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बहुजन डाइवर्सिटी मिशन का हस्ताक्षर अभियान!

- अजय कुमार चौधरी

गत 15 मार्च, 2021 को दिल्ली के हिंदी भवन में ‘बहुजन डाइवर्सिटी मिशन’(बीडीएम) का 15 वां स्थापना दिवस समारोह आयोजित हुआ, जिसकी विविध कारणों से देश भर में काफी चर्चा हुई. कोरोना के खौफ के बावजूद इसमें दिल्ली से दिलीप मंडल, डॉ. अनिल जयहिंद, पत्रकार महेंद्र यादव, सत्येन्द्र पीएस, सुब्रतो चटर्जी, प्रो. सूरज मंडल, डॉ. सोनू भरद्वाज जैसे चर्चित बुद्धिजीवियों सहित झारखण्ड, बिहार, मुंबई, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश इत्यादि विभिन्न प्रान्तों के ख्यातिप्राप्त बुद्धिजीवियों ने शिरकत किया. इस बार का आयोजन मुख्यतः कोरोना पर केन्द्रित रहा, जिसमें साइकल गर्ल ज्योति पासवान सहित कुल 6 शख्सियतों को डाइवर्सिटी मैन ऑफ़ द इयर-2020, डाइवर्सिटी वुमन ऑफ़ द इयर – 2020 के ख़िताब से नवाजा गया.

उक्त अवसर पर एच. एल.दुसाध के संपादन में 1250 पृष्ठीय ‘डाइवर्सिटी इयर बुक- 2020’, एच.एल. दुसाध और चन्द्र भूषण सिंह यादव द्वारा सम्पादित ‘तेजस्वी यादव : बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में एक नए महानायक का उदय’ तथा एच.एल दुसाध द्वारा लिखित 520 पृष्ठीय ‘मिशन डाइवर्सिटी 2020‘ जैसी 3 खास किताबों का विमोचन हुआ. किन्तु बहुजन डाइवर्सिटी मिशन का यह आयोजन एक अन्य कारण से भी चर्चा का विषय बना, वह था बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के अध्यक्ष एच. एल. दुसाध द्वारा प्रस्तुत ‘शक्ति के स्रोतों के न्यायपूर्ण बंटवारे के लिए हस्ताक्षर अभियान’ की परिकल्पना, जिसे लेकर डाइवर्सिटी समर्थक बुद्धिजीवियों में चर्चा का दौर शुरू हो गया है.

अप्रैल 4-9 तक दुसाध साहब की कोलकाता यात्रा प्रस्तावित थी. इस अवसर पर मैंने हस्ताक्षर अभियान पर उनसे वार्तालाप करने की तैयारी कर रखी थी. किन्तु कोरोना के नए वेभ के कारण उनकी यात्रा स्थगित हो गयी और मैं उनका साक्षात्कार नहीं ले सका. बाद में वही साक्षात्कार टेलीफोन पर लिया.

प्रस्तुत है शक्ति के स्रोतों के न्यायपूर्ण बंटवारे के लिए हस्ताक्षर अभियान पर डाइवर्सिटी मैन ऑफ़ इंडिया के रूप में विख्यात 83 किताबों के लेखक/ संपादक एच.एल. दुसाध का साक्षात्कार – अजय चौधरी

1-अजय कुमार चौधरी- दुसाध साहब बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के 15 वें स्थापना दिवस के सफल आयोजन और उक्त अवसर पर रिलीज हुई आपकी तीन किताबों के लिए ढेरों बधाई. सर! एकाधिक कारणों से यह आयोजन सोशल मीडिया में काफी चर्चित हुआ. किन्तु सोशल मीडिया मीडिया में डाइवर्सिटी मैन ऑफ़ द इयर, डाइवर्सिटी वुमन ऑफ़ द इयर के विजेताओं सहित आपकी तीन नयी किताबों की तो काफी चर्चा हुई पर, उक्त अवसर पर आप द्वारा प्रस्तुत ‘शक्ति के स्रोतों के न्यायपूर्ण बंटवारे के लिए हस्ताक्षर अभियान’ के परिकल्पना की मीडिया में कोई चर्चा नहीं हुई.आखिर क्यों ?

एच.एल. दुसाध – दरअसल इस आयोजन के बाकी चीजों के समक्ष सोशल मीडिया में हस्ताक्षर अभियान की अनदेखी स्वाभाविक थी. डाइवर्सिटी मैन/ वुमन के पुरस्कार एवं किताबों मीडिया में प्रमुखता से चर्चा होना काफी हद तक जायज था. हस्ताक्षर अभियान चर्चा का विषय भी नहीं था,चर्चा का विषय था: कोरोना काल में हुई क्षति की कैसे हो भरपाई! हुआ यह था कि मिशन से जुड़े लोगों ने आयोजन के कुछ दिन पूर्व इस परिकल्पना को उपस्थित विद्वानों के समक्ष रखने का निर्णय लिया. इसी के तहत मिशन की ओर से आनन्-फानन में इस सम्बन्धी पम्फलेट व अन्य पेपर तैयार कराकर उपस्थित लोगों के मध्य वितरित कर हस्ताक्षर अभियान पर गंभीरता से विचार करने का प्रस्ताव मैंने विषय प्रवर्तन करते हुए रखा. लोगों को यह परिकल्पना पसंद आई और इसे आगे बढ़ाने के लिए लिए हम सब आंबेडकर जयंती के अवसर पर बैठने वाले थे. पर, कोरोना की दूसरी वेभ के कारण बैठक न हो सकी. बहरहाल बैठक भले न हो सकी पर, डाइवर्सिटी समर्थकों सहित अन्य बहुजन बुद्धिजीवियों के मध्य इसे लेकर विचार-मंथन का दौर जारी है और सब कुछ सामान्य रहा तो आगामी 26 जुलाई से इसकी शुरुआत हो सकती है.

2- अजय कुमार चौधरी : सर, यह बताएं यह अभियान क्या है और इसका ख्याल आपके जेहन में कैसे आया?

एच.एल. दुसाध : सबसे पहले तो आपको बता दूं हस्ताक्षर अभियान आन्दोलन का एक प्रभावी जरिया है और विभिन्न संगठन अपने मांगपत्र की ओर सरकारों का ध्यान आकर्षित करने के लिए इस किस्म का अभियान चलाते रहते हैं. मसलन दिसंबर, 2018 में गुडगाँव के अखिल भारतीय हिन्दू क्रांति दल ने राम मंदिर निर्माण के लिए हस्ताक्षर अभियान चलाया. दिसंबर 2019 में एनसीपी वालों ने शरद पंवार को भारत रत्न दिलाने के लिए हस्ताक्षर अभियान चलाया. चार साल पहले बहुजनवादी संगठनों में ‘बामसेफ’ और ‘भारत मुक्ति मोर्चा’ ने लोकतंत्र बचाने के लिए 100 दिन में 5 करोड़ लोगों का हस्ताक्षर लेने का ऐसा ही अभियान चलाया. पिछले वर्ष बनीखेत में भाजपा महिला मोर्चा ने अभिनेत्री कंगना रनौत के समर्थन में हस्ताक्षर अभियान चलाया. यदि खोज किया जाय तो पता चलेगा देश के कई अंचलों में आज भी कई संगठन अपनी मांगो के समर्थन में हस्ताक्षर अभियान चलाये जा रहे हैं. जहां तक बीडीएम के 15 वें स्थापना दिवस पर चर्चा में आये इस हस्ताक्षर अभियान का सवाल है, यह कोई नया नहीं है. यह 2018 में बीडीएम द्वारा धन-दौलत के न्यायपूर्ण बंटवारे के लिए चलाये गए हस्ताक्षर अभियान का ही विस्तार है. आपको याद दिला दूं 2018 के जनवरी में ऑक्सफेम की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद पूरे देश के साथ बीडीएम से जुड़े लोग कुछ ज्यादे ही स्तब्ध हुए थे. ऑक्सफाम की उस रिपोर्ट में बताया गया था कि देश की सृजित दौलत का 73% हिस्सा टॉप की 1% आबादी वाले लोगों के हाथ मे चला गया है. ऑक्सफेम की वह रिपोर्ट भारत में आर्थिक और सामाजिक के शिखर पर पहुचने की खुली घोषणा थी. उसके प्रकाशित होने पर अख़बारों ने अपनी संपादकीय में लिखा था-‘ आर्थिक गैर-बराबरी समाज में उथल-पुथल का वजह बनती है. सरकार और सियासी पार्टियों को इस समस्या को गंभीरता से लेना चाहिए. संसाधनों और धन का न्यायपूर्ण बंटवारा कैसे हो, यह सवाल अब प्राथमिक महत्त्व का हो गया है.’ चूँकि आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे के लिए ही बहुजन डाइवर्सिटी मिशन वजूद में आया है, इसलिए बीडीएम ने ऑक्सफेम की रिपोर्ट को अतिरिक्त गंभीरता से लिया और सरकार व सियासी पार्टियों का ध्यान संसाधनों और धन-दौलत के न्यायपूर्ण की ओर आकर्षित करने के लिए 15 मार्च, 2018 से धन-दौलत के न्यायपूर्ण बंटवारे के लिए हस्ताक्षर अभियान की शुरुआत किया गया. वह अभियान उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखण्ड के 15 जिलों में चलाया गया था पर, लोगों का प्रत्याशित रिस्पोंस न मिलने के कारण स्थगित करना पड़ा.

किन्तु 2018 के मुकाबले आज आर्थिक और सामाजिक विषमता की स्थिति बहुत, बहुत, बहुत ही भयावह है. 2018 के जनवरी में ऑक्सफेम की रिपोर्ट में विषमता का जो भयावह चित्र उभरा, उसे बदलने का सरकारों द्वारा कोई सकारात्मक प्रयास नहीं हुआ. फलतः शक्ति के समस्त स्रोतों- आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक और धार्मिक- पर आज जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग का औसतन 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा हो चुका है. शक्ति के स्रोतों पर जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के बेनजीर वर्चस्व के मध्य जिस तरह विनिवेशीकरण और निजीकरण के साथ लैट्रल इंट्री को जूनून की हद तक प्रोत्साहित करते हुए रेल, हवाई अड्डे, चिकित्सालय, शिक्षालय इत्यादि निजी क्षेत्र को सौपने सहित ब्यूरोक्रेसी के निर्णायक पद जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग को सौपें जा रहे हैं, उससे संविधान की उद्द्येशिका में उल्लिखित तीन न्याय- आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक - पूरी तरह एक सपना बनते जा रहे है. आर्थिक और सामाजिक विषमता की विस्फोटक स्थिति के मध्य, जिस तरह विनिवेशीकरण निजीकरण और लैट्रल इंट्री के जरिये शक्ति के समस्त स्रोतों से वंचित बहुजनों के बहिष्कार का एक तरह से अभियान चल रहा है, उससे ऐसी स्थिति पैदा होती जा रही है, जिसके फलस्वरूप डॉ. आंबेडकर के शब्दों में,’विषमता से पीड़ित जनता लोकतंत्र के उस ढाँचे को विस्फोटित कर सकती है, जिसे संविधान निर्मात्री सभा ने बड़ी मेहनत से तैयार किया था.’ शक्ति के स्रोतों पर सुविधाभोगी वर्ग के दबदबे ने बहुसंख्य लोगों के समक्ष जैसा विकट हालात पैदा कर दिया है, वैसे से ही हालातों में दुनिया के कई देशों में स्वाधीनता संग्राम संगठित हुए। ऐसे ही हालातों में अंग्रेजों के खिलाफ खुद भारतीयों को स्वाधीनता संग्राम छेड़ना पड़ा था. कुल मिलाकर आज जो हालात हैं, कोई भी संविधान व समता - प्रेमी संगठन मूक दर्शक बनकर नहीं रह सकता. खासकर बीडीएम जैसा संगठन तो इस हालात में बिलकुल ही निरा दर्शक बने नहीं रह सकता, क्योंकि यह आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे के लिए ही वजूद में आया है. यही कारण है बीडीएम इस विकट में स्थिति में अपना कर्तव्य निर्वहन का मन बना लिया है और 2018 में जहाँ धन-दौलत के न्यायपूर्ण बंटवारे के हस्ताक्षर अभियान को विराम दिया था, वहीँ से देश के बाकी समतावादी संगठनों को साथ लेकर पढ़े-लिखे लोगों के मध्य शक्ति के स्रोतों के न्यायपूर्ण बंटवारे के लिए हस्ताक्षर अभियान को आगे बढ़ाना चाहता है.

3- अजय कुमार चौधरी – सर, आपकी बातों से स्पष्ट है कि इस अभियान का मुख्य मकसद भयावह रूप में फैली आर्थिक और सामाजिक विषमता के खिलाफ न सिर्फ सरकारों और सियासी पार्टियों का ध्यान आकर्षित करना है, बल्कि इसके निराकरण के लिए जन - दबाव भी बनाना है. पर, अगर यही बीडीएम का मकसद है तो 2018 की भांति इस बार भी क्यों नहीं धन-दौलत के न्यायपूर्ण बंटवारे के हस्ताक्षर अभियान की बात उठा रहे हैं : क्यों आप इस बार शक्ति के स्रोतों के न्यायपूर्ण बंटवारे के लिए हस्ताक्षर अभियान की बात कर रहे हैं?

एच.एल. दुसाध – आपका सवाल जायज है. देखिये, 2018 में ऑक्सफेम की रिपोर्ट सामने आने के बाद जिस स्थिति का उद्भव हुआ था, उसका निराकरण मात्र धन-दौलत के न्यायपूर्ण बंटवारे से हो सकता था. इसलिए तब हस्ताक्षर अभियान के साथ धन-दौलत के न्यायपूर्ण बटवारे का मुद्दा जोड़ा गया था. किन्तु इस बार स्थिति 2018 के मुकाबले बहुत ही ज्यादे गंभीर है: इस बार मामला सीधा मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी से जुड़ गया है. वर्तमान में यह गैर –बराबरी उस स्थिति को भी पार कर गयी जिस स्थिति में बाबा साहेब ने संविधान के ढाँचे के विस्फोटित होने की आशंका जाहिर की थी. ऐसे में अगर संविधान से प्यार है: देश की एकता और अखंडता की चाह है तो सीधे आर्थिक और सामाजिक विषमता के खिलाफ सर्वशक्ति लगानी होगी. चूँकि बीडीएम अपने स्थापना के समय जारी बहुजन डाइवर्सिटी मिशन का घोषणापत्र में ही नहीं, बल्कि संगठन की ओर से अबतक प्रकाशित शताधिक किताबो में यह बात जोर देकर कहता रहा है कि आर्थिक और सामाजिक विषमता ही मानव जाति की सबसे बड़ी समस्या है तथा सारी दुनिया में ही इसकी सृष्टि शक्ति के स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक- का विभिन्न सामाजिक समूहों के स्त्री और पुरुषों के मध्य असमान बंटवारे से होती रही है, इसलिए बीडीएम इससे पार पाने के लिए भारत के प्रमुख सामाजिक समूहों- सवर्ण, ओबीसी, एससी/एसटी और धार्मिक अल्प संख्यकों- के स्त्री और पुरुषों के मध्य शक्ति के स्रोतों के न्यायपूर्ण बंटवारे का अभियान चलाएगा. यही कारण है आज आर्थिक और सामाजिक विषमता के एकदम एक्सट्रीम पर पहुचने के बाद बीडीएम धन-दौलत की जगह शक्ति के स्रोतों के न्यायपूर्ण बंटवारे के लिए हस्ताक्षर अभियान चलाने का मन बनाया है.             

4- अजय कुमार चौधरी – बहुत खूब! हम इसके लिए बीडीएम को साधुवाद देते हैं. बहरहाल आर्थिक और सामाजिक विषमता से पार पाने के लिए शक्ति के स्रोतों का न्यायपूर्ण बंटवारा बहुत ही अनूठी परिकल्पना है, पर, इस परिकल्पना को मूर्त रूप देने के लिए बीडीएम का एक्शन- प्लान क्या है ?

एच. एल. दुसाध - देखिये, शक्ति के स्रोतों के न्यायपूर्ण बँटवारे के लिए बीडीएम बहुजन संगठनों का संयुक्त मोर्चा बनाकर मुख्यतः बहुजन छात्र और गुरुजनों तथा एक्टिविस्टों पर निर्भर होकर अति-शान्तिपूर्ण तरीके से हस्ताक्षर अभियान चलाएगा. इस अभियान में कहीं भी 50 से अधिक लोगों की भीड़ नहीं जुटाई जाएगी : कहीं भी उग्र धरना –प्रदर्शन आयोजित नहीं होगा.

हस्ताक्षर के लिए 3 पम्फलेट और 1 स्टीकर का सेट लोगों को सुलभ कराया जायेगा. पम्फलेट में एक 6 पेज का मैटर होगा, जिसके जरिये बहुजन छात्र – गुरुजनों और एक्टिविस्टों को हस्ताक्षर अभियान से क्यों जुड़ना है, यह बताया जायेगा. दूसरे 4 पेज वाले पम्फलेट में हस्ताक्षर क्यों देना है यह 2 पेज में बताने के साथ ही और 2 पेज का वह मैटर रेडीमेड पेपर होगा, जिस पर हस्ताक्षर करना है. तीसरा पम्फलेट 6 पेज का होगा, जिसमें यह बताया जायेगा कि बहुजनों की गुलामी से मुक्ति के लिए सर्वव्यापी आरक्षण की लड़ाई क्यों जरुरी है. इसके साथ लोकल ओर्गेनाइजरों को तख्तियों पर लिखे जाने वाले नारे व्हाट्सप सुलभ कराये जायेंगे.

हस्ताक्षर करने वालों को हस्ताक्षर के पेपर सेट के साथ एच.एल. दुसाध की 5 किताबें(1- धन-दौलत के न्यायपूर्ण बंटवारे के लिए सर्वव्यापी आरक्षण की जरुरत(विशेष सन्दर्भ: अमेरिकी और दक्षिण अफ़्रीकी आरक्षण ), पृष्ठ-64, मूल्य 60; 2- हकमार वर्ग (विशेष सन्दर्भ : आरक्षण का वर्गीकरण), पृष्ठ- 64, मूल्य-60; 3- धन के न्यायपूर्ण बंटवारे के लिए डाइवर्सिटी ही क्यों? पृष्ठ- 40, मूल्य-40; 4- आखिरी उम्मीद : बहुजन छात्र, पृष्ठ- 72, मूल्य- 70 तथा 5- बहुजन डाइवर्सिटी मिशन का घोषणापत्र, पृष्ठ - 80,  मूल्य- 80 रूपये) भी व्हाट्सप पर सुलभ करायी जाएँगी.    

बहुजन छात्र और गुरुजन यूनिवर्सिटी और कॉलेज परिसरों में, जबकि एक्टिविस्ट बहुजनों की बस्तियों में जाकर शक्ति स्रोतों के न्यायपूर्ण बँटवारे के समर्थन में हस्ताक्षर लेंगे, जिसकी कॉपी राष्ट्रपति,प्रधानमंत्री, देश के सभी मुख्यमंत्रियों, नीति आयोग, शिक्षा मंत्रालयों, औद्योगिक चैम्बरों, मीडिया समूहों, धर्माचार्यों और समस्त राजनीतिक दलों को भेजी जाएगी.

प्रत्येक जिले में हस्ताक्षर की संख्या 4-5 हजार होने पर स्थानीय कार्यकर्त्ता 25-50 की संख्या में इक्कट्ठा होकर जिलाधिकारी के पास वह जमा कराने जायेंगे. अगर हम यह काम सफलता से अंजाम दे सके तो भीषणतम रूप में फैली आर्थिक और सामाजिक विषमता के खिलाफ सरकारों और सियासी पार्टियों को उचित कदम उठाने के लिए बाध्य कर कर सकेंगे.

5- अजय कुमार चौधरी- इसमें कोई शक नहीं कि हस्ताक्षर अभियान की एक्शन प्लान निर्भूल: एकदम परफेक्ट है. किन्तु आपने जो एक्शन प्लान की रूप-रेखा प्रस्तुत की है, वह बहुत ही खर्चीला है, जिसे देश का कोई भी संगठन झेल नहीं सकता. आपने गौर किया है कि नहीं, इस प्लान के तहत बीडीएम हर हस्ताक्षर करने वाले को 300 रूपये से अधिक मूल्य की किताबें और हस्ताक्षर सेट के रूप में लगभग 10 रूपये का पेपर सामग्री देगा. कुल मिलाकर लगभग सवा 300 रूपये मूल्य की सामग्री हस्ताक्षर करने वालों को देनी है और आपका टारगेट कई करोड़ों लोगों का हस्ताक्षर लेना है. ऐसे में क्या आपको नहीं लगता आर्थिक कारणों से इस अभियान को जमीनी स्तर पर उतारना प्रायः असंभव है ?

एच.एल. दुसाध - आपका कहना बिलकुल सही है. कोई भी व्यक्ति इस खर्चीले अभियान को असंभव ही करार देगा. किन्तु हमने इसकी आर्थिक दिक्कतों का आकलन किया है और एक रास्ता निकाला है. आपको बता दें कि गूगल से प्राप्त सूचना के मुताबिक भारत में इस समय लगभग 70 करोड़ लोग इंटरनेट सेवा का इस्तेमाल कर रहे है. अगर मान लिया जाय कि सुविधाभोगी वर्ग के शतप्रतिशत लोग इंटरनेट यूज कर रहे हैं तो उनकी संख्या 20- 25 करोड़ होगी. अगर इन 20-25 करोड़ लोगों को छोड़ दिया जाय तो कमसे कम 30-35 करोड़ इंटरनेट यूजर ऐसे हैं जो वर्तमान आर्थिक और सामजिक विषमता के दलदल में फँस चुके हैं, जिनके समक्ष आज गुलामी से मुक्ति का प्रश्न बड़ा आकार धारण कर चुका है. हम जिनका हस्ताक्षर लेना चाहते हैं, वह वंचित समूहों का वही 30-35 करोड़ वाला तबका है जो, इन्टरनेट से जुड़ चुका है. इस वर्ग को ही हम लगभग सवा तीन सौ रूपये की लिखित सामग्री मुहैया कराकर हस्ताक्षर लेना चाहते हैं. इतने मूल्य की सामग्री के विनिमय में हम उनसे फिजिकली मिलकर हस्ताक्षर लेने पर 20 रूपये की, जबकि ऑनलाइन हस्ताक्षर के विनिमय में 10 रूपये की सहयोग राशि लेंगे. चूँकि इस अभियान के जरिये हम वंचितों की मुक्ति की लड़ाई भी लड़ रहे हैं. इसलिए आशावादी है कि उनसे सहयोग राशि मिल जाएगी. 20 रूपये की इस राशि में से आधा केन्द्रीय कार्यालय की गतिविधियों को संचालित करने के काम में आएगी, जबकि बाकी आधा अर्थात 10 रूपये हस्ताक्षर कराने वाले स्थानीय संगठनों को दिया जायेगा. इस 10 रूपये में से स्थानीय संगठन कमसे कम 5 रूपये उस कार्यकर्त्ता को देंगे जो किसी के घर पहुँच कर हस्ताक्षर लेंगे. ऐसे में एक कार्यकर्त्ता को यदि एक हस्ताक्षर पर 5 रूपये मिलते हैं तो वह दिन भर में कम से कम 100 लोगों का हस्ताक्षर लेने के लिए खुद ही प्रयत्नशील होगा. क्योंकि इससे उसे मिशन का सुख तो मिलेगा ही, ऊपर से दैनिक खर्चे के लिए कुछ आय भी हो जाएगी. ऐसे में देखिये तो अभियान की पूरी परिकल्पना हस्ताक्षरकर्ताओं के सहयोग पर निर्भर है. क्या आपको नहीं लगता कि सवा तीन सौ के मुक्तिकामी साहित्य के विनिमय में इंटरनेट का यूज करने वाले बहुजन इस अभियान को सफल बनाने के लिए 10- 20 रूपये का सहयोग करने में कोई कमी नहीं करेंगे !

6- अजय कुमार चौधरी- निश्चय ही 300 रूपये के समाज परिवर्तनकारी साहित्य के विनिमय में वंचित वर्गों के लोग दस-बीस देने में पीछे नहीं रहेंगे और इस अभियान को सफल बनायेंगे, ऐसा मुझे भी लगता है. ऐसे में मुझें भी लगता है यह अभिनव अभियान सफल होगा. बहरहाल इस अभूतपूर्व अभियान में स्टीकर और तख्तियों पर चिपकाये जाने वाले नारों की क्या उपयोगिता है ?                    

एच. एल. दुसाध - बढ़िया सवाल किया आपने. जैसा कि पहले आपको बताया हूँ कि इस हस्ताक्षर अभियान का मकसद आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे लिए शक्ति के स्रोतों के न्यायपूर्ण बंटवारे की ओर न सिर्फ सरकारों और सियासी पार्टियों का ध्यान आकर्षित करना है, बल्कि इसके लिए उचित कदम उठाने के लिए उन पर दबाव भी बनाना है. इसके लिए सबसे जरुरी है कि शक्ति के स्रोतों का असमान व अन्यायपूर्ण बंटवारा एक राष्ट्रव्यापी मुद्दा बने. मुद्दा बने, इसके लिए हम विविध तरीके अपनाएंगे, जिसमें एक यह स्टीकर भी है जो हस्ताक्षर सेट के पेपर के साथ लोगों को अपने घरों के दरवाजे/ दीवारों पर चिपकाने के लिए दिया जायेगा. 4 कलर के 3 x 9 इंच के इस बेहद आकर्षक स्टीकर पर किसी न किसी बहुजन महापुरुष की तस्वीर रहेगी, जिस पर बोल्ड अक्षरों में लिखा होगा,’ टॉप की 10 % आबादी के कब्जे में 90 % ज्यादा शक्ति के स्रोत क्यों!’ इस मैसेज के साथ इसमें बीडीएम के 10 सूत्रीय एजेंडे - मिलिट्री, न्यायपालिका सहित सरकारी और निजी क्षेत्र की सभी प्रकार की नौकरियों : सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, पार्किंग-परिवहन, छोटे बड़े शिक्षण संस्थाओं, फिल्म -मीडिया, विज्ञापन निधि, मंदिर-मठों की जमीन और पौरोहित्य; पंचायत-शहरी निकाय-संसद- विधानसभा; राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री- मुख्यमंत्री –राज्यपाल इत्यादि के कार्यालयों में कार्यरत कार्यबल, मंत्रीमंडलों - में सामाजिक और लैंगिक विविधता का प्रतिबिम्बन कराने की मांग उठाई गयी है. कुल मिलाकर 100 से भी कम शब्दों में इस अभियान के सन्देश को इसमें लिपिबद्ध किया गया है. ऐसे स्टीकर को जब लोगों के दरवाजों, दीवारों व पब्लिक प्लेस पर चिपकाया जायेगा तो मुद्दा आसानी से जन-जन तक पहुँच जायेगा. इसी तरह शक्ति के स्रोतों के न्यायपूर्ण बंटवारे के लिए ए-4 साइज़ के पेपर पर 30 के करीब ऐसे नारे तैयार किये गए है,जिन्हें तख्तियों पर चिपका कर जनता का ध्यान आर्थिक और सामाजिक विषमता की ओर आकर्षित किया जा सकेगा. इसका सबसे बड़ा इस्तेमाल डीएम ऑफिस में हस्ताक्षर जमा करने के लिए जाते समय किया जायेगा. 25-50 की संख्या में हस्ताक्षर जमा करने जाते समय लोग मुंह से नारेबाजी करने के बजाय हाथो में इन नारों की तख्तियां लिए रहेंगे. इससे नारेबाजी करने के बजाय ज्यादा प्रभावी तरीके से सन्देश लोगों के बीच पहुँच सकेगा. तो कुल मिलाकर स्टीकर और नारे इस अभियान का अहम् हिस्सा हैं, जिसके जरिये आर्थिक और सामाजिक विषमता के मुद्दे को लोगों के मध्य प्रभावी तरीके से ले जा सकेंगे.      

7- अजय कुमार चौधरी- आपने कुछ देर पहले कहा है कि वर्तमान में शक्ति के स्रोतों पर सुविधाभोगी वर्ग के दबदबे ने बहुसंख्य लोगों के समक्ष जैसा विकट हालात पैदा कर दिया है, वैसे से ही हालातों में दुनिया के कई देशों में स्वाधीनता संग्राम संगठित हुए। ऐसे ही हालातों में अंग्रेजों के खिलाफ खुद भारतीयों को स्वाधीनता संग्राम छेड़ना पड़ा था. लेकिन सर, मेरा मानना है कि आपने विषमता की जो भयावह तस्वीर खींची है, ऐसे ही हालातों में तो हथियारबंद क्रांतियां भी हुईं; खुद भारत में नक्सल आन्दोलन पनपा. ऐसे में क्या यह मुमकिन नहीं कि इस हालात से पार पाने के लिए कोई संगठन हथियारबंद आन्दोलन का आह्वान करे ! अगर ऐसा होता है क्या बीडीएम से जुड़े लोग उन्हें सक्रिय सहयोग न सही, कम से कम नैतिक समर्थन देंगे ?

एच.एल.दुसाध – आपने बिलकुल सही कहा. आज की तारीख में आर्थिक और सामाजिक विषमता की जैसी भयावह खाई पैदा हो चुकी है, वैसे ही हालातों में दुनिया कई देशों में खूनी क्रांतियां घटित हुईं : खुद भारत में ही रूस- चीन को मॉडल बनाते हुए नक्सल आन्दोलन शुरू हुआ, जिसका खामियाजा आज भी देश को भोगना पड़ रहा है. बहरहाल विगत वर्षों में रूस और चाइना की खूनी क्रांतियों से प्रेरणा लेकर बन्दूक के बल पर सत्ता कब्जाने का सपना देखने वालों की संख्या में कमी जरुर आई है पर, उनसे यह देश आज भी पूरी तरह मुक्त नहीं हुआ है. मुमकिन है आज वे नए सिरे से सक्रिय हो जाएँ. किन्तु बीडीएम से जुड़े लोग उनका किसी भी तरह से समर्थन नहीं कर सकते. इसका कारण यह है कि बीडीएम मानता है कि जिन लोगों ने भारत में खूनी क्रान्ति क्रान्ति का मुहिम चलाया है, वे उस सुविधाभोगी समुदायों से रहे, जिनका पहले भी शक्ति के स्रोतों पर अपार कब्ज़ा था और आज तो प्रायः 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा हो गया है. इन लोगों ने कभी भी सुविधाभोगी वर्ग के शक्ति के स्रोतों पर वर्चस्व को ध्वस्त करने का नक्शा पेश नहीं किया. उन्होंने प्रकारांतर में वोट के जरिये भारत मे घटित होने वाली लोकतान्त्रिक क्रांति के अनुकूलतम हालात को व्यर्थ करने के लिए खूनी क्रांति का आह्वान किया और निरीह वंचित युवाओं को इससे जोड़ा भी। आज शासक दलों की सवर्णपरस्त-नीतियों के कारण भारत में लोकतान्त्रिक क्रांति का अभूतपूर्व मंच सज चुका है, जिसे व्यर्थ करने के लिए एक बार फिर रूस- चीन को मॉडल मानने वाले सक्रिय हो सकते हैं, जिनका दो कारणों से हम कभी भी समर्थन नहीं करेंगे. पहला, खूनी क्रांति के जरिये सत्ता दखल करने वाले सवर्ण जब सत्ता में आयेंगे तो वे स्व-वर्णीय हित के हाथों मजबूर होकर राजसत्ता का इस्तेमाल विविध सामाजिक समूहों के मध्य शक्ति के स्रोतों के वाजिब बंटवारे में बिलकुल ही नहीं करेंगे. दूसरा यह कि वोट के जरिये मिली तानाशाही सत्ता में समाज को बदलने की ताकत बंदूक के बल पर अर्जित सत्ता से बहुत ज्यादा है, यह भारत में संघ प्रशिक्षित प्रधानमंत्रियों, खासकर नरेंद्र मोदी और दक्षिण अफ्रीका में मंडेला के लोगों ने साबित कर दिया है.    

प्रधानमन्त्री मोदी ने वर्ग संघर्ष का प्रायः खुला खेल खेलते हुए, जिस तरह विगत वर्षों में राज्य का इस्तेमाल कर निजीकरण- विनिवेशीकरण- लैटरल इत्यादि के जरिये सारा कुछ जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग के हाथों में सौपने व वर्ग-शत्रु वंचित बहुजनों को गुलामों की स्थिति में पहुचाने का जो काम शानदार तरीके से अंजाम दिया है, क्या वह बंदूक के बल पर अर्जित सत्ता के जरिये मुमकिन हो पाता ? क्या बंदूक की जोर से अर्जित सत्ता के जरिये अनुच्छेद 370 का खात्मा, राम मंदिर निर्माण का शिलान्यास, नागरिक संशोधन कानून इत्यादि सहित सवर्ण- हित में अन्य कई कानून इतनी आसानी से पारित करा पाते? मोदी जी ने साबित कर दिया है कि वोट के जरिये मिली तानाशाही सत्ता से जितने बड़े- बड़े काम अंजाम दिए जा सकते हैं, वैसा हथियार प्रयोग के जरिये मिली सत्ता से नहीं किये जा सकते. अगर प्रधानमन्त्री मोदी ने डेमोक्रेटिक व्यवस्था में मिली तानाशाही सत्ता की ताकत का अहसास भारत में कराया है तो वही काम उस दक्षिण अफ्रीका में मंडेला के लोगों ने कर दिखाया है, जिसकी भारत से सर्वाधिक साम्यता है. 

स्मरण रहे दक्षिण अफ्रीका विश्व का एकमात्र ऐसा देश है, जिसकी भारत से सर्वाधिक साम्यताएं हैं. दक्षिण अफ्रीका में 9-10 प्रतिशत अल्पजन गोरों, प्रायः 79 प्रतिशत मूलनिवासी कालों और 10-11 प्रतिशत कलर्ड (एशियाई उपमहाद्वीप के लोगों) की आबादी है. वहां का समाज तीन विभिन्न नस्लीय समूहों से उसी तरह निर्मित है जैसे विविधतामय भारत समाज अल्पजन सवर्णों, मूलनिवासी बहुजनों और धार्मिक अल्पसंख्यकों से. जिस तरह दक्षिण अफ्रीका में विदेशागत गोरों का शक्ति के स्रोतों पर 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा रहा है, ठीक उसी तरह भारत में 15 प्रतिशत सवर्णों का 80-90 प्रतिशत शक्ति के स्रोतों पर कब्ज़ा कायम है. जिस तरह दक्षिण अफ्रीका के मूलनिवासी बहुसंख्य हो कर भी शक्ति के स्रोतों से पूरी तरह बहिष्कृत रहे, प्रायः वैसे ही भारत के मूलनिवासी दलित, आदिवासी, पिछड़े और इनसे धर्मान्तरित तबके भी हैं. जिस तरह दक्षिण अफ्रीका में सभी स्कूल, कॉलेज, होटल, क्लब, पॉश कालोनियां, रास्ते मूलनिवासी कालों के लिए मुक्त नहीं रहे, प्रायः वही स्थिति भारत के मूलनिवासियों की रही. जिस तरह दक्षिण अफ्रीका में सभी सुख-सुविधाएं गोरों के लिए सुलभ रही, उससे भिन्न स्थिति भारत के सवर्णों की भी नहीं रही. जिस तरह दक्षिण अफ्रीका का सम्पूर्ण शासन तंत्र गोरों द्वारा गोरों के हित में क्रियाशील रहा, ठीक उसी तरह आज़ाद भारत में शासन तंत्र सवर्णों द्वारा सवर्णों के हित में क्रियाशील रहा है और आज भी है. भारत के प्रतिरूप दक्षिण अफ्रीका में जब वोट के जोर से कालों की सत्ता कायम हुई, उन्होंने उस सत्ता का इस्तेमाल शक्ति के स्रोतों में सामाजिक विविधता लागू करने अर्थात जिस कलर के लोगों की जितनी संख्या रही, उस अनुपात में उनको शक्ति के स्रोतों में शेयर दिलाने में किया. दक्षिण अफ्रीका में संख्यानुपात में बंटवारे की नीति लागू होने के बाद जिन गोरों का शक्ति के स्रोतों पर 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा था, वे संख्यानुपात पर सिमटने के लिए बाध्य हुए. 9-10 प्रतिशत गोरों के पास 72 प्रतिशत जमीन थी. किन्तु 2018 के फ़रवरी में मंडेला के लोगों ने संसद में कानून पास कराकर एक झटके में उनकी सारी जमीने अपने कब्जे में ले लिया. आज शक्ति के स्रोतों का 80-90 प्रतिशत भोग करने के अभ्यस्त गोरे दक्षिण अफ्रीका छोड़कर दूसरे देशों में शरण लेना शुरू कर दिए हैं और इसका संपूर्ण श्रेय वोट से मिली मूलनिवासियों की तानाशाही सत्ता को जाता है. गोरी सत्ता से निजात मिलने के बाद एक बूँद रक्त बहाए बिना दक्षिण अफ्रीका में सामाजिक बदलाव का जो काम अंजाम दिया गया, वह हथियारबंद क्रांति के जरिये क्या मुमकिन हो पाता ?

संघी मोदी और मंडेला के लोगों ने जो ऐतिहासिक काम वोट के जरिये मिली सत्ता से अंजाम दिया है, वह काम दलित, आदिवासी, पिछड़े और इनसे धर्मान्तरित तबके के लोग भी अंजाम दे सकते हैं. कारण, भारत में वे सारी स्थितियां और परिस्थितियां मौजूद हैं, जिसकी जोर से वोट के जरिये विश्व इतिहास में वंचितों की सबसे बड़ी तानाशाही सत्ता भारत में कायम हो सकती है. कारण, लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता हासिल करने में संख्याबल सर्वाधिक महत्वपूर्ण फैक्टर का काम करता है. इसी संख्या-बल को अपने अनुकूल करने के लिए पार्टियों को धन-बल, मीडिया-बल, प्रवक्ताओं-कार्यकर्ताओं की भीड़ और कुशल नेतृत्व की जरुरत पड़ती है. यदि बहुजनों के संख्या-बल का ठीक से अध्ययन किया जाय तो पता चलेगा भारत के बहुजनवादी दलों जैसी अनुकूल स्थिति पूरी दुनिया में अन्यत्र दुर्लभ है. ऐसा इसलिए क्योंकि आज की तारीख में सामाजिक अन्याय का शिकार बनाई गयी भारत के बहुजन समाज जैसी विपुल वंचित आबादी दुनिया के इतिहास में कहीं भी, कभी भी नहीं रही. और यह आबादी इस समय अन्याय की गुफा से निकलने के लिए बुरी तरह छटपटा रही है. 

सामाजिक अन्याय की शिकार विश्व की विशालतम आबादी को आज भी जिस तरह विषमता का शिकार होकर जीना पड़ रहा है, उससे यहां ‘विशिष्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन’ (specific social movementt) पनपने की ‘निश्चित दशाएं’(certain conditions) साफ़ दृष्टिगोचर होने लगीं हैं. समाज विज्ञानियों के मुताबिक़ क्रांतिकारी आन्दोलन मुख्यतः सामाजिक असंतोष (social unrest), अन्याय, उत्पादन के साधनों का असमान बंटवारा तथा उच्च व निम्न वर्ग के व्याप्त खाई के फलस्वरूप होता है. सरल शब्दों में ऐसे आन्दोलन आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी की कोख से जन्म लेते हैं और तमाम अध्ययन साबित करते हैं कि भारत जैसी भीषणतम गैर-बराबरी पूरे विश्व में कहीं है ही नहीं. इस क्रान्तिकारी आन्दोलन में बहुसंख्य लोगों में पनपता ‘सापेक्षिक वंचना’(Relative deprivation ) का भाव आग में घी का काम करता है, जो वर्तमान भारत में दिख रहा है. क्रांति का अध्ययन करने वाले तमाम समाज विज्ञानियों के मुताबिक़ जब समाज में सापेक्षिक वंचना का भाव पनपने लगता है, तब आन्दोलन की चिंगारी फूट पड़ती है. समाज विज्ञानियों के मुताबिक़,’दूसरे लोगों और समूहों के संदर्भ में जब कोई समूह या व्यक्ति किसी वस्तु से वंचित हो जाता है तो वह सापेक्षिक वंचना है दूसरे शब्दों में जब दूसरे वंचित नहीं हैं तब हम क्यों रहें !’ सापेक्षिक वंचना का यही अहसास बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में अमेरिकी कालों में पनपा, जिसके फलस्वरूप वहां 1960 के दशक में दंगों का सैलाब पैदा हुआ, जो परवर्तीकाल में डाइवर्सिटी लागू होने का सबब बना. दक्षिण अफ्रीका में सापेक्षिक वंचना का अहसास ही वहां के मूलनिवासियों की क्रोधाग्नि में घी का काम किया, जिसमे भस्म हो गयी वहां गोरों की तानाशाही सत्ता.

जिस तरह आज जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग का शक्ति के स्रोतों पर बेहिसाब कब्जा कायम हुआ है, उससे सापेक्षिक वंचना के तुंग पर पहुंचने लायक जो हालात भारत में पूंजीभूत हुये हैं, वैसे हालात विश्व इतिहास में कहीं भी नहीं रहे: यहाँ तक कि फ्रांसीसी क्रांति या रूस की जारशाही के खिलाफ उठी वोल्सेविक क्रांति में भी इतने बेहतर हालात नहीं रहे। ऐसे में दावे के साथ कहा जा सकता है कि भारत की जन्मजात आबादी में सापेक्षिक वंचना का जो अहसास जन्मा है, उससे वोट के जरिये वंचित बहुजनों की तानाशाही सत्ता के जो हालात आज भारत में पैदा हुए हैं, वैसे हालत विश्व इतिहास में कभी किसी देश में उपलब्ध नहीं रहे. यह भारत के बहुजन नेतृत्व की ऐतिहासिक व्यर्थता है कि वह इस अनुकूलतम हालात का सद्व्यवहार नहीं कर सका ? लेकिन जिस तरह बहुजन विषमता की चक्की में बुरी तरह पिसते हुए विशुद्ध गुलामों की स्थिति में पहुँचते जा रहे हैं, हमें यह मानकर चलना चाहिए कि देर-सवेर बहुजन नेतृत्व खुद को बदलेगा और देश में बहुजनों की तानाशाही सत्ता कायम होगी. ऐसे में जबकि वोट के जरिये बहुजनों की तानाशाही सत्ता कायम होने की आदर्श स्थितियां मौजूद हैं, हम बंदूक के बल पर कायम होने वाली सत्ता का कैसे नैतिक समर्थन दे सकते हैं?

8 - अजय कुमार चौधरी - आपने अपने एक्शन प्लान का पर रोशनी डालते हुए तीसरा पम्फलेट 6 पेज के एक ऐसे पम्फलेट का जिक्र किया है जिसमें यह बताया जायेगा कि बहुजनों की गुलामी से मुक्ति के लिए सर्वव्यापी आरक्षण की लड़ाई क्यों जरुरी है. आप क्या इस बात को विस्तार से बताने का कष्ट करेंगे कि कैसे सर्वव्यापी आरक्षण के जरिये गुलामी से मुक्ति की लड़ाई लड़ी जा सकती है? मैंने यह बात आज तक किसी के मुंह से नहीं सुनी है. अतः प्लीज जरा विस्तार से....

एच.एल. दुसाध – देखिये वैसे तो इस अभियान का मुख्य मकसद बेहिसाब रूप से फैली आर्थिक और सामाजिक विषमता की ओर सरकारों और राजनीतिक दलों का ध्यान आकर्षित करना तथा इसके निराकरण के लिए शक्ति के स्रोतों के वाजिब बंटवारे के लिए जरुरी दबाव बनाना है. किन्तु इसका एक मकसद वंचित बहुजनों को गुलामी से मुक्ति की लड़ाई के लिए भी तैयार करना है. क्योंकि शासक दलों की विषमताकारी नीतियों के चलते वे प्रायः विशुद्ध गुलामों की स्थिति में पहुँच गए हैं. अब अगर वंचित बहुजन गुलामी से मुक्ति की लड़ाई का मन बनाते है तो उन्हें अपना लक्ष्य सर्वव्यापी आरक्षण की लड़ाई लड़कर ही हासिल हो सकता है.

स्मरण रहे दुनिया में जहां- जहां भी गुलामों ने शासकों के खिलाफ मुक्ति की लड़ाई लड़ी, उसकी शुरुआत आरक्षण से हुयी। काबिलेगौर है कि आरक्षण और कुछ नहीं शक्ति के स्रोतों से जबरन दूर धकेले गए लोगों को शक्ति के स्रोतों में कानूनन हिस्सेदारी दिलाने का माध्यम है। आरक्षण से स्वाधीनता की लड़ाई का सबसे उज्ज्वल मिसाल भारत का स्वाधीनता संग्राम है। अंग्रेजी शासन में शक्ति के समस्त स्रोतों पर अंग्रेजों के एकाधिकार दौर में भारत के प्रभुवर्ग के लड़ाई की शुरुआत आरक्षण की विनम्र मांग से हुई। तब उनकी निरंतर विनम्र मांग को देखते हुए अंग्रेजों ने सबसे पहले 1892 में पब्लिक सर्विस कमीशन की द्वितीय श्रेणी की नौकरियों के 941 पदों में 158 पद भारतीयों के लिए आरक्षित किया. एक बार आरक्षण के जरिये शक्ति के स्रोतों का स्वाद चखने के बाद कांग्रेस ने सन 1900 में पीडब्ल्यूडी, रेलवे,टेलीग्राम, चुंगी आदि विभागों के उच्च पदों पर भारतीयों को नहीं रखे जाने के फैसले की कड़ी निंदा की। कांग्रेस ने तब आज के बहुजनों की भांति निजी कंपनियों में भारतीयों के लिए आरक्षण का आन्दोलन चलाया था। हिन्दुस्तान मिलों के घोषणा पत्रक में उल्लेख किया गया था कि ऑडिटर, वकील, खरीदने-बेचने वाले दलाल आदि भारतीय ही रखे जाएँ। तब उनकी योग्यता का आधार केवल हिन्दुस्तानी होना था, परीक्षा में कम या ज्यादा नंबर लाना नहीं. बहरहाल आरक्षण के जरिये शक्ति के स्रोतों का स्वाद चखते-चखते ही शक्ति के स्रोतों पर सम्पूर्ण एकाधिकार के लिए देश के जन्मजात सुवुधाभोगी वर्ग ने पूर्ण स्वाधीनता का आन्दोलन छेड़ा और लम्बे समय तक संघर्ष चलाकर अंग्रेजो की जगह खुद काबिज होने में सफल हो गए। ऐसा ही दक्षिण अफ्रीका में भी हुआ, जहां गोरों को हटाकर मूलनिवासी कालों ने शक्ति के समस्त स्रोतों पर कब्ज़ा जमा लिया और जैसा कि इसके पहले आपके सवाल के जवाब में बताया हूँ कि आज वे गोरों को प्रत्येक क्षेत्र में उनके संख्यानुपात 9-10 % पर सिमटने के लिए बाध्य कर दिए हैं। इससे गोरे वहां से पलायन करने लगे है।

बहरहाल इतिहास की धारा में बहते हुए मूलनिवासी एससी,एसटी, ओबीसी और इनसे धर्मान्तरित तबके के लोग भी आरक्षण के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं, किन्तु वह लड़ाई शक्ति के समस्त स्रोतों के लिए न होकर : अपने-अपने सेक्टर में आरक्षण बचाने: निजीक्षेत्र और न्यायपालिका में आरक्षण बढ़ाने की लड़ाई तक सीमित है। दरअसल निजीक्षेत्र, प्रमोशन और न्यायपालिका इत्यादि में आरक्षण की लड़ाई लड़ने वाले आर्थिक सोच से शून्य हैं, इसलिए उनके लिए न तो आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी कोई मुद्दा है और न ही शक्ति के स्रोतों का अन्यायपूर्ण बंटवारा. पर, यदि बहुजनों को देश के सुविधाभोगी वर्ग की गुलामी से मुक्ति पानी है, जैसे हिन्दुस्तानियों ने अंग्रेजों से पाया तो उन्हें आरक्षण की लड़ाई को मिलिट्री, पुलिस, न्यायपालिका जैसी सरकारी और निजी क्षेत्र की नौकरियों के साथ सप्लाई, डीलरशिप, ठेकेदारी, पार्किंग, परिवहन, ज्ञान उद्योग, फिल्म-मीडिया, पौरोहित्य इत्यादि सहित शक्ति के समस्त स्रोतों तक प्रसारित कर सर्वव्यापी आरक्षण तक विस्तार देना होगा। इस सर्वव्यापी आरक्षण को लेकर गाँव –गाँव, गली- मोहल्लों तक जाना होगा। जब दलित, आदिवासी, पिछड़े और इनसे धर्मांतरित तबकों में चप्पे-चप्पे में आरक्षण की महत्वाकांक्षा पनपेगी, तब भारत उस दक्षित अफ्रीका जैसा बन जाएगा जहां मूलनिवासी कालों की तानाशाही सत्ता है। इस तानाशाही सत्ता के ज़ोर से वहाँ के काले शासकों ने ऐसी नीतियाँ बनाई है, जिसके कारण वहाँ भारत के प्रभुवर्ग की भांति हर क्षेत्र में 80-90 प्रतिशत कब्जा जमाने वाले गोरे अवसरों के इस्तेमाल के मामले में अपने संख्यानुपात 8-9 प्रतिशत पर सिमटने के लिए बाध्य हैं। सर्वव्यापी आरक्षण की लड़ाई इसलिए भी जरुरी है ताकि भारत के वंचित तबके भी विश्व इतिहास में अपनी योग्य भूमिका अदा कर सकें. इसके लिए मार्क्स के नजरिये से इतिहास को समझ लेना होगा. 

मार्क्स ने कहा है अब तक का विद्यमान समाजों का लिखित इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है. एक वर्ग वह है जिसके पास उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व है अर्थात दूसरे शब्दों में जिसका शक्ति के स्रोतों-आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक –पर कब्ज़ा है और दूसरा वह है, जो शारीरिक श्रम पर निर्भर है अर्थात शक्ति के स्रोतों से दूर व बहिष्कृत है. पहला वर्ग सदैव ही दूसरे का शोषण करता रहा है. मार्क्स के अनुसार समाज के शोषक और शोषित : ये दो वर्ग सदा ही आपस में संघर्षरत रहे और इनमें कभी भी समझौता नहीं हो सकता. नागर समाज में विभिन्न व्यक्तियों और वर्गों के बीच होने वाली होड़ का विस्तार राज्य तक होता है. प्रभुत्वशाली वर्ग अपने हितों को पूरा करने और दूसरे वर्ग पर अपना प्रभुत्व कायम करने के लिए राज्य का उपयोग करता है.’ मार्क्स के वर्ग-संघर्ष के इतिहास की यह व्याख्या मानव जाति के सम्पूर्ण इतिहास की निर्भूल व अकाट्य सचाई है, जिससे कोई देश या समाज न तो अछूता रहा है और न आगे रहेगा. जबतक धरती पर मानव जाति का वजूद रहेगा, वर्ग-संघर्ष किसी न किसी रूप में कायम रहेगा और इसमें लोगों को अपनी भूमिका अदा करते रहने होगा. किन्तु भारी अफ़सोस की बात है कि जहां भारत के ज्ञानी-गुनी विशेषाधिकारयुक्त समाज के लोगों ने अपने वर्गीय हित में, वहीं आर्थिक कष्टों के निवारण में न्यूनतम रूचि लेने के कारण बहुजन बुद्धिजीवियों द्वारा मार्क्स के कालजई वर्ग-संघर्ष सिद्धांत की बुरी तरह अनदेखी की गयी, जोकि हमारी ऐतिहासिक भूल रही. ऐसा इसलिए कि विश्व इतिहास में वर्ग-संघर्ष का सर्वाधिक बलिष्ठ चरित्र हिन्दू धर्म का प्राणाधार उस वर्ण-व्यवस्था में क्रियाशील रहा है, जो मूलतः शक्ति के स्रोतों अर्थात उत्पादन के साधनों के बंटवारे की व्यवस्था रही है एवं जिसके द्वारा ही भारत समाज सदियों से परिचालित होता रहा है. जी हाँ, वर्ण-व्यवस्था मूलतः संपदा-संसाधनों, मार्क्स की भाषा में कहा जाय तो उत्पादन के साधनों के बटवारे की व्यवस्था रही. चूँकि वर्ण-व्यवस्था में विविध वर्णों(सामाजिक समूहों) के पेशे/कर्म तय रहे तथा इन तयशुदा पेशे/कर्मों की विचलनशीलता (professional mobility ) धर्मशास्त्रों द्वारा पूरी तरह निषिद्ध (prohibited) रही, इसलिए वर्ण-व्यवस्था एक आरक्षण व्यवस्था का रूप ले ली,जिसे हिन्दू आरक्षण कहा जा सकता है. वर्ण-व्यवस्था के प्रवर्तकों द्वारा हिन्दू आरक्षण में शक्ति के समस्त स्रोत सुपरिकल्पित रूप से तीन अल्पजन विशेषाधिकारयुक्त तबकों - ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों- के मध्य आरक्षित कर दिए गए. इस आरक्षण में शुद्रातिशूद्रों (बहुजनों) के हिस्से में आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक और धार्मिक अधिकार नहीं, मात्र तीन उच्च वर्णों की सेवा आई, वह भी पारिश्रमिक-रहित. वर्ण-व्यवस्था के इस आरक्षणवादी चरित्र के कारण दो वर्गों का निर्माण हुआ : एक विशेषाधिकारयुक्त व सुविधासंपन्न अल्पजन सुविधाभोगी वर्ग और दूसरा वंचित बहुजन. वर्ण-व्यवस्था में वर्ग-संघर्ष की विद्यमानता को देखते हुए ही 19 वीं सदी में महामना फुले ने वर्ण-व्यवस्था के वंचित शूद्र-अतिशूद्रों को ‘बहुजन वर्ग’ के रूप में जोड़ने की संकल्पना की, जिसे 20वीं सदी में मान्यवर कांशीराम ने बहुजन-समाज का एक स्वरूप प्रदान किया. बहरहाल प्राचीन काल में शुरू हुए ‘देवासुर –संग्राम’ से लेकर आज तक बहुजनों की ओर से जो संग्राम चलाये गए हैं, उसका प्रधान लक्ष्य शक्ति के स्रोतों में बहुजनों की वाजिब हिस्सेदारी रही है. वर्ग संघर्ष में यही लक्ष्य दुनिया के दूसरे शोषित-वंचित समुदायों का भी रहा है. भारत के मध्य युग में जहां संत रैदास, कबीर, चोखामेला, तुकाराम इत्यादि संतों ने तो आधुनिक भारत में इस संघर्ष को नेतृत्व दिया फुले- शाहू जी- पेरियार– नारायणा गुरु- संत गाडगे और सर्वोपरी उस आंबेडकर ने, जिनके प्रयासों से वर्णवादी-आरक्षण टूटा और संविधान में आधुनिक आरक्षण का प्रावधान संयोजित हुआ. इसके फलस्वरूप सदियों से बंद शक्ति के स्रोत सर्वस्वहांराओं (एससी/एसटी) के लिए खुल गए.

हजारों साल से भारत के विशेषाधिकारयुक्त जन्मजात सुविधाभोगी और वंचित बहुजन समाज: दो वर्गों के मध्य आरक्षण पर जो अनवरत संघर्ष जारी रहा, उसमें 7 अगस्त, 1990 को मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित होने के बाद एक नया मोड़ आ गया. इसके बाद शुरू हुआ आरक्षण पर संघर्ष का एक नया दौर. मंडलवादी आरक्षण ने परम्परागत सुविधाभोगी वर्ग को सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत अवसरों से वंचित एवं राजनीतिक रूप से लाचार समूह में तब्दील कर दिया. मंडलवादी आरक्षण से हुई इस क्षति की भरपाई ही दरअसल मंडल उत्तरकाल में सुविधाभोगी वर्ग के संघर्ष का प्रधान लक्ष्य था. कहना न होगा 24 जुलाई,1991 को गृहित नवउदारवादी अर्थनीति को हथियार बनाकर भारत के शासक वर्ग ने, जो विशेषाधिकारयुक्त सुविधाभोगी वर्ग से रहे, मंडल से हुई क्षति का भरपाई कर लिया. मंडलवादी आरक्षण लागू होते समय कोई कल्पना नहीं कर सकता था, पर यह अप्रिय सचाई है कि आज की तारीख में हिन्दू आरक्षण के सुविधाभोगी वर्ग का धन-दौलत सहित राज-सत्ता, धर्म-सत्ता, ज्ञान-सत्ता पर 90 प्रतिशत से ज्यादा कब्ज़ा हो गया है, जिसमें पीवी नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी और डॉ. मनमोहन सिंह की विराट भूमिका रही. किन्तु इस मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पूर्ववर्तियों को मीलों पीछे छोड़ दिया है. इनके ही राजत्व में मंडल से हुई क्षति की कल्पनातीत रूप से हुई भरपाई. सबसे बड़ी बात तो यह हुई है कि जो आरक्षण आरक्षित वर्गों, विशेषकर दलितों के धनार्जन का एकमात्र स्रोत था, वह मोदी राज में लगभग शेष कर दिया गया है, जिससे वे बड़ी तेजी से विशुद्ध गुलाम में तब्दील होने जा रहे हैं. आपके पिछले सवाल के जवाब में मैंने जिस विनिवेशीकरण-निजीकरण और लैटरल इंट्री का जिक्र किया है, वे सब शासकों के वर्ग संघर्ष की नीति से ही प्रेरित रहे, जिसके फलस्वरूप आरक्षण महज कागजों की शोभा बनकर व्यवहारिक रूप में नहीं के बराबर रह गया है. ऐसे में यदि वर्ग संघर्ष में लगातार मुस्तैद रहे शासकों के खतरनाक इरादों से अपने समाज को बचाना है: उनको योग्य जवाब देना है तो सर्वव्यापी आरक्षण का लक्ष्य लेकर वर्ग संघर्ष में कूदने से बेहतर और कुछ नहीं होगा.    

9- अजय कुमार चौधरी - अंत में यही कहना चाहूँगा कि जिस तरह इस अभियान में किताबों, पम्फ्लेट्स, स्टीकर्स, स्लोगंस इत्यादि पर जोर दिया गया है, उससे तो ऐसा लगता है, यह कोई साहित्यिक आन्दोलन है, जिसे जमीन पर उतारने का प्रयास किया जा रहा है. अगर ऐसा है तब तो भारत में यह पहला आन्दोलन होगा जिसे पूरी तरह बौद्धिक आन्दोलन कहा जा सकता है. मुझे नहीं लगता कि राम मंदिर को कुछ हद तक अपवाद मान लिया जाय तो भारत में साहित्य पर निर्भर रहकर किसी आन्दोलन की परिकल्पना नहीं की गयी.

एच. एल. दुसाध - आपने सही संकेत किया है. राम मंदिर आन्दोलन एक तरह से साहित्य पर निर्भर आन्दोलन था, जिसमे वैदिक व भक्ति साहित्य के उद्धरणों का भरपूर इस्तेमाल हुआ था. जिस राम के नाम पर आन्दोलन चलाकर आज शासकों की तानाशाही सत्ता कायम है एवं जिसके जोर से ही बहुजनों को खासतौर से गुलामी की ओर ठेला गया है, वह राम साहित्य के ही पात्र है. अब राम के नाम पर सत्ता अख्तियार करने के बाद जिस कृष्ण के नाम पर राम मंदिर जैसा आन्दोलन खड़ा करने की परिकल्पना संघ परिवार कर रहा है, वह कृष्ण भी साहित्य के ही पात्र हैं. ऐसे में शासकों के मानसिक गुलाम बनाने वाले साहित्य पर निर्भर आन्दोलन की काट किसी वैकल्पिक साहित्य से ही हो सकती थी. इस लिहाज से मार्क्सवादियों ने साहित्य पर निर्भर होकर आन्दोलन चलाने का कुछ हद तक प्रयास जरुर किया, किन्तु भारी अफ़सोस की बात है कि आज तक बहुजन आन्दोलन में ऐसा नहीं हुआ. दरअसल बहुजन आन्दोलन चलाने वाले इस बात को शिद्दत से महसूस ही नहीं किये कि आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी दुनिया के और देशों के वंचितों की भांति ही, भारत में भी सबसे बड़ी समस्या है तथा हजारों साल से शासकों ने मुख्यतः नॉलेज के जोर से ही बहुजनों को शोषित- निष्पेषित किया है. अगर महसूस किये होते तो उसकी काट के लिए जरुरी साहित्य सृजन करते. लेकिन थोडा-बहुत जरुरत महसूस भी किया तो मुख्यतः ब्राह्मणवाद के खात्मे की. क्योंकि इनके अनुसार ब्राह्मणवाद ही बहुजनों की सारी समस्या की जड़ है, इसलिए ब्राह्मणवाद के खात्मे के लिए बुकलेट टाइप की किताबें ही तैयार किया. ब्राह्मणवाद के सामने आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे की जरुरत को गहराई से महसूस नहीं कर पाने के कारण ही आर्थिक मुद्दों पर ऐसी किताबें न तैयार हो सकीं, जिन्हें सामने रखकर आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे का आन्दोलन खड़ा किया जा सके.

देश के तमाम संगठनों के मध्य बहुजन डाइवर्सिटी मिशन एकमात्र ऐसा संगठन है जो आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे के लिए ही वजूद में आया और देखते ही देखते साहित्य के लिहाज से देश के समृद्धतम संगठनों में से एक हो गया. वजूद में आने के बाद से विगत 17 वर्षों में आर्थिक और सामाजिक विषमता के खात्मे के मुद्दे पर सौ से अधिक किताबें बीडीएम की ओर से तैयार हुईं. इनमे खुद मेरी 83 किताबें हैं, जिनके सेट का मूल्य 45 हजार से ऊपर का है. और आज जबकि आर्थिक और सामाजिक विषमता एक्सट्रीम पर पहुच चुकी है, बीडीएम द्वारा प्रकाशित किताबें समयानुकूल अपनी भूमिका अदा करने के लिए तैयार बैठी हैं. इन्हीं शताधिक किताबों में से 300 रूपये से अधिक मूल्य की 5 चुनिन्दा किताबें हम 10- 20 के नाममात्र की सहयोग राशि के विनिमय में हस्ताक्षरकर्ताओं को सुलभ कराने जा रहे हैं. यदि जरुरत महसूस हुई तो उसी सहयोग राशि में 3000 मूल्य तक का डाइवर्सिटी साहित्य सुलभ करा दिया जायेगा.    

ये किताबें शासकों के हजारो साल के संचित नॉलेज को ध्वस्त करने के लिए काफी हैं. हम इस आन्दोलन में उपरोक्त 5 किताबों के अतिरिक्त हम वेबसाईट बनाकर दिलीप मंडल, डॉ. विजय कुमार त्रिशरण, बुद्ध शरण हंस, डॉ. अनिल जयहिंद, प्रोफ़ेसर रतनलाल, डॉ. जय प्रकाश कर्दम, डॉ. कुसुम वियोगी, शीलबोधि, डॉ. जन्मेजय इत्यादि के साहित्य का भी सदुपयोग करेंगे ताकि बहुजनों को गुलाम व कंगाल बनाने वाले शासकों के हजारों साल नॉलेज की मुकम्मल काट हो सके.   

10 –अजय कुमार चौधरी - बीडीएम का हस्ताक्षर अभियान नि:संदेह काबिले तारीफ है. किन्तु इसे लेकर असमंजस यह दिख रहा है कि इसकी सारी परिकल्पना बहुजनों के उस शिक्षित वर्ग को ध्यान में रखकर की गयी है जो आधुनिक सूचना माध्यमों से जुड़ा है. इसकी बड़ी खामी यह दिख रही है वंचित वर्गों की जो आबादी सुदूर गाँव में वास करती है, उसको भलीभांति जाग्रत करने का कोई स्पष्ट रोड मैप इस अभियान में नहीं दिख रहा है. अतः जो ग्रामीण आबादी आधुनिक सूचना- तंत्र से कटी हुई है, उसे कैसे इस अभियान से जोड़ पाएंगे?

एच.एल. दुसाध : निश्चय ही इंटरनेट से कटी सुदूर ग्रामीण बहुजन आबादी को इस अभियान से जोड़कर हमें भारी ख़ुशी होती. किन्तु हम ऐसी आबादी को जोड़ने की स्थिति में नहीं है. देखिये आमतौर पर जब किसी आन्दोलन की परिकल्पना उभरती है, लोग सीधे गावों में जाने की बात करते हैं. गावों में जाने का उपदेश देने वाले व्यवहारिक दिक्कतों की बात सोचते ही नहीं. व्यवहारिक सच्चाई तो यही है कि सुदूर गावों के लोगों से वही संगठन संवाद बना सकता है, जिसका सांगठनिक और आर्थिक ढांचा आरएसएस की तरह बहुत व्यापक हो : जो कुछ हजार पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं का बोझ वहन करने की स्थिति में हो. बीडीएम जैसे छोटे संगठन की बात जाने दें, बड़े-बड़े बहुजनवादी संगठन तक सांगठनिक और आर्थिक कारणों से आम लोगों के बीच जाने से पहले पढ़े-लिखे नौकरीशुदा लोगों के बीच गए और ऐसा करके उन्होंने अच्छा किया. कारण, एक कम शिक्षित व्यक्ति की तुलना में एक पढ़े-लिखे व्यक्ति को अपनी नीतियों और कर्मसूचियों से अवगत बहुत ही आसान काम है. दूसरा, यह कि यह कम पढ़ा-लिखा ग्रामीण बहुजन शहरी व पढ़े-लिखे लोगों का अनुसरण करने का सदा से ही अभ्यस्त रहा है. इसलिए जब पढ़े-लिखे व्यक्ति को एजुकेट कर लिया जाता है तो वह बात छनकर ग्रामीण लोगों तक भी काफी हद तक पहुँच जाती है. यही कारण है साहेब कांशीराम ने पढ़े-लिखे नौकरीशुदा लोगों से सबसे पहले संवाद बनाया और बाद में इनके जरिये से उनका सन्देश गाँव वालों तक भी पहुंचा. बीडीएम के हस्ताक्षर अभियान की जो परिकल्पना है, उसमे 1-9 तक सबसे जरुरी है इंटरनेट यूजर के बीच जाना. क्योंकि बीडीएम वंचित वर्गों को जिस स्तर तक जागरूक करना चाहता है उसके लिए डाइवर्सिटी साहित्य के साथ अन्य बहुजन लेखकों की किताबें पढ़ाना बहुत जरुरी है और यह काम सिर्फ इंटरनेट से ही मुमकिन है. कारण 10-20 रूपये में बीडीएम जितनी किताबें पढ़ाना चाहता है, उसे इससे इतर किसी अन्य किसी माध्यम से दुनिया का कोई भी संगठन सुलभ ही नहीं करा सकता. किस संगठन में इतना दम है कि जिनका समर्थन चाहिए उसे 300- 3000 तक की किताबे प्रायः फ्री पढ़ा सके? बहरहाल हम डाइवर्सिटी व अन्य बहुजन साहित्य के जरिये जिस स्तर के लोगों का हस्ताक्षर लेने की परिकल्पना कर रहे हैं, अगर उसमें सफल हो सके तो उनके जरिये सुदूर गावों तक भी हमारा सन्देश पहुँच जायेगा.

(डाइवर्सिटी मैन ऑफ़ इंडिया के रूप में मशहूर एच. एल. दुसाध का यह साक्षात्कार कोलकाता के अजय कुमार चौधरी ने लिया है. चौधरी पश्चिम बंग यूनिवर्सिटी अंतर्गत पी.एन.दास कॉलेज, पलता में हिंदी के असिस्टैंट प्रोफ़ेसर हैं.)

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