इरफान इंजीनियर
‘मोदी सरकार के तीन साल के कार्यकाल में मुसलमानों का राजनीतिक प्रतिनिधित्व कम हुआ है, उनमें असुरक्षा के भाव में वृद्धि हुई है, समुदाय के दानवीकरण का सिलसिला आगे बढ़ा है और मुसलमानों के आर्थिक हाशिएकरण में वृद्धि हुई है। और यह सब कुछ, सरकार के ‘सब का साथ, सब का विकास‘ के नारे के बावजूद हुआ है।
वर्तमान (16वीं) लोकसभा में मुसलमानों की संख्या केवल 23 है। अब तक की किसी भी लोकसभा में मुसलमान सदस्यों की संख्या इतनी कम नहीं रही है। लोकसभा में केवल 23 मुसलमान सदस्य हैं, जो कि सदन की कुल सदस्य संख्या का चार प्रतिशत हैं, जबकि देश की आबादी
में केवल 20 मुस्लिम सदस्य हैं, जिनमें से मात्र दो भाजपा के हैं। केन्द्रीय मंत्रिमंडल में कैबिनेट दर्जे का एक भी मुसलमान नहीं है। केवल दो मुसलमान राज्य मंत्री हैं-एमजे अकबर (विदेश) व मुख्तार अब्बास नकवी (अल्पसंख्यक मामले)।
उत्तरप्रदेश के हालिया विधानसभा चुनाव में भाजपा ने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा नहीं किया। भाजपा ने 403 में से 325 विधानसभा सीटें जीत लीं। केवल 24 मुसलमान (5.9 प्रतिशत) उत्तरप्रदेश विधानसभा के लिए चुने गए, यद्यपि राज्य की आबादी में उनका प्रतिशत 19.1 है। असम सहित अन्य राज्यों में भी, जहां विधानसभा चुनाव हुए थे, मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कम हुआ है।
प्रजातंत्र की उन महत्वपूर्ण संस्थाओं, जो कानून बनाती हैं, नीतियों को आकार देती हैं और देश के लोगों के भविष्य का निर्धारण करती हैं, में मुसलमानों के पर्याप्त प्रतिनिधित्व की कमी से देश, उस परिप्रेक्ष्य व ज्ञान से वंचित रह जाता है, जो इस समुदाय के सदस्यों को है।
भारत के लोग अक्सर अपने दैनिक जीवन की समस्याओं, जिनमें आधारभूत सुविधाओं (प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, आंगनबाड़ियां, सड़कें, सीवेज लाईनें आदि शामिल हैं) व कल्याण योजनाओं तक पहुंच, आवश्यक दस्तावेज (उदाहरणार्थ बीपीएल कार्ड), बैंकों से कर्ज़, सरकारी ठेके, लायसेंस, शैक्षणिक संस्थाओं में भर्ती इत्यादि से जुड़ी समस्याएं शामिल हैं, का
शासन तंत्र में कम प्रतिनिधित्व का अर्थ होता है सरकारी योजनाओं से लाभ पाने की कम संभावना और इसके चलते होने वाला आर्थिक हाशियाकरण। यही कारण है कि अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकांश सदस्य, स्वयं को आर्थिक दृ़ष्टि से पहले की तुलना में कमज़ोर पा रहे हैं।
मुस्लिम समुदाय का एक बड़ा तबका दलित व ओबीसी है। वे सड़कों पर सामान बेचते हैं, नाई हैं, धोबी हैं, बुनकर हैं, गलीचा व ज़री उद्योग में श्रमिक हैं या चूड़ी, पीतल उद्योग आदि में काम करते हैं। मुसलमानों का एक बहुत छोटा सा तबका छोटे-मोटे उद्योग चलाता है या मध्यम वर्ग का है। यह हो सकता है कि मुस्लिम उद्यमियों का एक बहुत छोटा सा तबका प्रधानमंत्री मोदी के सत्ता में आने के बाद से, देश के सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि से लाभांवित हुआ हो, परंतु मुस्लिम शिल्पकार, बाल श्रमिक और साफ-सफाई का काम करने वाले मुस्लिम दलित, फेरी लगाने वाले गरीब मुसलमानों आदि को इससे कोई लाभ नहीं हुआ है। उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व में कमी आने से सरकारी योजनाओं का लाभ उठाने की उनकी क्षमता घटी है।
बढ़ता हाशियाकरण
सच्चर समिति की रपट बताती है कि मुसलमानों की उच्च शैक्षणिक संस्थानों में उपस्थिति मात्र चार प्रतिशत है। अफसरशाही और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में उनका प्रतिशत मात्र दो है। सरकारी कल्याण योजनाओं का लाभ उठाने वालों में मुसलमानों का प्रतिशत, आबादी में उनके अनुपात से बहुत कम है। इसका एक कारण तो यह है कि सरकारी तंत्र में संवेदनशीलता की कमी है और वह अपने विवेकाधिकार का इस्तेमाल, ऩिष्पक्षता से नहीं करता। नतीजे में समाज के सभी वर्गों को सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता। इस समस्या के हल के लिए यूपीए सरकार ने अल्पसंख्यकों के लिए कोटे का निर्धारण किया था। जैसा कि अपेक्षित था, इस व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया है। योगी आदित्यनाथ ने मुसलमानों के लिए कुछ कल्याण योजनाओं में 20 प्रतिशत के कोटे को समाप्त कर दिया है। यह नौकरशाही के लिए एक इशारा है कि वह अल्पसंख्यकों के दावों और अधिकारों को नज़रअंदाज़ करे।
अल्पसंख्यकों की कल्याण योजनाओं के लिए बजट आबंटन में बहुत मामूली वृद्धि की गई है और मुद्रास्फीति के कारण यह आबंटन, असली अर्थों में, पहले से घट गया है। सन 2015-16 के बजट में अल्पसंख्यकों की कल्याण योजनाओं के लिए धनराशि में केवल रूपए चार करोड़ की वृद्धि की गई थी। पुनरीक्षित बजट में सरकार ने आबंटन की राशि में 569 करोड़ की कमी कर दी। इसका मुसलमान विद्यार्थियों के लिए वज़ीफों की योजनाओं और एमएसडीपी जैसी अन्य योजनाओं पर असर पड़ा। सन 2015-16 में अल्पसंख्यक कल्याण योजनाओं के लिए रूपए 3,738 करोड़ का प्रावधान किया गया था। सन 2014-15 के पुनरीक्षित अनुमान में यह आबंटन घटकर रू. 3,165 करोड़ रह गया जबकि इसके लिए मूल आबंटन 3,734 करोड़ था। अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री नज़मा हेपतुल्ला का ध्यान पारसी समुदाय की प्रजनन दर बढ़ाने की ओर अधिक था, सामाजिक और शैक्षणिक दृ़ष्टि से पिछड़े अल्पसंख्यकों के जीवीकोपार्जन व शिक्षा से जुड़े मुद्दों पर कम।
बढ़ता दानवीकरण
मुसलमानों के राजनैतिक प्रतिनिधित्व में कमी का एक कारण, संघ परिवार द्वारा उनका दानवीकरण है। संघ परिवार, मुसलमानो को देशद्रोही और पाकिस्तान के प्रति वफादार व आतंकवादी बताता है। यह भी कहा जाता है कि इस्लाम ‘विदेशी‘ धर्म है और इस्लामिक पहचान व मुस्लिम पारिवारिक कानून, देश को विभाजित करते हैं। मुसलमान उस गाय को खाते हैं जिसे हिन्दू पवित्र मानते हैं। यह आरोप भी लगाया जाता है कि मुसलमानों में बहुपत्नि प्रथा आम है और उनकी आबादी में खरगोशों की तरह तेजी से वृद्धि हो रही है और यह भी कि हिन्दू, जल्दी ही ‘अपने ही देश में‘ अल्पसंख्यक रह जाएंगे।
हिन्दू राष्ट्रवादी मानसिकता का देश में प्रभाव तेजी से बढ़ा है और निम्न मध्यम वर्ग के शहरी युवक और ग्रामीण श्रेष्ठि वर्ग इससे बहुत प्रभावित हो गया है। सत्ताधारी दल के सांसद और मंत्री भी ऐसे वक्तव्य दे रहे हैं जो भारतीय दण्ड संहिता की धारा 153ए के तहत दंडनीय अपराध है। इनमें शामिल हैं गिरीराज सिंह, साक्षी महाराज, योगी आदित्यनाथ, साध्वी प्राची व अन्य। इस प्रकार के जो वक्तव्य चर्चा में रहे हैं, उनमें शामिल हैं, मुसलमानों को हरामजादा बताना, मदरसों को आतंकवाद के अड्डे निरूपित करना और हिन्दू महिलाओं से यह अपील करना कि वे कम से कम चार बच्चे पैदा कर मुसलमानों के उनकी आबादी को बढाने के षड़यंत्र को विफल कर दें।
यह भी कहा गया कि जो लोग मोदी को वोट नहीं देते (अर्थात मुसलमान), उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए। मुसलमानों के दानवीकरण का यह सिलसिला इतनी तेजी से चल रहा है कि लोग अब इस संबंध में दिए जाने वाले वक्तव्यों की पुष्टि करना तक जरूरी नहीं समझते।
घर वापसी का अभियान ठीक उस समय चलाया जा रहा था जब आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने गैर-हिन्दुओं को हिन्दू धर्म में परिवर्तित करने की मुहिम को अत्यंत घृणास्पद शब्दों में वाजिब ठहराया था। उन्होंने आगरा में कहा कि ‘‘हमारा माल वापस कर दो‘‘ (अर्थात, उन मुसलमानों को फिर से हिन्दू बनाओ जिन्होंने कि पीढ़ियों या सदियों पहले इस्लाम अपना लिया था)। क्या भागवत यह मानते हैं कि मुसलमान कोई संपत्ति हैं? स्वयं केन्द्रीय गृहमंत्री धर्मांतरण विरोधी अध्यादेश की मांग करते हैं। वे यह नहीं कहते कि लोगों को धोखाधड़ी, जबरदस्ती या लालच देकर मुसलमान से हिन्दू बनाने वालों के खिलाफ कार्यवाही की जाएगी। गत 23 अप्रैल को 19 मुसलमानों को हिन्दू बनाया गया और 20 मई को 24 अन्य को। धर्मपरिवर्तन के ये दोनों कार्यक्रम फैजाबाद के एक मंदिर में आयोजित किए गए, जबकि सुरेन्द्र कुमार नामक एक आरएसएस कार्यकर्ता, जोकि अंबेडकरनगर जिले का रहने वाला था और जो इस आयोजन का मुख्य कर्ताधर्ता था, के अनुसार सभी धर्मपरिवर्तित व्यक्ति अंबेडकरनगर के थे (स्क्राल.इन, 2017)।
सुरेन्द्र कुमार ने कहा ‘‘मैं कई सालों से उन्हें राजी करने का प्रयास कर रहा था परंतु योगीजी के मुख्यमंत्री बनने के बाद यह आसान हो गया क्योंकि मैं उन्हें यह समझा सका कि यदि उन्हें सुरक्षित रहना है तो उन्हें हिन्दू बन जाना चाहिए‘‘।
इसी तरह, हिन्दू महिलाओं को गैर-हिन्दू पुरूषों से विवाह करने से रोकने के लिए भी अभियान चलाए गए। यह इस तथ्य के बावजूद कि संबंधित व्यक्ति एक-दूसरे से विवाह करने के लिए पूरी तरह राजी थे। गैर-हिन्दू पुरूषों और हिन्दू महिलाओं के बीच विवाह को ‘लव जेहाद‘ बताया गया। शिवसेना के मुखपत्र ‘सामना‘ के संपादक भरत राऊत ने अपने एक लेख में लिखा कि मुसलमानों को मताधिकार से वंचित कर दिया जाना चाहिए। यह मांग, भारतीय दंड संहिता की धारा 153बी के तहत अपराध है। परंतु राऊत के विरूद्ध न तो कोई एफआईआर दर्ज की गई और ना ही राज्य सरकार ने उनके खिलाफ कोई कार्यवाही की।
यह सब करके हिन्दू राष्ट्रवादियों के मुसलमानों के विरूद्ध जहर फैलाने के अभियान को मजबूती दी जा रही है। यह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर आधारित एकाधिकारवादी राज्य की ओर बढ़ने का कदम है। मोदी सरकार ने राष्ट्रपति के जरिए विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा बनाए गए इस तरह के गोहत्या निरोधक कानूनों को स्वीकृति दे दी है जिनका एकमात्र उद्देश्य अल्पसंख्यकों को प्रताड़ित करना और उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक बनाना है। सांस्कृतिक राष्ट्रवादी राज्य, अपने नागरिकों के एक हिस्से को विशेषाधिकारों से लैस करता है तो दूसरे को द्वितीय श्रेणी का नागरिक बना देता है। इससे आक्रामक पूंजीवाद और स्वतंत्र बाजार की नीति अपनाना आसान हो जाता है।
बढ़ती असुरक्षा
मुसलमानों में असुरक्षा के बढ़ते भाव का कारण उनका दानवीकरण तो है ही, उसके साथ ही, गोरक्षकों द्वारा उन्हें पीट-पीटकर मार डालने और उन पर हिंसक हमले करने की बढती घटनाएं भी हैं। साम्प्रदायिक हिंसा भी जारी है। साम्प्रदायिक दंगो में मरने वालों की संख्या में भले ही कमी आ रही हो, परंतु ऐसी घटनाओं की संख्या में तेजी से वृद्धि हो रही है। सन् 2014 में (केन्द्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार), साम्प्रदायिक हिंसा की 561 घटनाएं हुईं जिनमें 90 लोग मारे गए और 1688 घायल हुए। सन् 2015 में साम्प्रदायिक हिंसा की 751 घटनाएं हुईं, जिनमें 97 लोग मारे गए और 2,264 घायल हुए। सन् 2016 के संबंध में केन्द्रीय गृह मंत्रालय के पास केवल मई तक के आंकड़े उपलब्ध हैं। उस साल मई तक, 278 घटनाओं में 38 लोग मारे गए थे और 903 घायल हुए थे। इस साल सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं गुजरात के वड़ावली और उत्तरप्रदेश के सहारनपुर जिले के दूधली गांव में हुई हैं। सांप्रदायिक हिंसा की छोटी-मोटी घटनाएं तो रोजाना ही होती रहती हैं जिनसे साम्प्रदायिकता की आग धधकती रहती है और समाज के ध्रुवीकरण की प्रक्रिया जारी रहती है।
सुब्रमण्यम स्वामी के अनुसार भाजपा का राजनैतिक लक्ष्य है हिन्दुओं को एक करना और मुसलमानों को शियाओं और सुन्नियों में और सुन्नियों को सूफियों और वहाबियों में बांटना, ताकि वहाबियों को अलग-थलग किया जा सके। मुंहजबानी तलाक का मुद्दा उठाकर भाजपा, मुसलमानों को लैंगिक आधार पर विभाजित करने का प्रयास भी कर रही है। हिन्दुओं को, जो कि जाति के आधार पर बुरी तरह विभाजित हैं, एक करने के लिए राष्ट्रवाद के नारे का इस्तेमाल किया जा रहा है। राष्ट्रवाद के नाम पर अल्पसंख्यकों के विरूद्ध हिंसा को औचित्यपूर्ण ठहराया जा रहा है। यह कहा जा रहा है कि हिन्दू राष्ट्रवादियों द्वारा की जा रही हिंसा, हिन्दुओं के ‘शौर्य‘ का प्रतीक है।
सन् 2015 में तथाकथित गोरक्षकों द्वारा मुसलमानों को पीट-पीटकर मार डालने की दो घटनाएं हुईं थीं जिनमें से एक में दादरी में मोहम्मद अखलाक मारा गया था। हरियाणा के पलवल जिले में दस से अधिक लोग घायल हुए थे। सन् 2016 में ऐसी तीन घटनाएं हुईं, जिनमें एक हिन्दू और तीन मुसलमान मारे गए और दो मुसलमान घायल हुए। सन् 2017 में गोरक्षक गुंडों द्वारा पहलू खान की जान ले ली गई और नौ अन्य घायल हुए। गुलाम मोहम्मद नामक एक बुजुर्ग की मात्र इसलिए पीट-पीटकर जान ले ली गई क्योंकि उसका एक रिश्तेदार एक हिन्दू लड़की के साथ भाग गया था।
प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा मानवाधिकार और सामाजिक व धार्मिक स्वतंत्रता के वैश्विक इंडेक्स में शामिल 198 देशों में भारत का स्थान सबसे नीचे के दस देशों में है। कई राज्यों में बीफ के विक्रय पर प्रतिबंध, हिन्दू धर्म में जबरिया धर्मांतरण, गोरक्षकों की वीभत्स हिंसा और मानवाधिकारों के लिए काम करने वालों को प्रताड़ित किए जाने आदि को भारत में मानव व अल्पसंख्यक अधिकारों के उल्लंघन के सुबूत के तौर पर प्रस्तुत किया गया है।
इन गंभीर परिस्थियों का जो एकमात्र सकारात्मक पहलू है वह है मुस्लिम समुदाय में पितृसत्तात्मक शक्तियों का कमजोर पड़ना और तीन तलाक के मुद्दे का प्रमुखता से उठाया जाना। अगर यह बुरा समय, मुस्लिम समुदाय को सामाजिक सुधार और लैंगिक न्याय की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित कर सके तो यह स्वागतयोग्य होगा। (मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)
संपादक महोदय,
कृपया इस सम-सामयिक लेख को अपने प्रतिष्ठित प्रकाशन में स्थान देने की कृपा करें।
-एल. एस. हरदेनिया