Hastakshep.com-देश-Bharatiya Janata Party-bharatiya-janata-party-Lok Sabha Elections 2019-lok-sabha-elections-2019-Who Killed Karkare-who-killed-karkare-भारतीय जनता पार्टी-bhaartiiy-jntaa-paarttii-लोकसभा चुनाव 2019-loksbhaa-cunaav-2019-हू किल्ड करकरे-huu-kildd-krkre

कबीर दास ने बहुत पहले ही साधु और जोगियों को मिलने वाले सम्मान और श्रद्धा के लालच में साधुओं का बाना पहिन लेने वालों में से कतिपय लोगों के प्रति सावधान करते हुए कहा था-

मन न रंगायो, रंगायो जोगी कपड़ा

भक्तिकाल के ही दूसरे बड़े कवि पंडित गोस्वामी तुलसीदास ने भी ऐसी ही प्रवृत्ति के लिए लिखा है-

जे बरनाध तेली कुम्हारा. स्वपच किरात कोल कलवारा.

नारी मुई गृह सम्पति नासी. मूड मुडाई होही सन्यासी.

उत्तर भारत के हिन्दीभाषी लोगों के लिए कभी सामाजिक संविधान की तरह से जीवन के आदर्श बताने वाली रामकथा में भी रावण जब सीताहरण के लिए आया था तो उसने साधु का भेष धारण किया था क्योंकि इस भेष के आधार पर ही किसी भी धर्मभीरु के मन में श्रद्धा का भाव पैदा हो जाता है। इसी भेष की ओट में जो धोखे मिले होंगे इसी से ‘मुँह में राम बगल में छुरी’ ‘रामनाम जपना, पराया माल अपना’ या ‘बगुला भगत’ जैसे मुहावरों का जन्म हुआ होगा। यही कारण रहा होगा जब सलाह दी गयी होगी कि ‘गुरु कीजे जान कर, और इसकी तुक पानी पीजे छान कर से मिलायी गयी होगी।

उर्दू के शायरों ने तो धर्म उपदेशकों के उपदेशों और आचरणों में भेद पर खूब लिखा है।

किसी समय जो काम धन धान्य आदि हड़पने के लिए किया गया होगा वही काम चुनावी लोकतंत्र में वोट हड़पने के लिए किया जाने लगा।

वैसे तो किसी सच्चे संत का संसद में पहुँचना देश, समाज, मानवता और राजनीति के लिए सबसे अच्छी बात हो सकती है, किंतु चुनावों में पराजय के भय से ग्रस्त दलों ने साधु भेषधारियों को चुनाव में उतार कर लोगों की श्रद्धा को ठग

कर वोट झटकने के प्रयास किये हैं। ऐसे ही सहारों से 1984 के आम चुनावों में दो सीट तक सिमिट जाने वाली भाजपा क्रमशः दो से 275 की संख्या तक पहुँच गयी।

भले ही कभी कभी एक दो सच्चे संत भी संसद तक पहुँचते रहे पर बहुत सारे ऐसे भी पहुँचे जो केवल भेषभूषा से भ्रमित कर के ही पहुँचे। ये नकली संत अपनी अभद्र भाषा व कदाचरण के कारण अपने असली रूप में पहचाने भी जाते रहे, व कानूनी शिकंजे में भी कसे जाते रहे। काले धन को सफेद करने और सांसद निधि का सौदा करते कैमरे में कैद हुये।

देश के नागरिकों को हिन्दू और गैरहिन्दुओं की तरह बांट कर देखने वाले संगठन को पाकिस्तान बनने से बहुत मदद मिली। धर्म निरपेक्ष भारत में बसने वाले मुस्लिमों के प्रति नफरत फैलाना आसान हो गया। उनकी सोच रही कि जितना ध्रुवीकरण तेज होगा उतने अधिक बहुसंख्यक वोट उन्हें मिल सकेंगे। इसलिए उनकी कोशिश हिन्दू मुस्लिम विभाजन के नये नये मुद्दे तलाशने की रही है, इसीलिए साम्प्रदायिकता फैलाने के मामले में बहुसंख्यक समुदाय हमेशा निशाने पर रहा।

अयोध्या में रामजन्मभूमि अभियान से पैदा हुयी साम्प्रदायिकता की सफलता के बाद तो काशी और मथुरा ही नहीं अपितु साढे तीन सौ से अधिक विवादास्पद स्थानों की सूची उन्होंने तैयार रखी है, जिसका इस्तेमाल उचित समय पर करने की उनकी तैयारी है।

भाजपा जिसका पूर्व नाम जनसंघ था, ने येन केन प्रकारेण सत्ता प्राप्त करने के लिए जो जो उपाय किये उनमें हर तरह की संविद सरकारों के सिद्धांतहीन गठबन्धनों में बेहिचक शामिल होना, दलबदल का सहारा लेना, लोकप्रिय

इस बार भी उनका यही प्रयास रहा किंतु करकरे के प्रति सुश्री प्रज्ञा ठाकुर की कड़वाहट ने प्रथम ग्रासे मक्षिकापात की स्थिति ला दी है। एक दिन बाद ऊपर से संकेत पाकर उन्होंने क्षमा मांग ली, और दिन भर हतप्रभ रहे भाजपा प्रवक्ताओं ने जोर शोर से घटना का पटाक्षेप घोषित कर दिया, जबकि सच यह है कि इसके साथ ही विचार मंथन का क्रम समाप्त नहीं प्रारम्भ हुआ है।

विकास और नई आर्थिक नीतियों के नये नये नारों के बीच जोगिया बाने वाली एक और महिला को लाकर वे बेरोजगारी से परेशान युवाओं को क्या सन्देश देना चाहते हैं?

करकरे जैसे समर्पित पुलिस अधिकारी की शहादत के अपमान ने देश के समस्त ईमानदार पुलिस और सुरक्षा अधिकारियों को सचेत किया है। ऐसी उम्मीदवारियों का सहारा लेने से पता चलता है कि भाजपा जीत के प्रति कितनी सशंकित है? इससे यह भी पता चलता है कि भक्तों की भरमार तो हो रही है किंतु राजनीतिक नेतृत्व का कितना सूखा है।

Virendra Jain वीरेन्द्र जैन, लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार व स्तंभकार हैं।
वीरेन्द्र जैन, लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार व स्तंभकार हैं।

सब अचम्भित होते हुए भी सवाल नहीं उठा पा रहे हैं जबकि उक्त प्रत्याशी ने प्रदेश के एक लोकप्रिय भाजपाई मुख्यमंत्री को ही नियमों का पालन करने पर कितना भलाबुरा कहा था। यदि कोई पीड़ित या गलत ढंग से प्रताड़ित है तो उसे न्याय मिलना चाहिए न कि उसे मोहरा बनाना चाहिए! चुनाव परिणाम तो बहुत सारी बातों पर निर्भर करते हैं, पर चुनावी पराजय की दशा में भी क्या पीड़ित को न्याय नहीं मिलना चाहिए? इसलिए इसे चुनाव से जोड़ना ठीक नहीं है।

दूसरा सवाल सम्बन्धित घटनाओं के असली दोषियों की तलाश का भी है? आखिरकार यह बार बार ‘नो वन किल्ड जेसिका’ (No One Killed Jessica) क्यों दुहराया जाना चाहिए। निर्दोषों को प्रताड़ित करने वाली जाँच एजेंसियां भी सन्देह के घेरे में आती हैं कि अगर वे ऐसा करती हैं तो क्यों करती हैं, और क्यों वे सबूत नहीं जुटा पाती हैं। उनके ही गवाह क्यों पलट जाते हैं। ये बहुत से सवालों के शुरू करने का समय है, उन्हें ठंडे बस्ते में डालने का नहीं है।

वीरेन्द्र जैन

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