स्वाधीनता के 70 वर्ष : अभी जाना है और आगे
इस वर्ष हम स्वाधीनता की 70वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। किसी भी देश की राष्ट्र के रूप में प्रगति का आंकलन करने के लिए 70 वर्ष पर्याप्त अवधि होती है। भारत में संस्कृति, धर्म, भाषा, नस्ल और वर्ग की इतनी विविधताएं हैं कि देश की प्रगति के बारे में कोई सामान्य निष्कर्ष निकालना संभव नहीं है।
आज का भारत कई कालखंडों में जी रहा है। जहां अंडमान व निकोबार द्वीप समूह, ओडिसा, बिहार आदि के आदिम कबीले पहली सहस्राब्दी में जी रहे हैं वहीं सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्यरत इंजीनियर और बहुराष्ट्रीय व बड़ी देसी कंपनियों के सीईओ जेट एज में रह रहे हैं। वे नवीनतम तकनीकी का उपयोग करते हैं, महलनुमा घरों में रहते हैं और इस तरह का ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीते हैं, जो बादशाहों को भी उनसे ईर्ष्या करने पर मजबूर कर देगा। इन दोनों कालखंडों के बीच अलग-अलग समुदाय जी रहे हैं।
हमारे देश में आदिम मूलनिवासी समुदाय हैं, पदक्रम आधारित सामंती सांस्कृतिक व्यवस्थाएं हैं, जातिगत और लैंगिक ऊँचनीच है, खाप पंचायते हैं, अंतर्राष्ट्रीय पूंजी है, नवउदारवाद है और सहचर पूँजीवाद भी है। ये सब अलग-अलग कालखंडों में एक साथ बने हुए हैं। संविधान को अंगीकृत करने के पश्चात संविधानसभा में भाषण देते हुए डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर ने यह चेतावनी दी थी कि अगर प्रजातंत्र ने हमारे देश में व्याप्त सामाजिक विषमताओं पर विजय प्राप्त नहीं की तो ये सामाजिक विषमताएं हमारे प्रजातंत्र को निगल जाएंगी।
सत्तर वर्ष पहले, आधी रात को भारत में जब आज़ादी का सूरज उगा था, तब उसका अलग-अलग वर्गों के लिए अलग-अलग अर्थ था।
आजादी के साथ सेठजी (आर्थिक श्रेष्ठि वर्ग और भारतीय पूंजीपति) व भट्टजी (सामाजिक श्रेष्ठि वर्ग-बहुसंख्यक समुदाय के ऊँची जातियों के पुरूष) अपने भाग्य के निर्माता बन गए। इसके विपरीत, अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों, श्रमिकों
भारत में प्रजातंत्र यदि एक कदम आगे बढ़ा है तो वह दो कदम पीछे भी हटा है।
मंडल आयोग की रपट का लागू किया जाना और आंशिक भू-सुधार, सामाजिक और आर्थिक समानता स्थापित करने की दिशा में दो ऐसे बड़े कदम थे, जिन्होंने बहुत बड़ी संख्या में भारतीयों को लाभांवित किया। भू-सुधार अनमने ढंग से लागू किए गए और ऊँची जातियों के ज़मींदारों के ग्रामीण श्रेष्ठि वर्ग ने इनका जमकर प्रतिरोध किया। कुछ राज्यों में भू-सुधार अन्य राज्यों की तुलना में बेहतर ढंग से लागू किए गए। इनमें वामपंथी पार्टियों द्वारा शासित राज्य और दक्षिण भारत के वे राज्य, जहां सामाजिक न्याय का आंदोलन मज़बूत था, शामिल थे। उत्तर भारत के राज्यों में भू-सुधार लागू करने की प्रक्रिया धीमी रही। ज़मीन जोतने वाले बटाईदार, जो कमरतोड़ मेहनत कर पूरे देश का पेट भरने के लिए अनाज उगाते थे, स्वयं का पेट भरने में असमर्थ थे। वे गरीबी का जीवन जीने पर मजबूर थे। भू-सुधारों ने इनमें से कुछ को उन ज़मीनों का मालिक बनाया, जिसे वे जोतते थे। हरित क्रांति ने देश को खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर बनाया और खेती करने वाले करोड़ों लोगों के जीवन को कुछ हद तक खुशहाल और सुरक्षित किया।
परंतु ज़मीन जोतने वाले वे लोग, जो अब ज़मीनों के मालिक बन गए थे, को उचित राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं मिल सका। भारतीय संसद और राज्यों की विधानसभाओं में ऊँची जातियों के सदस्यों का दबदबा बना रहा। मंडल आयोग की रपट को लागू किए जाने से इस स्थिति में महत्वपूर्ण परिवर्तन आया। इस कदम से पिछड़ी जातियों को न केवल सरकारी नौकरियों और उच्च शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण मिला वरन इससे अन्य पिछड़ा वर्गों में जागृति आई और उन्होंने संगठित होकर ग्रामीण भारत में उच्च जातियों के वर्चस्व का कड़ा प्रतिरोध करना शुरू कर दिया। भू-सुधारों ने अन्य पिछड़ा वर्गों की ऊँची जातियों पर निर्भरता को कम कर दिया था और इसी कारण वे ऊँची जातियों के वर्चस्व का विरोध कर सके। यदि यह सब हो सका तो इसका कारण था एक व्यक्ति एक वोट का सिद्धांत।
अगर भारतीय संविधान प्रत्येक नागरिक को एक और केवल एक वोट देने का अधिकार नहीं देता तो शायद भारतीय राज्य कभी मंडल आयोग की रपट को, आंशिक रूप से ही, सही लागू नहीं करता। वह भारतीय राजनीति में लंबे समय से जमे ऊँची जातियों के वर्चस्वशाली समूहों के आगे नतमस्तक बना रहता।
महिलाओं की समानता
स्वतंत्रता के बाद से भारत में महिलाओं की स्थिति में बहुत सुधार आया है। कानून की दृष्टि में वे पुरूषों के बराबर हैं। परंतु व्यावहारिक धरातल पर उन्हें उतनी स्वतंत्रता उपलब्ध नहीं है जितनी कि होनी चाहिए। भारत को लैंगिक समानता का आदर्श हासिल करने में अभी बहुत समय लगेगा। भारतीय संसद ने महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए कई कानून बनाए। सती, बाल विवाह, दहेज और बहुपत्नी प्रथा (मुस्लिम समुदाय को छोड़कर) को प्रतिबंधित किया गया। संसद ने महिलाओं की घरेलू हिंसा से रक्षा के लिए भी कानून बनाए। महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा को रोकने के लिए कई कड़े कानून बनाए गए। आज, कम से कम शहरों में, महिलाएं पढ़-लिख रही हैं और अपनी रोज़ी-रोटी कमाने में सक्षम हैं। कम संख्या में ही सही, परंतु महिलाएं आज हवाई जहाज उड़ा रही हैं, रेल के इंजन चला रही हैं, टैक्सियां चला रही हैं और सेना और पुलिस में भी हैं।
हिन्दू महिलाओं को अब उनकी पैतृक संपत्ति में अपने भाईयों के बराबर हिस्सा प्राप्त करने का अधिकार है। परंतु ये उपलब्धियां भी 70 वर्ष की लंबी अवधि को देखते हुए कम ही प्रतीत होती हैं।
इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि ज़मीनी स्थिति में बहुत बदलाव नहीं आया है। कानून तो बने हैं परंतु महिलाओं के विरूद्ध अपराधों में भी वृद्धि हुई है। आज महिलाएं अपने परिवार और सार्वजनिक स्थानों, दोनों में पहले से अधिक असुरक्षित हैं। खाप और पारिवारिक पंचायतों का महिलाओं पर पहले से अधिक नियंत्रण है। ये संस्थाएं ऐसा मानती हैं कि महिलाएं, देश की दूसरी दर्जे की नागरिक हैं जिनका काम केवल पुरूषों की सेवा करना है। जाति और समुदाय की ‘इज्ज़त’ अचानक बहुत महत्वपूर्ण बन गई है। इस ‘इज्ज़त’ को बनाए रखने के लिए महिलाओं को पुरूषों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ती है और सामंती परंपराओं का पालन करना पड़ता है। इसका एक प्रभाव यह हुआ है कि विभिन्न जातियों और समुदायों के बीच संघर्ष या विवाद की स्थिति में महिलाओं की देह और उनकी गरिमा को निशाना बनाया जाता है। महिलाओं का इस्तेमाल अंतरजातीय और साम्प्रदायिक संघर्षों में किया जा रहा है। पहचान पर आधारित राजनीति के चलते, पितृसत्तात्मकता को बढ़ावा मिला है। मुस्लिम महिलाएं आज भी कई तरह के कष्ट भोगने को मजबूर हैं, जिनमें मुंहज़बानी तलाक शामिल है। सोलहवीं लोकसभा में केवल दस प्रतिशत महिलाएं हैं और यह उनका अब तक का सबसे अधिक प्रतिनिधित्व है।
अभी हमें चलना है मीलों
अन्य पिछड़ा वर्गों को आर्थिक दृष्टि (उन्हें उन ज़मीनों का मालिक बनाकर जिन्हें वे जोतते थे), सामाजिक दृष्टि (आंशिक रूप से उनका ‘संस्कृतिकरण’ कर और आंशिक रूप से ब्राह्मणवाद का पुर्नअविष्कार कर) और राजनीतिक दृष्टि (राज्य विधानमंडलों और संसद के मंडलीकरण से) से भारत की मुख्यधारा में शामिल कर लिया गया है। परंतु ओबीसी के एक हिस्से के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक समावेशीकरण के बाद भी, नागरिकों का एक बड़ा हिस्सा आज भी समानता हासिल नहीं कर सका है।
पट्टेदार किसानों को ज़मीनों का मालिक तो बना दिया गया परंतु उन लोगों का क्या जो भूमिहीन थे और जिन्हें प्राथमिक शिक्षा तक भी पहुंच हासिल नहीं थी। या तो उनके गांव में कोई स्कूल ही नहीं था या अगर स्कूल था तो वे उसकी फीस चुकाने में असमर्थ थे और अगर वे फीस भी चुका दें तो स्कूल में पढ़ाने के लिए अध्यापक उपलब्ध नहीं थे। यह कई आदिवासी गांवों की कहानी है। दलित विद्यार्थियों के साथ स्कूलों में भेदभाव किया जाता है और इसी कारण उनकी शाला त्यागने की दर, अन्य समुदायों की अपेक्षा कहीं अधिक है। अगर प्राथमिक शिक्षा ही उपलब्ध नहीं होगी तो उच्च शिक्षा में आरक्षण का कोई अर्थ नहीं रह जाता। उन ओबीसी जातियों, जिनका मुख्य पेशा खेती नहीं थी (जैसे जाट और यादव) को आगे बढ़ने के अवसर उपलब्ध नहीं हो सके। किसी राजनैतिक पार्टी के पास इन लोगों को आगे बढने के अवसर उपलब्ध करवाने का कोई ठोस कार्यक्रम नहीं है।
प्रजातंत्र में विकेन्द्रीकरण, जवाबदेही और पारदर्शिता का अभाव
डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर, सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस, दोनों एक मजबूत केन्द्र के हामी थे ताकि देश का तेजी से औद्योगिकरण कर रोजगार सृजन किया जा सके। डॉ. अंबेडकर इसलिए भी एक मजबूत केन्द्र सरकार चाहते थे ताकि शक्तिशाली ब्राह्मण लाबी का मुकाबला किया जा सके। बाबासाहेब जानते थे कि राज्य स्तर पर व स्थानीय संस्थाओं में दलित, ऊँची जातियों के दमन का प्रतिरोध नहीं कर सकेंगे। परंतु मजबूत केन्द्र ने नौकरशाही के इस्पाती ढांचे को हाशिए पर पड़े वर्गों की पहुंच से दूर कर दिया है।
सत्ता के केन्द्रीकरण से सेठजी और भट्टजी लाभान्वित हुए हैं। देश का कानूनी और नीति-निर्माता ढांचा व नीतियों को क्रियान्वित करने वाली मशीनरी उनके हितों की संरक्षक बन गई है। भारतीय उद्योगपतियों और विदेशी पूंजी को हर तरह से प्रोत्साहित किया जा रहा है। सामुदायिक संसाधनों पर कुछ लोग कब्जा जमाने की फिराक में हैं। राज्य, इन संसाधनों को सहचर पूंजीवादियों के हाथों में सौंप रहा है। वे इतने शक्तिशाली हैं कि वे राजधानियों में निर्णय लेने की प्रक्रिया को आसानी से प्रभावित कर सकते हैं।
आदिवासियों को उनके जल, जमीन और जंगल से वंचित कर इन बहुमूल्य संसाधनों को पूंजीपतियों को सौंपा जा रहा है। आदिवासियों को लगातार विस्थापन के दौर से गुजरना पड़ रहा है। कुछ लोगों के मुनाफे के लिए उनके जीवन जीने के तरीके और संस्कृति को हाशिए पर डाल दिया गया है। अपनी जमीन से वंचित ये आदिवासी प्रवासी और बंधुआ मजदूर बन रहे हैं।
एक तरफ बेरोजगारों की संख्या बढ रही है तो दूसरी ओर अमीर, और अमीर होते जा रहे हैं। आक्सफेम की एक रिपोर्ट के अनुसार, सबसे अमीर एक प्रतिशत भारतीय, देश की 58 प्रतिशत संपदा के मालिक हैं। जहां धनी लोग स्वर्गिक ऐश्वर्य में जी रहे हैं वहीं लाखों बच्चे भूखे पेट सोने पर मजबूर हैं और कर्ज के बोझ तले दबे किसान आत्महत्या कर रहे हैं। इस सबके बाद भी, सरकारें, लगातार उद्योगपतियों को तरह तरह के अनुदान दे रही हैं और विदेशी पूंजी आकर्षित करने के लिए करों में छूट भी।
बढ़ती असमानता हमारे प्रजातंत्र को विरूपित कर रही है।
गांधीजी चाहते थे कि प्रजातंत्र अंतिम पंक्ति में अंतिम स्थान पर खड़े व्यक्ति का भला करे। सरकारें जब भी कोई निर्णय लें तब वे आम आदमी का ख्याल रखें। वे सत्ता के विकेन्द्रीकरण और निर्णय लेने की पारदर्शी प्रक्रिया के पैरोकार थे। वे चाहते थे कि सत्ता, जनप्रतिनिधियों के हाथों में हो और वे और नौकरशाह दोनों, जनता के प्रति जवाबदेह हों। पिछली यूपीए सरकार में इस तरह की व्यवस्था का निर्माण करने की दिशा में कुछ प्रयास किए गए। सूचना का अधिकार और शिक्षा का अधिकार अधिनियम ऐसे दो महत्वपूर्ण कदम थे। परंतु इन दोनों ही कानूनों का ठीक से कार्यान्वयन नहीं हो रहा है और उन्हें कमजोर करने का प्रयास किया जा रहा है। राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग दंतविहीन है और अल्पसंख्यकों के अधिकारों के उल्लंघन को रोकने में असमर्थ है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग कुछ अधिक शक्तिशाली है क्योंकि उसे मानवाधिकार उल्लंघन के पीड़ितों को मुआवजा दिलवाने का अधिकार है। परंतु राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी हाशिए पर पड़े वर्गों के अधिकारों के व्यवस्थागत उल्लंघनों को रोकने में असमर्थ रहा है।
पुलिस की ज्यादतियों को रोकने के लिए भी कोई प्रभावकारी ढांचा देश में उपलब्ध नहीं है। पुलिस दुर्भावनावश लोगों को गिरफ्तार कर उनके विरूद्ध झूठे प्रकरण दर्ज करती है, हिरासत में लोगों को शारीरिक प्रताड़ना दी जाती है और निर्दोषों को फर्जी मुठभेड़ों में मार दिया जाता है। सत्ता के इस तरह के दुरूपयोग के विरूद्ध आवाज उठाने के लिए कोई प्रभावी मंच उपलब्ध नहीं है। गैरकानूनी गतिविधियां निरोधक अधिनियम और सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम जैसे कानून पुलिस और अन्य सुरक्षाबलों की जवाबदेही को कम करते हैं।
मीडिया, जो लोकतंत्र और लोगों के अधिकारों का पहरेदार माना जाता है, का व्यावसायीकरण हो गया है और वह कॉर्पोरेट दुनिया का हिस्सा बन सरकार के हितों का संरक्षक बन गया है।
सेठजी-भट्टजी वर्ग ऐसी विचारधाराओं का जाल बुन रहा है जो बढती असमानताओं को नजरअंदाज करने वाली हैं। आक्रामक देशभक्ति को बढावा दिया जा रहा है और लोगों से कहा जा रहा है कि वे सेना की पूजा करें। राष्ट्रवाद के नाम पर गौ राष्ट्रवाद देश पर थोपा जा रहा है।
प्रजातंत्र की सफलता के लिए आवश्यकता इस बात की है कि देश के नागरिक सतर्क रहें और हम ऐसे ढांचों और संस्थाओं का निर्माण करें जो सत्ताधारियों को जवाबदेह बनाएं। राष्ट्रवाद का उद्देश्य सभी नागरिकों को शिक्षित कर उन्हें विवेकशील बनाना होना चाहिए। सभी को आगे बढने के समान अवसर मिलने चाहिए। आने वाले वर्षों में समान अवसर आयोग का गठन किया जाना और ऐसे कानूनों का निर्माण आवश्यक है जो नौकरशाहों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाएं।
(मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)