1 'कोई भूल नहीं सकता है। 5 साल पहले यूपी को लेकर क्या चर्चा होती थी? 5 साल पहले दबंग और दंगाई ही कानून थे। उन्हीं का कहा ही शासन का आदेश था। 5 साल पहले व्यापारी लुटता था। बेटी घर से बाहर निकलने में घबराती थी और माफिया सरकारी संरक्षण में खुलेआम घूमते थे। पश्चिम उत्तर प्रदेश के लोग कभी यह भूल नहीं सकते कि जब यह क्षेत्र दंगे की आग में जल रहा था तो पहले वाली सरकार उत्सव मना रही थी, उत्सव। पांच साल पहले गरीब, दलित, पिछड़े, वंचितों के घर, जमीन, दूकान पर अवैध कब्जा ये समाजवाद का प्रतीक था। लोगों के पलायन की आये दिन खबर आती थी। अपहरण, फिरौती, रंगदारी ने मध्य वर्ग को, व्यापारियों को तबाह करके रख दिया।'
2. 'मैं मुजफ्फरनगर से सहारनपुर तक के लोगों से पूछना चाहता हूं कि आप सब दंगों को भूल गए हैं क्या? अगर नहीं तो वोट देने में गलती मत करना, नहीं तो मुजफ्फरनगर फिर से जल उठेगा। अगर वोट देने में गलती हुई तो दंगे करवाने वाले फिर से लखनऊ में बैठ जायेंगे।'
3. 'ये जो गर्मी अभी कैराना और मुजफ्फरनगर में दिखाई दे रही है न यह सब शांत हो जायेगी। क्योंकि गर्मी कैसे शांत होगी- यह तो मई और जून में भी शिमला बना देता हूं'।
किसी बाहरी देश के या फिर हमारी राजनैतिक फिजां से पूरी तरह अनजान व्यक्ति को अगर बतलाया जाये कि इनमें से पहली भाषा एक ऐसे व्यक्ति की है जिसने बेहद गरीबी में अपना जीवन काटा है। उसे अपने निर्धन परिवार की मदद करने के लिए बहुत कच्ची उम्र में एक छोटे से रेलवे स्टेशन पर चाय बेचनी पड़ी थी। उसकी जिंदगी का संघर्ष
दूसरी भाषा ऐसे व्यक्ति की है जिसका काम देश में कानून-व्यवस्था को बनाये रखना एवं हिंसा को रोकना है। यह उसका नैतिक कर्तव्य है, संवैधानिक उत्तरदायित्व भी। दुर्भाग्य कि उसकी भाषा कुछ ऐसी लगती है मानो कोई हिंसक व्यक्ति बोल रहा हो- हमारे गृहमंत्री अमित शाह।
तीसरी भाषा एक संन्यासी की है। सांसारिक मोह-माया तो वे कभी का त्याग चुके, लेकिन रामराज्य स्थापना की अदम्य इच्छा उन्हें सिंहासन तक ले आई। वे ऐसे मठ के अधिपति हैं जिसकी संयम, त्याग एवं जग से निर्लिप्तता की प्रदीर्घ परम्परा है।
तीनों ही महानुभावों की भाषा, मुहावरे और तेवर चाहे अलग हों, लेकिन सभी का सम्बन्ध भारतीय जनता पार्टी से है और उनके उपरोक्त वाक्य उत्तर प्रदेश में होने जा रहे विधानसभा चुनावों की सार्वजनिक सभाओं में दिये गए भाषणों के अंश हैं। इन एक-दो समान्तरताओं के अलावा कई मायनों में सभी में कुछ तत्व एक से हैं। मसलन, सभी का प्रयोजन विरोधियों को एकदम निचले दर्जे का साबित कर येन केन प्रकारेण अपनी सत्ता को बरकरार रखना है। तीनों ही इन तथ्यों को पेश करते हुए यह नहीं बतलाते कि पांच साल तक प्रदेश में एवं पौने आठ वर्षों से केन्द्र में उनकी सरकारें होने के बाद भी कथित अपराधी अब भी बाहर कैसे हैं?
नैतिकता के नाते वे (मोदी-शाह-योगी) यह क्यों नहीं बतलाते कि उनकी पार्टी ने लगभग 100 ऐसे उम्मीदवार क्यों उतारे हैं जिनकी आपराधिक पृष्ठभूमि है?
इतना ही नहीं, किसलिए राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी- नेशनल क्राईम रिकॉर्ड्स ब्यूरो) की सितम्बर, 2021 की रिपोर्ट (national crime records bureau report 2021) में हत्या, बलात्कार, महिला उत्पीड़न आदि के मामलों में यह सूबा क्योंकर काफी ऊपर है?
विपक्ष पर आरोप लगाने के पहले भाजपा को यह भी स्पष्ट करना चाहिये कि प्रचार रैलियों में नेताओं द्वारा जो कहा जा रहा है वह सत्य है या फिर भारत सरकार की प्रकाशित एनसीआरबी की रिपोर्ट?
हाल के वर्षों में वयस्क हुए या सत्ता को ही सब कुछ समझने वाले मतदाता तो इसे हजम कर जायेंगे लेकिन जिन लोगों ने हमारे पूर्व प्रधानमंत्रियों एवं बड़े नेताओं के चुनावी भाषणों को सुना हो या उन्हें देख पाये हों, उनके लिए यह बेहद निराशा का काल है।
याद कीजिये प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को, जो कहते थे- 'मैंने ईमानदारी से काम करने की कोशिश की है। सम्भवत: मुझसे कुछ गलतियां भी हुई होंगी। अगर आपको लगता है कि मैंने काम किया है तो मुझे वोट देना और अगर लगता है कि मैंने काम नहीं किया है तो मुझे वोट मत देना!'
सारे पूर्व प्रधानमंत्रियों, सत्ताधारी मंत्रियों, नेताओं आदि ने चुनावी रैलियों में अपनी-अपनी पार्टियों एवं अपने प्रत्याशियों का भरपूर प्रचार किया लेकिन तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने या असत्य कथन से वे हमेशा बचते रहे। इसका कारण यह नहीं था कि उनमें खुद के चुनाव जीतने, अपनी पार्टी या प्रत्याशियों को जिताने की लालसा नहीं थी। दरअसल वे अपने संवैधानिक उत्तरदायित्वों के प्रति सतर्क थे। साथ ही देश एवं समग्र लोकतंत्र को वे पार्टी हितों से बढ़कर वरीयता व महत्व देते थे। चुनाव जीतने या हारने दोनों ही स्थितियों में वे राजनैतिक-सामाजिक सौहार्द्र को बनाये रखने के हिमायती थे।
आपातकाल के बाद 1977 के चुनावों में भी विपक्षी दलों ने परास्त कांग्रेस एवं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का सम्मान व गरिमा बनाये रखी। इसका सकारात्मक प्रत्युत्तर भी मध्यावधि चुनावों में जीतकर लौटीं इंदिरा ने दिया। न दोबारा आपातकाल लादा न ही प्रतिपक्षी नेताओं को प्रताड़ित किया। एक-दूसरे हारते या हराते हुए भी राजीव गांधी, वीपी सिंह, नरसिम्हा राव, चन्द्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह ने परस्पर सौहार्द्रता व सम्मान की गौरवशाली लोकतांत्रिक परम्परा को बचाये रखा। 2014 में यह रिवाज टूट गया। इसने भारत के लोकतंत्र के मर्म पर गम्भीर घाव किया है जो सतत बड़ा होता जा रहा है।
लोकतंत्र केवल शासन प्रणाली ही नहीं बल्कि जीवन शैली भी है। शासन एवं राजनीति में संलग्न लोगों की इस परिपाटी को बनाये रखने की जिम्मेदारी सर्वाधिक होती है। सौहार्द्रता एवं समन्वयपूर्ण वातावरण के निर्माण की शुरुआत शालीन एवं संयमित भाषा से ही होती है। व्यवहार की बारी तो बाद में आती है। अगर लोकतंत्र में हमें लम्बे जीना है और इस व्यवस्था को बनाये रखना है, तो विधायिकाओं में बैठने या वहां तक पहुंचने के इच्छुक हमारे जनप्रततिनिधियों को अपनी भाषावली सुधारनी होगी। अपने पसंदीदा दल के नेताओं द्वारा ऐसे तेजाबी वाक्यों का प्रयोग अगर हमें मुदित करता है, तो माफ करें, हम लोकतंत्रिक प्रणाली के लायक अभी पर्याप्त विकसित नहीं हुए हैं।
सम्भव है कि हम किसी उच्चादर्श राज्य की अवधारणा में यकीन करते हों और उस स्थिति को पाने में प्रयासरत हों, तो भी दुनिया का कोई भी समाज या राष्ट्र ऐसे शब्द-चयन पर न तो यकीन कर सकता है और न ही उसका कायल हो सकता है जो समाज में नफरत एवं हिंसा को बढ़ावा दे।
हर चुनाव में हम नये-नये मानदंड स्थापित कर रहे हैं- बदजुबानी के मामले में। जहर बुझी ऐसी भाषावली हम लगातार विकसित कर रहे हैं जो न केवल नफरत में लगातार इजाफा कर रही है बल्कि पूरे समाज में हिंसा के उत्प्रेरक के रूप में कार्य कर रही है।
डॉ. दीपक पाचपोर
(लेखक 'देशबन्धु' के राजनीतिक सम्पादक हैं)