प्रजातान्त्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत के इतिहास (History of democratic-secular India) में पहली बार नागपुर के 'राष्ट्र-संत राष्ट्रसंत तुकडोजी महाराज विश्वविद्यालय' (Rashtrasant Tukadoji Maharaj Nagpur University) पाठ्यक्रम में आरएसएस का अध्ययन शामिल किया गया है।
विश्वविद्यालय की एक विज्ञप्ति के अनुसार बी.ए. (इतिहास द्वितीय वर्ष) के कोर्स 'भारत का इतिहास (1885-1947)' में से 'भारत में साम्प्रदायिकता का उदय और विकास' हटा कर 'राष्ट्र निर्माण में आरएसएस की हिस्सेदारी' (RSS role in nation building) के अध्ययन को शामिल किया गया है। यह परिवर्तन क्यों किया गया इस का कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है।
पाठ्यक्रम में यह 'एंट्री' साफ़ बताती है की राजनैतिक क्षेत्र के बाद शिक्षा संस्थानों में किस तरह हिन्दुत्ववादी राजनीति और संगठनों के अध्ययन पर ज़ोर दिया जा रहा है।
आरएसएस से जुड़े 'शिक्षविद' जब इस हिन्दुत्ववादी संगठन को देश में वैधता दिलाने की कोशिश कर रहे हैं तो देश के प्रजातान्त्रिक-धर्मनिरपेक्ष वयवस्था में विश्वास रखने वाले शिक्षकों और छात्रों के लिए भी एक सुनेहरा मौक़ा है जब वे आरएसएस की राष्ट्र-विरोधी विचारधारा और कुकर्मों का भन्डा फोड़ सकते हैं। ऐसा करने के लिए सिर्फ एक काम करना होगा कि आरएसएस के अपने अभिलेखागारों में दफ़्न शर्मनाक दस्तावेज़ और इस के कुकर्मों का ब्यौरा सार्वजानिक करना होगा।
आरएसएस ने 'भारत माता' (जिस की असली संतानें होने का दवा आरएसएस के लोग करते हैं) को अंग्रेज़ों के चुंगल से आज़ाद करने के लिए छेड़ी गयी महान आज़ादी की जंग से किस बेशर्मी से ग़द्दारी की थी, संघर्ष के प्रतीकों के कैसे ज़लील किया था, शहीदों का कैसे मज़ाक़ उड़ाया था, कैसे मुस्लिम लीग से मिलीभगत की थी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस की पीठ में छुरा घोंपा था और देश के प्रजातान्त्रिक-धर्मनिरपेक्ष संविधान की जगह
स्वतंत्रता आंदोलन से जानबूझकर विश्वासघात: आरएसएस के संस्थापक केबी हेडगेवार की स्वीकारोक्ति
Deliberate betrayal of freedom movement: admission of RSS founder KB Hedgewar
केबी हेडगेवार (आरएसएस सुप्रीमो 1925 -1940) ने सचेत तरीके से आरएसएस को औपनिवेशिक शासन के खिलाफ आजादी की लड़ाई से अलग रखा।
आरएसएस ने बड़ी राजनीतिक ईमानदारी के साथ ऐसी किसी भी राजनीतिक गतिविधि से खुद को अलग रखा, जिसके तहत उसे ब्रिटिश हुक्मरान के विरोधियों के साथ नत्थी किया जा सके।
हेडगेवार की आधिकारिक जीवनी में स्वीकार किया गया हैः
"संघ स्थापना के बाद डाक्टर साहब अपने भाषणों में हिन्दू संगठन के बारे में ही बोला करते थे। सरकार पर टीका-टिप्पणी नहीं के बराबर रहा करती थी।"
गांधी जी के नेतृत्व में सभी समुदायों की एकताबद्ध लड़ाई की कांग्रेस की अपील को ठुकराते हुए हेडगेवार का कहना थाः
"हिंदू संस्कृति हिंदुस्तान की जिंदगी सांस है। इसलिए यह स्पष्ट है कि अगर हिंदुस्तान की रक्षा करनी है तो हमें सबसे पहले हिंदू संस्कृति का पोषण करना होगा।"
हेडगेवार ने गांधी जी के नमक सत्याग्रह आंदोलन की भर्तस्ना करते हुए कहा:
"आज जेल जाने को देशभक्ति का लक्षण माना जा रहा है।.. जब तक इस तरह के क्षणभंगुर भावनाओं के बदले समर्पण के सकारात्मक और स्थाई भाव के साथ अविराम प्रयत्न नहीं होते, तब तक राष्ट्र की मुक्ति असंभव है।"
कांग्रेस के नमक सत्याग्रह और ब्रिटिश सरकार के बढ़ते हुए दमन के संदर्भ में नेतृत्वकारी आरएसएस कार्यकर्ताओं को उन्होंने निर्देश दिया,
"इस वर्तमान आंदोलन के कारण किसी भी सूरत में आरएसएस को खतरे में नहीं डालना है"।
आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक और प्रमुख विचारक गोलवलकर का स्वतंत्रता आंदोलन से ग़द्दारी के बारे में इकबालिया बयान
Confession of Golwalkar (the second RSS chief and chief thinker of RSS) about the betrayal from the freedom movement
गोलवलकर (गुरुजी), जो 1940 में ही आरएसएस के सर्वसर्वा बन गए थे, ने अंगरेज़ शासकों के विरुद्ध किसी भी आंदोलन अथवा कार्यक्रम में कोई भागीदारी नहीं की। इन आंदोलनों को वे कितना नापसन्द करते थे इसका अंदाज़ा श्री गुरुजी के इन शब्दों से लगाया जा सकता है -
"नित्यकर्म में सदैव संलग्न रहने के विचार की आवश्यकता का और भी एक कारण है। समय-समय पर देश में उत्पन्न परिस्थिति के कारण मन में बहुत उथल-पुथल होती ही रहती है। सन् 1942 में ऐसी उथल-पुथल हुई थी। उसके पहले सन् 1930-31 में भी आंदोलन हुआ था। उस समय कई लोग डाक्टर जी के पास गये थे।
इस ‘शिष्टमंडल’ ने डाक्टर जी से अनुरोध किया कि इस आंदोलन से स्वातंत्रय मिल जायेगा और संघ को पीछे नहीं रहना चाहिए। उस समय एक सज्जन ने जब डाक्टर जी से कहा कि वे जेल जाने के लिए तैयार हैं, तो डाक्टर जी ने कहा-‘जरूर जाओ। लेकिन पीछे आपके परिवार को कौन चलायेगा?’
उस सज्जन ने बताया ‘दो साल तक केवल परिवार चलाने के लिए ही नहीं तो आवश्यकता अनुसार जुर्माना भरने की भी पर्याप्त व्यवस्था उन्होंने कर रखी है।’
तो डाक्टर जी ने कहा- ‘आपने पूरी व्यवस्था कर रखी है तो अब दो साल के लिए संघ का ही कार्य करने के लिए निकलो’।
घर जाने के बाद वह सज्जन न जेल गये न संघ का कार्य करने के लिए बाहर निकले।"
गोलवलकर द्वारा प्रस्तुत इस ब्यौरे से यह बात स्पष्ट रूप से सामने आ जाती है कि आरएसएस का मक़सद आम लोगों को निराश व निरुत्साहित करना था। ख़ासतौर से उन देशभक्त लोगों को जो अंगरेज़ी शासन के ख़िलाफ़ कुछ करने की इच्छा लेकर घर से आते थे।
अगर आरएसएस का रवैया 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के प्रति जानना हो तो श्री गुरुजी के इस शर्मनाक वक्तव्य को पढ़ना काफ़ी होगाः
"सन् 1942 में भी अनेकों के मन में तीव्र आंदोलन था। उस समय भी संघ का नित्य कार्य चलता रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प किया। परन्तु संघ के स्वयं सेवकों के मन में उथल-पुथल चल ही रही थी। संघ यह अकर्मण्य लोगों की संस्था है, इनकी बातों में कुछ अर्थ नहीं ऐसा केवल बाहर के लोगों ने ही नहीं, कई अपने स्वयंसेवकों ने भी कहा। वे बड़े रुष्ट भी हुए।"
इस तरह स्वयं गुरुजी से हमें यह तो पता लग जाता है कि आरएसएस ने भारत छोड़ो आंदोलन के पक्ष में परोक्ष रूप से किसी भी तरह की हिस्सेदारी नहीं की। लेकिन आरएसएस के किसी प्रकाशन या दस्तावेज़ या स्वयं गोलवलकर के किसी वक्तव्य से आज तक यह पता नहीं लग पाया है कि आरएसएस ने अप्रत्यक्ष रूप से भारत छोड़ो आंदोलन में किस तरह की हिस्सेदारी की थी।
गोलवलकर का यह कहना कि भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान आरएसएस का ‘रोज़मर्रा का काम’ ज्यों का त्यों चलता रहा, बहुत अर्थपूर्ण है। यह रोज़मर्रा का काम क्या था? इसे समझना ज़रा भी मुश्किल नहीं है। यह काम था मुस्लिम लीग के कंधे से कंधा मिलाकर हिंदू और मुसलमान के बीच खाई को गहराते जाना। इस महान सेवा के लिए कृतज्ञ अंग्रेज़ शासकों ने इन्हें नवाज़ा भी।
यह बात ग़ौरतलब है कि अंग्रेज़ी राज में आरएसएस और मुस्लिम लीग पर कभी भी प्रतिबंध नहीं लगाया गया।
सच तो यह है कि गोलवलकर ने स्वयं भी कभी यह दावा नहीं किया कि आरएसएस अंग्रेज़ विरोधी था। अंग्रेज़ शासकों के चले जाने के बहुत बाद गोलवलकर ने 1960 में इंदौर (मध्य प्रदेश) में अपने एक भाषण में कहा -
कई लोग पहले इस प्रेरणा से काम करते थे कि अंग्रेज़ों को निकाल कर देश को स्वतंत्र करना है। अंग्रेज़ों के औपचारिक रीति से चले जाने के पश्चात् यह प्रेरणा ढीली पड़ गयी। वास्तव में इतनी ही प्रेरणा रखने की आवश्यता नहीं थी। हमें स्मरण होगा कि हमने प्रतिज्ञा में धर्म और संस्कृति की रक्षा कर राष्ट्र की स्वतंत्रता का उल्लेख किया है। उसमें अंग्रेज़ों के जाने न जाने का उल्लेख नहीं है।"
आरएसएस द्वारा शहीदी परम्परा का अपमान
कोई भी हिंदुस्तानी जो स्वतंत्रता संग्राम के शहीदों को सम्मान देता है उसके लिए यह कितने दुःख और कष्ट की बात हो सकती है कि आरएसएस अंग्रेज़ों के विरुद्ध प्राण न्यौछावर करने वाले शहीदों को अच्छी निगाह से नहीं देखता था।
श्री गुरुजी ने शहीदी परम्परा पर अपने मौलिक विचारों को इस तरह रखा है -
"निःसंदेह ऐसे व्यक्ति जो अपने आप को बलिदान कर देते हैं श्रेष्ठ व्यक्ति हैं और उनका जीवन दर्शन प्रमुखतः पौरुषपूर्ण है। वे सर्वसाधारण व्यक्तियों से, जो कि चुपचाप भाग्य के आगे समर्पण कर देते हैं और भयभीत और अकर्मण्य बने रहते हैं, बहुत ऊंचे हैं। फिर भी हमने ऐसे व्यक्तियों को समाज के सामने आदर्श के रूप में नहीं रखा है। हमने बलिदान को महानता का सर्वोच्च बिन्दु, जिसकी मनुष्य आकांक्षा करें, नहीं माना है। क्योंकि, अंततः वे अपना उदे्श्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गंभीर त्रुटि थी।"
यक़ीनन यही कारण है कि आरएसएस का एक भी स्वयंसेवक अंग्रेज़ शासकों के ख़िलाफ़ संघर्ष करते हुए शहीद होना तो दूर की बात रही; जेल भी नहीं गया।
गोलवलकर भारत मां पर अपना सब कुछ क़ुर्बान करने वालों को कितनी हीन दृष्टि से देखते थे इसका अंदाज़ा निम्नलिखित शब्दों से भी अच्छी तरह लगाया जा सकता है।
श्री गुरुजी वतन पर प्राण न्यौछावर करने वाले महान शहीदों से जो प्रश्न पूछ रहे हैं ऐसा लगता है मानो यह सवाल अंग्रेज़ शासकों की ओर से पूछा जा रहा हो-
"अंग्रेज़ों के प्रति क्रोध के कारण अनेकों ने अद्भुत कारनामे किये। हमारे मन में भी एकाध बार विचार आ सकता है कि हम भी वैसा ही करें। वैसा अद्भुत कार्य करने वाले निःसंदेह आदरणीय हैं। उसमें व्यक्ति की तेजस्विता प्रकट होती है। स्वातंत्र्य प्राप्ति के लिए शहीद होने की सिद्धता झलकती है। परन्तु सोचना चाहिए कि उससे (अर्थात बलिदान से) संपूर्ण राष्ट्रहित साध्य होता है क्या? बलिदान के कारण पूरे समाज में राष्ट्र-हितार्थ सर्वस्वार्पण करने की तेजस्वी वृद्धिगत नहीं होती है। अब तक का अनुभव है कि वह हृदय की अंगार सर्व साधारण को असहनीय होती है।"
यहां पर यह बात भी क़ाबिले जिक्र है कि आरएसएस, जो अपने आप को भारत का धरोहर कहता है, उसके 1925 से लेकर 1947 तक के पूरे साहित्य में एक वाक्य भी ऐसा नहीं है जिसमें जलियांवाला बाग़ जैसे बर्बर दमन की घटनाओं की भर्त्सना हो।
इसी तरह आरएसएस के समकालिक दस्तावेजों में भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को गोरे शासकों द्वारा फांसी दिये जाने के खिलाफ़ किसी भी तरह के विरोध का रिकार्ड नहीं है।
राष्ट्रीय-ध्वज से नफ़रत
आरएसएस न तो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान और न ही स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रीय ध्वज के प्रति वफ़ादारी में विश्वास करता है।
दिसम्बर 1929 में कांग्रेस ने अपने लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज को राष्ट्रीय ध्येय घोषित करते हुए लोगों का आह्वान किया था कि 26 जनवरी 1930 को तिरंगा झंडा फहराएं और स्वतंत्रता दिवस मनाएं। इसके जवाब में आरएसएस के तत्कालीन सरसंचालक डा. हेडगेवार ने एक आदेश पत्र जारी करके तमाम शाखाओं को भगवा झंडा राष्ट्रीय झंडे के तौर पर पूजने के निर्देश दिये।
स्वतंत्रता की पूर्वसंध्या पर जब दिल्ली के लाल किले से तिरंगे झण्डे को लहराने की तैयारी चल रही थी आरएसएस ने अपने अंग्रेज़ी मुखपत्र (आर्गनाइज़र) के 14 अगस्त, 1947 वाले अंक में राष्ट्रीय ध्वज के तौर पर तिरंगे के चयन की खुलकर भर्त्सना करते हुए लिखा –
"वे लोग जो किस्मत के दांव से सत्ता तक पहुंचे हैं वे भले ही हमारे हाथों में तिरंगे को थमा दें, लेकिन हिंदुओं द्वारा न इसे कभी सम्मानित किया जा सकेगा न अपनाया जा सकेगा। तीन का आंकड़ा अपने आप में अशुभ है और एक ऐसा झण्डा जिसमें तीन रंग हों बेहद खराब मनोवैज्ञानिक असर डालेगा और देश के लिए नुक़सानदेय होगा।"
संविधान का तिरस्कार
भारत की संविधान सभा ने नवम्बर 26, 1949 को एक प्रजातान्त्रिक-धर्मनिरपेक्ष संविधान का अनुमोदन करके देश को एक तोहफा दिया। 4 दिन के भीतर आरएसएस ने अपने अंग्रज़ी के मुखपत्र, आर्गेनाइजर (नवम्बर 30) में एक सम्पादकीय लिखकर इस के स्थान पर घोर जातिवादी, छुवा-छूत की झंडाबरदार, औरत और दलित विरोधी मनुस्मृति को लागू करने की इन शब्दों में मांग की,
"हमारे संविधान में प्राचीन भारत में विकसित हुए अद्वितीय संवैधानिक प्रावधानों का कोई ज़िक्र नहीं है। मनु के क़ानून, स्पार्टा के लयकारगुस और ईरान के सोलोन से बहुत पहले लिखे गए थे। मनुस्मृति में प्रतिपादित क़ानून सरे विश्व में आज तक प्रशंसा उत्तेजित करते हैं और अनायास सहज आज्ञाकारिता पाते हैं। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए ये बेकार हैं।"
प्रजातंत्र से नफ़रत
आरएसएस लोकतंत्र के सिद्धांतों के विपरीत लगातार यह मांग करता रहा है कि भारत में तानाशाही शासन हो।
गोलवालकर ने सन् 1940 में आरएसएस के 1350 उच्चस्तरीय कार्यकर्ताओं के सामने भाषण करते हुए घोषणा की -
"एक ध्वज के नीचे, एक नेता के मार्गदर्शन में, एक ही विचार से प्रेरित होकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदुत्व की प्रखर ज्योति इस विशाल भूमि के कोने-कोने में प्रज्जवलित कर रहा है।"
याद रहे कि एक झण्डा, एक नेता और एक विचारधारा का यह नारा सीधे यूरोप की नाजी एवं फ़ासिस्ट पार्टियों, जिनके नेता क्रमशः हिटलर और मुसोलिनी जैसे तानाशाह थे, के कार्यक्रमों से लिया गया था।
हिंदुत्व टोली ने किस तरह नेताजी सुभाष चंद्र बोस की पीठ में छुरा घोंपा
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जब नेताजी देश की आज़ादी के लिए विदेशी समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहे थे और अपनी आज़ाद हिंद फ़ौज़ को पूर्वोत्तर भारत में सैनिक अभियान के लिए लामबंद कर रहे थे, तभी सावरकर अंग्रेजों को पूर्ण सैनिक सहयोग की पेशकश कर रहे थे।
1941 में भागलपुर में हिंदू महासभा के 23वें अधिवेशन को संबोधित करते हुए सावरकर ने अंग्रेज शासकों के साथ सहयोग करने की अपनी नीति का इन शब्दों में ख़ुलासा किया -
"देश भर के हिंदू संगठनवादियों (अर्थात हिंदू महासभाइयों) को दूसरा सबसे महत्वपूर्ण और अति आवश्यक काम यह करना है कि हिंदुओं को हथियार बंद करने की योजना में अपनी पूरी ऊर्जा और कार्रवाइयों को लगा देना है। जो लड़ाई हमारी देश की सीमाओं तक आ पहुँची है वह एक ख़तरा भी है और एक मौक़ा भी।"
द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण जब ब्रिटिश सरकार ने सेना की नई टुकड़ियाँ भर्ती करने का निर्णय लिया तो सावरकर के प्रत्यक्ष नेतृत्व में हिंदू महासभा ने हिंदुओं को अंग्रेजों के इस भर्ती अभियान में भारी संख्या में जोड़ने का फ़ैसला लिया। मदुरा में हिंदू महासभा के अधिवेशन में सावरकर ने उपस्थित प्रतिनिधियों को बताया -
"स्वाभाविक है कि हिंदू महासभा ने व्यावहारिक राजनीति पर पैनी पकड़ होने की वजह से ब्रिटिश सरकार के समस्त युद्ध प्रयासों में इस ख्याल से भाग लेने का निर्णय किया है कि यह भारतीय सुरक्षा और भारत में नई सैनिक ताक़त को बनाने में सीधे तौर पर सहायक होंगे।"
लाखों हिंदुओं को सेना में कराया भर्ती
अगले कुछ वर्षों तक सावरकर ब्रिटिश सेनाओं के लिए भर्ती अभियान चलाने, शिविर लगाने में जुटे रहे, जो बाद में उत्तर-पूर्व में आज़ाद हिंद फ़ौज़ के बहादुर सिपाहियों को मौत की नींद सुलाने और क़ैद करने वाली थी।
हिंदू महासभा के मदुरा अधिवेशन में सावरकर ने प्रतिनिधियों को बताया कि पिछले एक साल में हिंदू महासभा की कोशिशों से लगभग एक लाख हिंदुओं को अंग्रेजों की सशस्त्र सेनाओं में भर्ती कराने में वे सफ़ल हुए हैं।
इस अधिवेशन का समापन एक ‘फौरी कार्यक्रम' को अपनाने के प्रस्ताव के साथ हुआ जिसमें इस बात पर जोर दिया गया कि ब्रिटिश “थल सेना, नौ सेना और वायु सेना में ज़्यादा से ज़्यादा हिंदू सैनिकों की भर्ती सुनिश्चित की जाए।"
याद रहे इस काम में आरएसएस के प्यारे श्यामा प्रसाद मुखर्जी पूरी तरह सावरकर के साथ थे। इस के साथ ही मुख़र्जी 1942 में जो मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की मिली-जुली सरकार बनी थी उस में उप मुख़्यमंत्री रहते हुए 'भारत छोड़ो आंदोलन' को बंगाल में दबाने में अहम भूमिका निभा चुके थे।
नागपुर विश्विद्यालय के छात्र और शिक्षक आरएसएस के इस शर्मनाक इतिहास के बारे में हिन्दुत्ववादी शिक्षा ठेकेदारों से सवाल करें और चुनौती दें कि आरएसएस के बारे में प्रस्तुत किये गए इन सच्चाईयों को ग़लत साबित करें।
शम्सुल इस्लाम
जुलाई 11, 2019