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मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री व वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष शिवराज सिंह चौहान ने एक वाक्य में पूरी कहानी कह दी है कि  ''यह मोदीवाद की जीत है।'' इसके साथ ही उन्होंने नरेंद्र मोदी को एक उच्चतर धरातल पर स्थापित कर दिया है। पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, साम्यवाद, गांधीवाद, समाजवाद, माओवाद आदि की तर्ज पर गोया एक नया राजनीतिक दर्शन अस्तित्व में आ गया है। यह अब अध्येताओं का  जिम्मा है कि वे मोदीवाद की व्याख्या करें, उसके गुण सूत्र तलाशें, उसके बिंदुवार अनुच्छेद तैयार करें। अपनी सीमित समझ में हम जैसे अज्ञानी भी अगर ऐसा करने चाहें तो कर सकते हैं। मेरी कोशिश कुछ यही है।

एकमात्र नारा था- फिर एक बार मोदी सरकार

श्री चौहान के सारगर्भित कथन का खुलासा करते हुए सबसे पहले यही समझ में आता है कि सत्रहवीं लोकसभा के लिए संपन्न चुनावों में नरेंद्र मोदी और सिर्फ नरेंद्र मोदी ने विजय हासिल की है। चुनाव के समय एकमात्र नारा था- फिर एक बार मोदी सरकार या अबकी बार मोदी सरकार।

इस परिदृश्य में न तो कहीं भारतीय जनता पार्टी थी और न कहीं राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन या कि एनडीए। परिणाम आने के बाद अवश्य कहा जा सकता है कि चालीस पार्टियों का गठबंधन जीता है, लेकिन यह बच्चे के हाथ में झुनझुना थमा देने जैसी बात है।

सच तो यह है कि चुनाव में भाजपा या एनडीए के प्रत्याशी तक मतदाता की स्मृति और सोच से नदारद थे। हर मुखर मतदाता यही कह रहा था कि मोदी को जिताना है। स्वतंत्र भारत में संसदीय जनतंत्र के इतिहास में यह पहली बार हुआ है। नेहरू, इंदिरा, राजीव, नरसिंह राव, वीपी सिंह, मोरारजी, वाजपेयी किसी ने भी खुद अपने नाम पर चुनाव नहीं

लड़ा था। उनके व्यक्तित्व का जो लाभ मिला, वह समयोचित संयोग था।

विकास को तलाक, तलाक, तलाक कह दिया गया

याद करें कि 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी की छवि को सामने रखा गया था, लेकिन तब चुनाव भारतीय जनता पार्टी के बैनर तले लड़ा गया था और भ्रष्टाचार से मुक्ति तथा देश के विकास के नाम पर वोट मांगे गए थे। पिछले पांच साल में भाजपा या घटक दल का हर नेता समय-असमय एक ही नारा लगाते मिलता था- विकास, विकास, विकास। इस बार के चुनाव अभियान में विकास को तलाक, तलाक, तलाक कह दिया गया। न नरेंद्र मोदी, न अमित शाह, न किसी प्रत्याशी, और न किसी बड़े नेता ने ही विकास का नाम लिया।

23 मई की शाम को भाजपा मुख्यालय में भाषण देते हुए मोदीजी ने आम जनता की तुलना भगवान कृष्ण से की, लेकिन सच तो यह है कि मोदीजी स्वयं कृष्ण की भूमिका निभाते हुए कह रहे थे- सर्व धर्म परित्यक्ताम् मामेकं शरणम् बृज:। हे बृजवासियो, हे देशवासियो! सब कुछ छोड़कर तुम मेरी शरण में आओ। तथास्तु। अहम् ब्रह्मस्मि मोदीवाद का पहला सूत्र है।

Lalit Surjan ललित सुरजन। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, स्तंभकार व साहित्यकार हैं। देशबन्धु के प्रधान संपादक

गठबंधन का नाम नहीं, पार्टी का नाम नहीं, मुद्दों की बात एक सिरे से गायब तो फिर वह ऐसा कौन सा आशादीप था जो पतिंगे की मानिंद मतदाताओं को मोदी की तरफ खींच रहा था? इसका जवाब 23 तारीख की दोपहर में छत्तीसगढ़ की प्रमुख भाजपा नेत्री सरोज पांडे ने दिया। एक रिपोर्टर से उन्होंने कहा- राष्ट्रवाद और देश की सुरक्षा। मैंने उनका कथन सुना, लेकिन देश में अन्यत्र भी अन्य नेतागण शायद यही बात कर रहे होंगे! इस राष्ट्रवाद को कैसे परिभाषित किया जाए, मैं नहीं जानता। इतना अवश्य पता है कि बीसवीं सदी के पूर्वाद्र्ध में चीनी राष्ट्रवाद, जापानी राष्ट्रवाद, कोरियाई राष्ट्रवाद जैसी भावनाएं प्रचलित थीं, जिनकी आलोचना विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर ने की थी।

मैं यह भी नहीं समझ पाता कि हम एक देश में रहते हैं, देशवासी कहलाते हैं, लेकिन राष्ट्रवाद की तर्ज पर देशवाद जैसी कोई संज्ञा आजतक क्यों नहीं बनी! भाजपा के राष्ट्रवाद की व्याख्या शायद यही है कि 1947 में पाकिस्तान के नाम पर एक मुस्लिम राष्ट्र बन गया था, सो भारत को हिंदू राष्ट्र बनना ही चाहिए जिसमें मुसलमान दोयम दर्जे के नागरिक बनकर रहें। उनकी यह अवधारणा इजराइल के यहूदी राष्ट्रवाद से प्रेरित हो तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं होगी। यह मोदीवाद का सूत्र क्रमांक दो है।

सुश्री सरोज पांडे ने सुरक्षा का मुद्दा भी सामने रखा। एक अरब तीन करोड़ की आबादी वाले भारत देश को किससे सुरक्षा चाहिए? क्या हम एक भयभीत देश हैं? हमने तो 1947 के अक्टूबर में ही जब देश नया-नया आजाद हुआ था, तब भी काश्मीर पर हमले को नाकाम कर दिया था; जिसमें बारामूला के मकबूल शेरवानी और ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान सबसे पहले शहादत पाने वालों में थे।

हमने 1965 में पाकिस्तानी हमले को नाकाम किया, 1971 में बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में निर्णायक सहायता की; 1998 में कारगिल से पाक को खदेड़ दिया; 1974 और 1999 में आण्विक क्षमता हासिल कर उसका परिचय दिया; फिर भी हमारे मन मेंं सुरक्षा को लेकर चिंता है?

हम 1962 में अवश्य चीन से पराजित हुए थे लेकिन चीन हर दृष्टि से हमसे समर्थ था और हम युद्ध को लगातार टालने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन आज जब चीन के साथ हमारे घनिष्ठ वाणिज्यिक संबंध बन चुके हैं और चीन के राष्ट्रपति भारत के प्रधानमंत्री के साथ झूला झूलते हैं, तब चीन से भी कैसा डर? जो भी हो, सुरक्षा (पाकिस्तान का भय!) मोदीवाद का तीसरा सूत्र है।

शिवराज सिंह चौहान ने अपने उपरोक्त कथन में जातिवाद और वंशवाद समाप्त होने का भी उल्लेख किया। नतीजे आने के बाद अनेक विश्लेषक व पत्रकार कह रहे हैं कि इन चुनावों में मतदाता ने जात-पांत से ऊपर उठकर वोट दिया और साथ ही उसने वंशवाद को नकार दिया। क्या सचमुच? अगर ऐसा है तो एनडीए में शामिल शेष उन्चालीस पार्टियों का राजनीतिक आधार क्या है?

एक सांस में जातिवाद खत्म होने का दावा, और उसी सांस में यह प्रशंसा भी कि मोदी ने ओबीसी के उपेक्षित समुदायों को कैसे साथ लेकर गठबंधन तैयार किया। यह दोहरी बात क्यों? ओपी राजभर आपके साथ क्यों थे? अनुप्रिया पटेल आपके साथ क्यों हैं? गिरिराज सिंह की सीट बदलकर बेगूसराय से क्यों उतारा गया? छत्तीसगढ़ की बिलासपुर और महासमुंद सीट से साहू के बदले साहू को ही टिकिट क्यों दिया गया? फिर भी आप कहते हैं तो मान लेते हैं कि आपने जातिवाद समाप्त कर दिया है।

वंशवाद का जहां तक सवाल है, वह तो सोनिया-राहुल तक सीमित है। मेनका-वरुण तो अपनी काबलियत से आगे बढ़े हैं। बाकी किसी गिनती में नहीं आते। मोदीवाद का चौथा सूत्र-तुम्हारे पैर पैर, हमारे पैर चरण।

देश के (या राष्ट्र के!) मतदाता बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने मोदीवाद के इन तमाम सूत्रों को आत्मसात किया और ट्रंप, पुतिन, एरदोगान, नेतन्याहू, अबे, दुतार्ते की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए एक ''स्ट्रांग लीडर'' को अपना नेतृत्व करने के लिए चुना।

आज की दुनिया की शायद यह सामान्य रीति बन गई है कि हमें सलाह-मशविरा करने वाले, आम सहमति कायम करने वाले नहीं, आनन-फानन में सही या गलत, दृढ़ निर्णय लेने वाले नेताओं की आवश्यकता आन पड़ी है।

लेख समाप्त करने के पहिले एक बात उनसे जो इन चुनावी नतीजा को लेकर संशयग्रस्त हैं। एक्जिट पोल आने के आसपास आरटीआई कार्यकर्ता वेंकटेश नायक ने टीवी पर बताया कि ईवीएम का खोखा तो भारत में निर्मित है, लेकिन उसकी माइक्रो प्रोसेसिंग चिप विदेश से आयातित हैं, जिसमें फिट फ्लैश मेमोरी मनचाहा कमाल कर सकती है।

क्या कांग्रेस पार्टी श्री नायक की इस दौड़धूप से अनभिज्ञ थी? उसने समय रहते इसका खुलासा क्यों नहीं किया? फ्लैश मेमोरी वाली चिप किन कंपनियों से खरीदी गई, उनकी अपनी साख क्या थी, ये सारे बिंदु सुप्रीम कोर्ट और जनता की अदालत दोनों में समय रहते रखे जाते तो कुछ बात बनती। अब लकीर पीटने से क्या होना है!

ललित सुरजन

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