगा, भविष्य में राजनीतिक तौर पर उपयोगी रहूंगा। अक्सर जहां ताकत नाकामयाब रहती है उदारता कामयाब हो जाती है।"

इन सच्चाईयों के मद्देनज़र एक माफ़ीख़ोर को भगत सिंह और नेताजी के बराबर जगह देना सिर्फ़ महान शहीदों का ही अपमान नहीं है, बल्कि आज़ादी की लड़ाई की गौरवशाली विरासत के साथ बलात्कार है। यह जघन्य अपराध केवल बेशर्म हिंदुत्ववादी टोली से जुड़े स्वयंसेवक ही कर सकते हैं!

आरएसएस के 'वीर' सावरकर ने किस तरह नेताजी की पीठ में छुरा घोंपा

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जब नेताजी देश की आज़ादी के लिए विदेशी समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे थे और अपनी आज़ाद हिंद फ़ौज़ को पूर्वोत्तर भारत में सैनिक अभियान के लिए लामबंद कर रहे थे, तभी सावरकर अंग्रेजों को पूर्ण सैनिक सहयोग की पेशकश कर रहे थे। 1941 में भागलपुर में हिंदू महासभा के 23वें अधिवेशन को संबोधित करते हुए सावरकर ने अंग्रेज शासकों के साथ सहयोग करने की अपनी नीति का इन शब्दों में ख़ुलासा किया -

"देश भर के हिंदू संगठनवादियों (अर्थात हिंदू महासभाइयों) को दूसरा सबसे महत्वपूर्ण और अति आवश्यक काम यह करना है कि हिंदुओं को हथियार बंद करने की योजना में अपनी पूरी ऊर्जा और कार्रवाइयों को लगा देना है। जो लड़ाई हमारी देश की सीमाओं तक आ पहुँची है वह एक ख़तरा भी है और एक मौक़ा भी।"

अंग्रेजों की मदद का आह्वान

सावरकर ने आगे कहा,

"इन दिनों का तकाजा है कि सैन्यीकरण आंदोलन को तेज़ किया जाए और हर गाँव-शहर में हिंदू महासभा की शाखाएँ हिंदुओं को थल सेना, वायु सेना और नौ सेना में और सैन्य सामान बनाने वाली फ़ैक्ट्रियों में भर्ती होने की प्रेरणा के काम में सक्रियता से जुड़ें।"

सावरकर ने अपने इस भाषण में किस शर्मनाक हद तक सुभाष चंद्र बोस के ख़िलाफ़ अंग्रेजों की मदद करने का आह्वान किया वह आगे लिखे इन शब्दों से बखू़बी स्पष्ट हो जाएगा। सावरकर ने कहा,

"जहाँ तक भारत की सुरक्षा का सवाल है, हिंदू समाज को भारत सरकार के युद्ध संबंधी प्रयासों में सहानुभूति पूर्ण सहयोग की भावना से बेहिचक जुड़ जाना चाहिए जब तक यह हिंदू हितों के फायदे में हो। हिंदुओं को बड़ी संख्या में थल सेना, नौसेना और वायुसेना में शामिल होना चाहिए और सभी आयुध, गोला-बारूद, और जंग का सामान बनाने वाले कारखानों वग़ैरह में प्रवेश करना चाहिए।"

सावरकर ने हिंदुओं का आह्वान किया कि हिंदू सैनिक हिंदू संगठनवाद की भावना से लाखों की संख्या में ब्रिटिश थल सेना, नौ सेना और हवाई सेना में भर जाएँ।

सावरकर ने हिंदुओं को बताया कि वे इस फौरी कार्यक्रम पर चलें और हिंदू संगठनवादी आदर्श का पूरा ध्यान रखते हुए युद्ध की परिस्थिति का पूरा लाभ उठाएँ।

सावरकर ने कहा, अगर हमने हिंदू नस्ल के सैन्यीकरण पर पूरा जोर दिया, तो हमारा हिंदू राष्ट्र निश्चित तौर पर ज़्यादा ताक़तवर, एकजुट और युद्ध के बाद उभरने वाले मुद्दों, चाहे वह हिंदू विरोधी गृहयुद्ध हो या संवैधानिक संकट या सशस्त्र क्रांति का सामना करना, फायदे वाली स्थिति में होगा। भागलपुर में अपने भाषण का समापन करते हुए सावरकर ने एक बार फिर हिंदुओं के अंग्रेज़ सरकार के युद्ध प्रयासों में शामिल होने पर जोर दिया।

जब सुभाष चंद्र बोस सैन्य संघर्ष के जरिए अंग्रेज़ी राज को उखाड़ फेंकने की रणनीति बना रहे थे तब ब्रिटिश युद्ध प्रयासों को सावरकर का पूर्ण समर्थन एक अच्छी तरह सोची-समझी हिंदुत्ववादी रणनीति का परिणाम था।

सावरकर का पुख़्ता विश्वास था कि ब्रिटिश साम्राज्य कभी नहीं हारेगा और सत्ता एवं शक्ति के पुजारी के रूप में सावरकर का साफ़ मत था कि अंग्रेज़ शासकों के साथ दोस्ती करने में ही उनकी हिंदुत्ववादी राजनीति का भविष्य निहित है।

मदुरै में उनका अध्यक्षीय भाषण ब्रिटिश साम्राज्यवादी चालों के प्रति पूर्ण समर्थन का ही जीवंत प्रमाण था। उन्होंने भारत को आज़ाद कराने के नेताजी के प्रयासों को पूरी तरह खारिज कर दिया। उन्होंने घोषणा की

"कि व्यावहारिक राजनीति के आधार पर हम हिंदू महासभा संगठन की ओर से मजबूर हैं कि वर्तमान परिस्थितियों में किसी सशस्त्र प्रतिरोध में ख़ुद को शरीक न करें।"

द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण जब ब्रिटिश सरकार ने सेना की नई टुकड़ियाँ भर्ती करने का निर्णय लिया तो सावरकर के प्रत्यक्ष नेतृत्व में हिंदू महासभा ने हिंदुओं को अंग्रेजों के इस भर्ती अभियान में भारी संख्या में जोड़ने का फ़ैसला लिया। मदुरा में हिंदू महासभा के अधिवेशन में सावरकर ने उपस्थित प्रतिनिधियों को बताया -

"स्वाभाविक है कि हिंदू महासभा ने व्यावहारिक राजनीति पर पैनी पकड़ होने की वजह से ब्रिटिश सरकार के समस्त युद्ध प्रयासों में इस ख्याल से भाग लेने का निर्णय किया है कि यह भारतीय सुरक्षा और भारत में नई सैनिक ताक़त को बनाने में सीधे तौर पर सहायक होंगे। ऐसा नहीं है कि सावरकर को इस बात की जानकारी नहीं थी कि अंग्रेजों के प्रति इस प्रकार के दोस्ताना रवैये के विरोध में आम भारतीयों में तेज़ आक्रोश भड़क रहा था।"

युद्ध प्रयासों में अंग्रेज़ों को सहयोग देने के हिंदू महासभा के फ़ैसले की आलोचनाओं को उन्होंने यह कहकर खारिज कर दिया कि इस मामले में अंग्रेजों का विरोध करना एक ऐसी राजनैतिक गलती है जो भारतीय लोग अकसर करते हैं।

सावरकर के मुताबिक़, भारतीय सोचते हैं कि सामान्य तौर पर चूँकि भारतीय हित ब्रिटिश हितों के ख़िलाफ़ हैं, इसलिए ब्रिटिश सरकार से हाथ मिलाने वाला कोई भी कदम अनिवार्यतः हथियार डालना, राष्ट्रद्रोह का काम होगा और अंग्रेज़ों के हाथ में खेलना जैसा होगा। सावरकर के अनुसार, भारतीय यह भी मानते हैं कि ब्रिटिश सरकार से किसी भी मामले और हर तरह की परिस्थितियों में सहयोग करना देशद्रोह और निंदनीय है।

एक ओर सुभाष चन्द्र बोस देश को आज़ाद कराने के लिए जर्मन व जापानी फ़ौज़ों की सहायता लेने की रणनीति पर काम कर रहे थे तो दूसरी ओर सावरकर अंग्रेज़ शासकों को उनके ख़िलाफ़ प्रत्यक्ष सैनिक समर्थन देने में व्यस्त थे।

ब्रिटिश सरकार को था खुला समर्थन

सावरकर और हिंदू महासभा ब्रिटिश सरकार के समर्थन में खुलकर मैदान में खड़े थे। यह वही सरकार थी जो आज़ाद हिंद फौज के बहादुर सैनिकों को मारने और उनका विनाश करने में जुटी थी। अंग्रेज़ शासकों की भारी प्रशंसा करते हुए सावरकर ने मदुरा में अपने अनुयायियों से कहा कि

"चूँकि जापान एशिया को यूरोपीय प्रभाव से मुक्त करने के लिए सेना के साथ आगे बढ़ रहा है, ऐसी स्थिति में ब्रिटिश सरकार को अपनी सेना में बड़ी संख्या में भारतीयों की जरूरत है और हिंदू महासभा को उसकी मदद करनी चाहिए।"

सावरकर ने अंग्रेजों की जमकर प्रशंसा करते हुए कहा कि हमेशा की तरह दूरदर्शितापूर्ण ब्रिटिश राजनीति ने पहले हो समझ लिया था कि जब भी जापान के साथ युद्ध छिड़ेगा, भारत ही युद्ध की तैयारियों का केंद्र बिंदु होगा...। संभावना यह है कि जापानी सेनाएँ जितनी तेज़ी से हमारी सीमाओं की ओर बढ़ेंगी, उतनी ही तेज़ी से (अंग्रेज़ों को) 20 लाख की सेना भारतीयों को ले कर, भारतीयों अधिकारियों के नेतृत्व में खड़ी करनी होगी।

लाखों हिंदुओं को सेना में कराया भर्ती

अगले कुछ वर्षों तक सावरकर ब्रिटिश सेनाओं के लिए भर्ती अभियान चलाने, शिविर लगाने में जुटे रहे, जो बाद में उत्तर-पूर्व में आज़ाद हिंद फ़ौज़ के बहादुर सिपाहियों को मौत की नींद सुलाने और क़ैद करने वाली थी।

हिंदू महासभा के मदुरा अधिवेशन में सावरकर ने प्रतिनिधियों को बताया कि पिछले एक साल में हिंदू महासभा की कोशिशों से लगभग एक लाख हिंदुओं को अंग्रेजों की सशस्त्र सेनाओं में भर्ती कराने में वे सफ़ल हुए हैं। इस अधिवेशन का समापन एक ‘फौरी कार्यक्रम' को अपनाने के प्रस्ताव के साथ हुआ जिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि ब्रिटिश “थल सेना, नौ सेना और वायु सेना में ज़्यादा से ज़्यादा हिंदू सैनिकों की भर्ती सुनिश्चित की जाए।

ब्रिटिश सशस्त्र सेनाओं में भर्ती होने वाले हिंदुओं को सावरकर ने जो निम्नलिखित निर्देश दिया, उसे पढ़कर उन लोगों को निश्चित ही शर्म से सिर झुका लेना चाहिए जो सावरकर को महान देशभक्त और स्वतंत्रता सेनानी बताते हैं।

सावरकर ने कहा,

"इस सिलसिले में अपने हित में एक बिंदु जितनी गहराई से संभव हो समझ लेना चाहिए कि जो हिंदू भारतीय (ब्रिटिश) सेनाओं में शामिल हैं, उन्हें पूर्ण रूप से आज्ञाकारी होना चाहिए और वहाँ के सैनिक अनुशासन और व्यवस्था का पालन करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए बशर्ते वह हिंदू अस्मिता को जान-बूझ कर चोट न पहुँचाती हों।"

आश्चर्य की बात यह है कि सावरकर को कभी यह महसूस नहीं हुआ कि ब्रिटिश सेना में भर्ती होना ही अपने आप में स्वाभिमानी और देशभक्त हिंदू ही नहीं किसी के लिए भी घोर शर्म की बात थी।

महासभा और महान युद्ध' का प्रस्ताव

दमनकारी अंग्रेज़ सरकार के साथ हिंदू महासभा द्वारा सैनिक सहयोग की खुलेआम वकालत करने वाला एक ‘महासभा और महान युद्ध' नामक प्रस्ताव सावरकर ने स्वयं तैयार किया। इस प्रस्ताव में कहा गया कि चूँकि भारत को सैनिक हमले से बचाना ब्रिटिश सरकार और हमारी साझा चिंता है और चूँकि दुर्भाग्य से हम इस स्थिति में नहीं हैं कि यह काम बिना सहायता के कर सकें, इसलिए भारत और इंग्लैंड के बीच खुले दिल से सहयोग की बहुत ज़्यादा गुंजाइश है।

सावरकर ने अपने 59वें जन्मदिन के आयोजनों को हिंदू महासभा के इस आह्वान को प्रचारित करने का माध्यम बनाया कि हिंदू बड़ी संख्या में ब्रिटिश सेनाओं में भर्ती हों।

युद्ध के संचालन के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा गठित उच्चस्तरीय युद्ध समितियों की बात करें तो यह सच्चाई किसी से छिपी नहीं थी कि वे सब सावरकर के संपर्क में थीं। इन समितियों में सावरकर द्वारा प्रस्तावित लोगों को भी शामिल किया गया था। यह ब्रिटिश सरकार के प्रति धन्यवाद ज्ञापन के लिए सावरकर द्वारा भेजे गए एक तार (टेलीग्राम) से भी स्पष्ट है। यह टेलीग्राम हिन्दू महासभा द्वारा प्रकाशित किताब में मौजूद है जिस की भूमिका में लिखा गया है

"बैरिस्टर वी. डी. सावरकर, अध्यक्ष हिंदू महासभा ने (1) कमांडर इन चीफ़ जनरल बावेल (2) भारत के वायसराय को, 18 जुलाई 1941 को यह तार भेजा:

"महामहिम द्वारा अपने कारिंदों की सदस्यता वाली रक्षा समिति की घोषणा का स्वागत है। इसमें सर्वश्री कालिकर और जमनादास मेहता की नियुक्ति पर हिंदू महासभा विशेष प्रसन्नता व्यक्त करती है।"

दिलचस्प बात यह है कि इस राष्ट्रीय स्तर की रक्षा समिति में मुसलिम लीग द्वारा स्वीकृत नाम भी शामिल थे। यहाँ इस सच्चाई को भी जानना ज़रूरी है कि जब हिंदू महासभा और मुसलिम लीग मिलकर अंग्रेजों को युद्ध में विजयी बनाने की जी तोड़ कोशिश कर रहे थे, उस समय कांग्रेस के नेतृत्व वाले स्वतंत्रता आंदोलन का नारा था कि साम्राज्यवादी युद्ध के लिए न एक भाई, न एक पाई (नॉट ए मैन, नॉट ए पाई फ़ॉर दि वॉर)। और इस नारे को बुलंद करते हुए हजारों हिंदुस्तानियों ने ब्रिटिश सरकार का भयंकर उत्पीड़न सहा था।

सावरकर और हिन्दू महासभा के अंग्रेज़ों के सैनिक समर्थन का एजेंडा केवल उनका नहीं था, इस में आरएसएस भी शामिल थी।

सावरकर के नेतृत्व वाली हिंदू महासभा द्वारा मुस्लिम लीग के साथ साझा सरकारें चलाना

राष्ट्रविरोधी हिंदुत्ववादी तत्व जो शहीद भगत सिंह और नेताजी को सावरकर के समान जगह दे रहे हैं, एक ऐसा ऐसा शर्मनाक काम कर रहे हैं जिस के लिए यह देश उन्हें कभी माफ़ नहीं करेगा।

जब भगत सिंह और नेताजी ज़ालिम अँगरेज़ सरकार और उस के मुस्लिम लीग जैसे पिट्ठुओं के खिलाफ जान की बाज़ी लगा रहे थे, तो हिंदुत्ववादी 'वीर' सावरकर के एकल नेतृत्व वाली हिन्दू महासभा मुस्लिम लीग के साथ मिलकर, जो देश को एक राष्ट्र नहीं मानती थी, साझा सरकारें चला रहे थे।

Shamsul Islam was Associate Professor, Department of Political Science, Satyawati College, University of Delhi. Shamsul Islam was Associate Professor, Department of Political Science, Satyawati College, University of Delhi.

यह शर्मनाक सच स्वयं सावरकर के शब्दों में सुनिए :

कानपुर में आयोजित हिंदू महासभा के 24वें अधिवेशन में अधियक्षय भाषण  देते हुए सावरकर ने मुस्लिम लीग को इस तरह साथ लेने का यूं बचाव कियाः

"हिंदू महासभा जानती है कि व्यावहारिक राजनीति में हमें तर्कसंगत समझौतों के साथ आगे बढ़ना चाहिए। हाल ही सिंध की सच्चाई को समझें, जहां निमंत्रण मिलने पर सिंध हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ मिल कर साझा सरकार चलाने की जिम्मेदारी ली। बंगाल का उदाहरण भी सब के सामने है। उद्दंड (मुस्लिम) लीगी जिन्हें कांग्रेस अपने तमाम आत्म समर्पणों के बावजूद खुश नहीं रख सकी, हिंदू महासभा के संपर्क में आने के बाद तर्कसंगत समझौतों और परस्पर सामाजिक व्यवहार को तैयार हो गए। श्री फजलुलहक की प्रीमियरशिप (मुख्यमंत्रित्व) तथा महासभा के निपुण सम्माननीय नेता डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में दोनों समुदायों के हित साधते हुए एक साल तक सफलतापूर्वक चली। इसके अलावा हमारे कामकाज से यह भी सिद्ध हो गया कि हिंदू महासभा ने राजनीतिक सत्ता केवल आमजन के हितार्थ प्राप्त की थी, न कि सत्ता के सुख पाने व लाभ बटोरने के लिए।" 

हिंदू महासभा व मुस्लिम लीग ने उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत में भी गठबंधन सरकार बनाई थी।

सावरकर और हिंदुत्ववादी टोली की इन समाज और राष्ट्र विरोधी करतूतों के बावजूद अगर आरएसएस से जुड़ा एक हिंदुत्ववादी संगठन भगत सिंह और नेताजी जैसे शहीदों के साथ एक माफ़ी-ख़ोर और अँगरेज़ तथा मुस्लिम लीग के हमजोली की मूर्ति लगा रहे हैं तो यह महान शहीदों की एक बार और हत्या के बरबार ही है।

शम्सुल इस्लाम

August 23, 2019.

 

'वीर' सावरकर की मुख्य माफ़ीनामों के सम्पूर्ण मूल पाठ के लिए देखें:

http://www.hastakshep.com/old%e0%a4%86%e0%a4%b0%e0%a4%8f%e0%a4%b8%e0%a4%8f%e0%a4%b8-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%ae%e0%a4%b9%e0%a4%be%e0%a4%aa%e0%a5%81%e0%a4%b0%e0%a5%81%e0%a4%b7-%e0%a4%b9%e0%a4%bf%e0%a4%a8%e0%a5%8d%e0%a4%a6/

 

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