रायपुर, 27 जनवरी। पुरानी कहानी है भाजपा राज की, जो कई समाचार पत्रों में छप चुकी है, कुछ मीडिया चैनलों में दिखाई जा चुकी है. लेकिन जब तक जीवन-संघर्ष है, कोई कहानी पुरानी नहीं होती. इसलिए फिर से वही कहानी फेसबुक मित्रों व नेट पाठकों के लिए. और हां, नवगठित कांग्रेस सरकार के लिए भी, जो नक्सलपीड़ितों से बात कर अपनी नक्सल नीति बनाना चाहती है. नीति बनाने में समय लगेगा, लेकिन संवेदनशीलता हो तो, मदद पहुंचाने में देर नहीं होनी चाहिए.
#फिर_वही_कहानी_याद_आई
यह कहानी है दो आत्मसमर्पित नक्सलियों Surrendered Naxals मासे उर्फ शबनम मंडावी Mase alis Shabnam Mandawi और नरेश कश्यप Naresh Kashyap की, जिन्होंने फरवरी 2016 में आत्मसमर्पण किया था. तब रमनसिंह के नेतृत्व में तत्कालीन भाजपा सरकार BJP government नक्सली पुनर्वास की नीतियों Naxalite rehabilitation policy के बारे में खूब ढिंढोरा पीट रही थी. दोनों ने भाजपाई जुमलेबाजी पर भरोसा कर लिया था. लेकिन आत्मसमर्पण के तीन साल बाद भी कोई सार्थक पुनर्वास उन्हें आज तक नहीं मिला है.
शबनम 24 साल की है, दंतेवाड़ा जिले के कटेकल्याण ब्लॉक के मथाडी गांव की माड़िया आदिवासी. वह नक्सलियों की एरिया कमेटी मेंबर थी और पांच लाख की ईनामी भी. अपने दलम में अन्य कामों के साथ वह डॉक्टरी का काम भी करती थी. नक्सलियों के बड़े नेता कोसा और गणपति की सुरक्षा का काम भी वह करती थी. अपने आत्मसमर्पण के बाद अब वह गांव वापस नहीं जा सकती और उसके पूरे परिवार को नक्सलियों के निशाने पर होने के कारण अबूझमाड़ के दुंगा गांव में विस्थापित होना पड़ा है. उस क्षेत्र में मोबाइल की भी पहुंच नहीं है, जिससे वह अपने परिवार का हाल-चाल भी पूछ पाए.
अक्टूबर 2016 में उसे गोपनीय सैनिक के पद पर "आगामी आदेश पर्यन्त अस्थायी रूप से" नियुक्त किया गया. इसके पहले उसे पुलिस ट्रेनिंग दी गई और हिन्दी-टाइपिंग भी
जून 2018 में उसे इस काम से "मौखिक" (!!?) रूप से निकाल दिया गया. इसका कोई कारण भी नहीं बताया गया और न ही लिखित में आदेश देने से विभाग इंकार कर रहा है. तब से शबनम केवल अपनी भूख मिटाने की लड़ाई लड़ रही है. पंदुम में उसकी बुआ रहती है, जो कुछ चावल पहुंचा देती है. राशन कार्ड है, लेकिन जगदलपुर में कोई राशन दुकानदार उसे राशन नहीं देता. कहता है कि गांव की दुकान से ही राशन मिलेगा. राशन दुकानों का डिजिटिलाइजेशन भी शबनम के लिए जुमलेबाजी ही बनकर रह गया है.
शबनम को आत्मसमर्पण किये तीन साल हो रहे हैं, लेकिन पांच लाख का ईनाम उसे अभी तक नहीं मिला है. अपनी अस्थायी नौकरी के लिए भी वह #आईजी_विवेकानंद_सिन्हा से लेकर #डीजी_डीएम_अवस्थी तक गुहार नक्कारखाने में तूती की आवाज ही साबित हुई है. अपने जिंदा रहने के संघर्ष में वह पिछले एक सप्ताह से फ़ोटो स्टेट करने वाली एक दुकान में काम कर रही है, लेकिन उसे यह नहीं मालूम कि उसे कितनी मजदूरी मिलेगी. शबनम सबसे विनती करती है कि कोई उसे उसकी नौकरी फिर से वापस दिला दें.
लगभग यही कहानी नरेश कश्यप की है, जो सुकमा जिले के सौतनार पंचायत के कुमाकोलेंग गांव का रहने वाला है. (यह वही गांव है, जहां नंदिनी सुंदर और अर्चना प्रसाद के साथ मेरे भ्रमण के बाद हंगामा हुआ था और बाद में कल्लूरी की कृपा से हम लोगों पर सामनाथ बघेल की हत्या के आरोप में फर्जी एफआइआर दर्ज की गई है.) 5वीं तक पढ़ा 36 साल का यह नौजवान प्लाटून कमांडर था और उस पर एक लाख का ईनाम था. 2007 से वह नक्सलियों के साथ उनकी गतिविधियों में शामिल था. आत्मसमर्पण के बाद उसे तीन महीने भवन बनाने का प्रशिक्षण दिया गया और अक्टूबर 2016 में गोपनीय सैनिक के रूप में 12000 रुपये मासिक वेतन पर रखा गया था. उसे भी जून 2018 में काम से मौखिक रूप से निकाल दिया गया और अब वह भवन निर्माण के काम में मजदूरी कर रहा है. इस अनियमित काम से उसे 200 रुपये मजदूरी मिलती है. उसके दो छोटे-छोटे बच्चे हैं, जिनके पेट भरने की समस्या से वह जूझ रहा है.
नरेश बताता है कि उससे भी हाट-बाजार-मेलों में पहुंचे नक्सलियों को पहचाने का काम लिया जाता था. सर्चिंग में वह फ़ोर्स के साथ आगे-आगे चलता था. उसे पुलिस के लोग गोपनीय सूचना लाने के लिए कहते हैं. नरेश कहता है कि जगदलपुर में रहते उसके लिए यह मुमकिन नहीं हैं और गांव में जाकर वह रह नहीं सकता.
पुनर्वास के नाम पर उन्हें 100 वर्ग फुट का एक कमरा दिया गया है. जगदलपुर के एक खंडहर और बंद हो चुके एक स्कूल में 7-8 परिवार एक-एक कमरे में भेड़-बकरियों की तरह रहते हैं. न उन्हें नौकरी मिली, न घोषित ईनाम की राशि, जिससे वे अपनी जिंदगी की गाड़ी को आगे खींच सके.
मैंने उनकी दास्तान सुनकर साहस करके पूछा, पहले और अब की जिंदगी में क्या अंतर पाते हो? शून्य में ताकते हुए, एक निर्विकार चेहरे के साथ शबनम का जवाब था -- " (नक्सलियों के साथ वाली) वो जिंदगी ही अच्छी थी. यहां तो कोई पूछता भी नहीं कि हम कैसे जिंदा हैं!"
शबनम और नरेश की कहानी से भाजपा सरकार के कथित पुनर्वास नीति की पोल खुल जाती है. यह ऐसी नीति थी, जिसमें आदिवासियों के अधिकारों के लिए कोई जगह नहीं थी. यह ऐसी नीति थी, जिसमें आदिवादियों के गांवों को जलाने और उनकी बहू-बेटियों की इज्जत लूटने और निर्दोष नौजवानों को फर्जी एनकाउंटर में मारने की इजाजत थी. इस नीति को अमली जामा पहनाने वाले कल्लूरी को पतली गली से निकालकर राजमार्ग में प्रतिष्ठित किया जा चुका है. ऐसा करते इस सरकार ने भी नहीं सोचा कि नक्सल पीड़ितों के साथ बातचीत कर ली जाए.
बहरहाल, पुनर्वास नीति का कोई अस्तित्व नहीं है. नक्सलवाद से निपटने के नाम पर आए बेहिसाबी पैसों का उपयोग पत्रकारों को खरीदने के लिए किया गया था. जिस 'अग्नि' को कल्लूरी ने जन्म दिया था, उसका चोला बदल गया है और संघी गिरोह से वह अब कांग्रेसी बन गया है. नक्सलियों को कुचलने के नाम पर ठेकेदारी करने वालों के न कभी बुरे दिन थे, न कभी आएंगे. अच्छे दिनों का इंतज़ार तो आदिवासियों को करना है, शायद एक लंबे समय तक. इस मोर्चे पर इस सरकार से भी कोई आशा नहीं की जानी चाहिए.
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Surrendered Naxals Mase alis Shabnam Mandawi and Naresh Kashyap