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भाजपा के 'शिष्ट व शर्मीले' प्रत्याशी सपा की किन्नर प्रत्याशी के सामने पसीना-पसीना हो रहे हैं

'आर्ट ऑफ लिविंग' के संस्थापक श्री श्री रविशंकर को जाने अचानक क्या सूझी है कि वे अहलेदानिश द्वारा बहुत सोच-समझकर उलझाई गई रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद की गुत्थियां सुलझाने आ पहुंचे हैं

कृष्ण प्रताप सिंह

अयोध्या में नगर निकाय चुनाव हो रहे हैं, नई नवेली नगर निगम घोषित हुई वह अपने पहले मेयर के सुहाने सपनों में खोई हुई है, भारतीय जनता पार्टी के 'शिष्ट व शर्मीले' प्रत्याशी ऋषिकेश उपाध्याय, समाजवादी पार्टी की किन्नर प्रत्याशी गुलशन बिन्दू के सामने पसीना-पसीना हो रहे हैं और मिथिला से होने के नाते जीजा-साली का रिश्ता जोड़कर उन्हें धाराप्रवाह गालियां सुना रही बिन्दू ने माहौल में होली के रंग भर दिये हैं, 'आर्ट आफ  लिविंग' के संस्थापक श्री श्री रविशंकर को जाने अचानक क्या सूझी है कि वे अहलेदानिश द्वारा बहुत सोच-समझकर उलझाई गई रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद की गुत्थियां सुलझाने आ पहुंचे हैं।

क्या पता इस माहौल का असर है या कुछ और कि कोई भी उन्हें गम्भीरता से नहीं ले रहा। न वे जिनका उक्त विवाद से नजदीक या दूर का कोई रिश्ता है या रहा है और न ही वे, जिनका उससे कभी कोई वास्ता नहीं रहा। रामविलास दास वेदांती जैसी कोई 'शख्सियत'' उन्हें जली-कटी सुना रही है तो राजबब्बर जैसा कोई कांग्रेसी मजाक उड़ा रहा है। यह कहकर कि श्री श्री ऐसा मजाक पहली बार नहीं कर रहे। वे लेबनान और सीरिया मसला सुलझाने की कोशिश भी कर चुके हैं और कश्मीर की समस्या से भी 'जूझ' चुके हैं। ऐसे में उन्होंने अयोध्या विवाद को निपटाने की हसरत भी पाल ली है तो उन पर उन्हीं की शैली में मुस्कुराया ही जा सकता है। लेकिन श्री श्री का सौभाग्य कि इसके बावजूद वे मीडिया की भरपूर सुर्खियां बटोर रहे हैं।

खासकर उस मीडिया की जो

श्री श्री की ही तरह न तो राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद की विभिन्न तहों या जटिलताओं से वाकिफ हैं और न इस बात से कि यह विवाद अयोध्या का इकलौता या सबसे बड़ा गम नहीं है। हां, उसके नाम पर चलाई जा रही धर्म की राजनीति का कुफल यह हुआ है कि अयोध्या के साधु-संतों व महंतों तक ने खुद को न सिर्फ सपाई, भाजपाई, कांग्रेसी व बसपाई संतों के रूप में बल्कि जातियों के आधार पर भी बांट रखा है। अयोध्या में प्राय: हर जाति के अलग-अलग मंदिर हैं। यों, कहा जाता है कि अयोध्या का हर घर एक मंदिर है, जिसका पूरा सच यह है कि हर मंदिर एक व्यावसायिक प्रतिष्ठान है, जिनकी परिसम्पत्तियों के विवाद संतों-महंतों को प्राय: अदालतों में खड़ा रखते हैं। न्यायिक सूत्र कहते हैं कि स्थानीय अदालतों को संतों के विवादों से मुक्त कर दिया जाये तो उनका काम काफी हल्का हो जाये।

सरकारी व निजी सुरक्षा अमले से घिरे रहने और प्राय: लग्जरी कारों में नजर आने वाले संत-महंत यजमानों को भले ही लोभ-मोह व माया से परे रहने का उपदेश देते हैं, मंदिरों की परिसम्पत्तियों के विवादों में प्राय: लाशें गिराते या गिरवाते रहते हैं। क्योंकि अदालती फैसले की लम्बी प्रतीक्षा उनसे की नहीं जाती और बमों व गोलियों से तुरत-फुरत फैसला बहुत लुभाता है। घातक आग्नेयास्त्र उन्हें इतने पसंद हैं कि उनके लाइसेंस पाने के उनके सैकड़ों आवेदन फैजाबाद के जिलाधिकारी के कार्यालय में धूल फांक रहे हैं। अरसा पहले हुई रामजन्मभूमि के मुख्य पुजारी लालदास की नृशंस हत्या के बाद से संतों की चरण दाबकर चेला बनने और गला दबाकर महंत बन बैठने की परम्परा का बोझ ढोते-ढोते अयोध्या अपनी ऐसी छवि की बन्दिनी हो गई है कि याद नहीं कर पाती कि कितने समय पहले यथार्थ की जमीन पर सहज होकर चली थी।

वरिष्ठ कथाकार दूधनाथ सिंह ने अपने 'आखिरी कलाम' में अयोध्या को धर्म की मण्डी के अतिरिक्त शहर का उच्छिष्ट और गांवों का वमन कहा था। इस उच्छिष्ट और वमन के चलते अयोध्या को छूकर बहने वाली सरयू नदी का वह पानी बुरी तरह प्रदूषित है जिससेे भगवान के भोग के सारे व्यंजन बनते हैं। फिर भी शराब फैक्टरियों व उद्योगों के सरयू में आने वाले प्रदूषण के ट्रीटमेंट के लिए कुछ नहीं किया जा रहा। अब तो उसे खुद को पर्यटन के अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर लाये जाने और गरिमा के अनुसार विकास की ढपोरशंखी योजनाओं की आदत सी पड़ गई है।

अयोध्या की गलियों के बारे में कहा जाता है कि वे दुनिया की सबसे सुन्दर पर सबसे गन्दी गलियां हैं। इस नगरी के सुन्दरीकरण व पर्यटन के अन्तरराष्ट्रीय मानचित्र पर लाने के कई प्रयास पिछले दशकों में दम तोड़ चुके हैं। एक समय अयोध्या पैकेज की बड़ी चर्चा थी पर चर्चा होकर ही रह गई। क्योंकि इसके प्राचीन वैभव, संस्कृति व वास्तुकला का गौरव गान तो बहुत होता है पर समझा नहीं जाता कि पर्यटक किसी भी शहर की आत्मा से साक्षात्कार करने आते हैं और इस दृष्टि से उसका वर्तमान भी समृद्ध होना चाहिए।

अयोध्या में सुरक्षा व्यवस्था को छोड़ दीजिए तो कुछ भी ठीक नहीं है। राम की पैड़ी, रामकथा पार्क और चौधरी चरणसिंह घाट जैसे पर्यटकों के आकर्षण के गिनती के स्थल हैं भी, तो उपयुक्त देखरेख के अभाव में गंधाते रहते हैं। दूसरी ओर जनरुचियां इतनी बिगाड़ दी गई हैं कि धार्मिक फिल्मों के आवरण में अश्लील सीडियां तक बिकती पाई जाती हैं। धर्म की यह नगरी नशे की गिरफ्त से भी नहीं बच पा रही। जिस फैजाबाद जिले में अयोध्या है, पिछली जनगणना के अनुसार उसकी कुल जनसंख्या 20,88,929 है। इनमें 2,81,273 लोग नगरों या कस्बों में रहते हैं और शेष गांवों में।

पूर्वी उत्तर प्रदेश के दूसरे हिस्सों की तरह गरीबी यहां भी राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा है। लेकिन गरीबों की कितनी फिक्र की जाती है, इसे समझना हो तो जानना चाहिए कि अभी गरीबों की पहचान का काम भी पूरा नहीं हो पाया है। लेखपालों को अलिखित निर्देश हैं कि वे किसी की आय भी इतनी कम होने का प्रमाणपत्र जारी न करायें जिससे वह अपने को गरीब प्रमाणित कर सके।

पूरे फैजाबाद जिले में हाथ कागज, दफ्ती बनाने, दस्तकारी हैडलूम और जूते बनाने के छिटपुट उद्योगों के अलावा उद्योग के नाम पर कुछ भी नहीं है। शायद इसका कारण क्षेत्र में किसी भी तरह के कच्चे माल की अनुपलब्धता है। सरयू में सिर्फ बालू पाई जाती है, माफिया जिसका अवैध खनन करके कमाई करते हंै। एक बार बालू से शीशा बनाने के उद्योग की स्थापना की बात चली थी पर वह भी आई गई हो गई। 

यहां अनेक लोग खड़ाऊ, मूर्तियों, कंठियों, फूलमालाओं व सौन्दर्य प्रसाधनों आदि की बिक्री से जीविका अर्जित करते हैं मगर चिकित्सा और स्वास्थ्य की सुविधाओं की दृष्टि से किसी का कोई पुरसाहाल नहीं है। भगवान श्रीराम के नाम पर जो अस्पताल है, वह भी भगवान भरोसेे ही है।

यहां गरीबी के मुख्य दो कारण बताये जाते हैं। पहला यह कि भूमि उपजाऊ होने के बावजूद खेती किसानी पिछड़ी हुई है। दूसरा यह कि नवयुवकों को उपयुक्त शिक्षा व रोजगार नहीं मिल पा रहे। लेकिन ख्ेाती किसानी की हालत सुधारने और उससे सम्बन्धित शोधों को बढ़ावा देेने के लिए आचार्य नरेन्द्रदेव के नाम पर जो कृषि विश्वविद्यालय खोला गया, भ्रष्टाचार, राजनीति व काहिली ने उसकी जड़ें भी खोखली कर रखी हैं। 

डॉ. राममनोहर लोहिया के नाम पर जो अवध विश्वविद्यालय है, विडम्बना यह कि राजनीतिक तुष्टीकरण के चलते उसमें सिन्धी भाषा की पढ़ाई शुरू करने की बात कही जा रही है, लेकिन उसमें अभी तक हिन्दी का विभाग ही नहीं है, जबकि डॉ. लोहिया खुद को हिन्दी के प्रति समर्पित बताते थे। इस विश्वविद्यालय में ऐसा कुछ भी नहीं होता जिससे, उसके नाम की थोड़ी बहुत भी प्रासंगिकता सिद्ध हो। कहने को उसमें एक श्रीराम शोधपीठ भी है पर उसका पिछले बीस-पचीस वर्ष में अयोध्या को लेकर हुए महत्व के शोधों में कोई हिस्सा नहीं है। यही हाल महत्वाकांक्षी अयोध्या शोधसंस्थान का भी है। 

फिलहाल, कोई नहीं जानता कि अयोध्या को इन गमों से निजात कब मिलेगी।

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