महिलाओं के अधिकार और सम्मान की रक्षा हर हाल में होनी चाहिए, लेकिन इसकी आड़ में अल्पसंख्यकों के अन्य हकों पर वार नहीं होना चाहिए।
भारत की सर्वोच्च अदालत ने तीन तलाक पर बड़ा फैसला लेते हुए इस पर छह महीने की रोक लगाने का आदेश दिया है। साथ ही केंद्र सरकार को निर्देश दिया है कि वह इस पर कानून लाए। अगर छह महीने में कोई कानून नहीं बनता है, तो यह रोक जारी रहेगी।
अदालत के इस फैसले को उन तमाम मुस्लिम महिलाओं की बड़ी जीत के रूप में देखा जा रहा है, जिनका जीवन इस प्रथा से बुरी तरह प्रभावित हुआ है।
यूं तो फोन, चिट्ठी, ई-मेल या प्रत्यक्ष तीन तलाक बोलकर एक झटके में वैवाहिक जीवन को समाप्त करने के कई प्रकरण भारतीय समाज में हुए हैं, जिनमें सबसे ज्यादा प्रभावित महिलाएं हुई हैं।
80 के दशक में जब शाहबानो प्रकरण हुआ, तब देश में एक तरह से मुस्लिम महिलाओं के हक के नाम पर राजनीति शुरु हुई।
इंदौर की शाहबानो को 60 साल की आयु में उनके पति मोहम्मद अहमद खान ने तीन तलाक कहकर अलग कर दिया, उस वक़्त शाहबानो पर पांच बच्चों की जिम्मेदारी थी, लिहाजा उन्होंने सीआरपीसी की धारा 125 के तहत अपने पति से भरण पोषण भत्ता दिए जाने की मांग की।
न्यायालय ने शाहबानो के पक्ष में फैसला दिया। लेकिन उनके पति ने इस फैसले के खिलाफ अपील की और अंतत: यह मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा। वहां भी फैसला शाहबानो के पक्ष में आया, लेकिन उस पर मुस्लिम धर्मगुरुओं की आपत्ति देखकर राजीव गांधी सरकार ने दबाव में आकर मुस्लिम महिला अधिनियम, 1986 पारित कर दिया। इस अधिनियम के जरिये शाहबानो के पक्ष में आया न्यायालय का फैसला भी पलट दिया गया।
पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त वजाहत हबीबुल्ला के मुताबिक वर्तमान केंद्र सरकार में विदेश राज्यमंत्री एम जे अकबर ने तब
धर्म की जिद के आगे हार गईं थीं शाहबानो एक जीती हुई लड़ाई
शाहबानो एक जीती हुई लड़ाई धर्म की जिद के आगे हार गईं, लेकिन 2001 में सर्वोच्च न्यायालय ने डेनियल लतीफी मामले की सुनवाई के दौरान शाहबानो केस के फैसले को फिर से सही ठहराते हुए तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के लिए भत्ता सुनिश्चित कर दिया।
शाहबानो ने तलाक के बाद भत्ते की लड़ाई लड़ी और उत्तराखंड के काशीपुर की शायरा बानो ने तीन तलाक देने पर ही सवाल उठाते हुए कानूनी लड़ाई लड़ी।
शायरा की याचिका का मुख्य पहलू यह भी है कि उनके माध्यम से मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरियत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 की धारा 2 की संवैधानिकता को भी चुनौती दी गई है। यही वह धारा है जिसके जरिये मुस्लिम समुदाय में बहुविवाह, तीन तलाक (तलाक-ए-बिद्दत) और निकाह-हलाला जैसी प्रथाओं को वैधता मिलती है। इनके साथ ही शायरा ने मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम, 1939 को भी इस तर्क के साथ चुनौती दी है कि यह कानून मुस्लिम महिलाओं को बहुविवाह जैसी कुरीतियों से संरक्षित करने में सार्थक नहीं है।
शायरा का तर्क है कि ऐसी प्रथाओं की आज के प्रगतिशील समाज में कोई जगह नहीं होनी चाहिए जिनमें महिलाओं को सिर्फ निजी संपत्ति समझा जाता है।
शाहबानो से लेकर शायरा बानो तक कई महिलाओं ने वैवाहिक जीवन में अमानवीय प्रताड़नाएं सहीं हैं और उनका तर्कसम्मत हल निकलना ही चाहिए। लेकिन राजनीति ने इसे धार्मिक तुष्टीकरण से लेकर किसी एक धर्म विशेष के लिए पूर्वाग्रह उपजाने का जो काम किया, वह दुखद है। इससे राजनैतिक दलों को तात्कालिक लाभ हासिल हो सकता है, लेकिन यहां चिंता महिलाओं के अधिकारों की रक्षा की होनी चाहिए।
शाहबानो प्रकरण में राजीव गांधी ने तुष्टीकरण का खामियाजा भुगता और तब भाजपा ने इसे लपक लिया। अब भी भाजपा ने तीन तलाक के मुद्दे को चुनावी एजेंडे में शामिल किया और जिसका लाभ फिलहाल उसे मिल गया। केंद्र में प्रधानमंत्री मोदी से लेकर उत्तरप्रदेश में मुख्यमंत्री योगी तक, सबने मुस्लिम महिलाओं के हक की बात की। बात केवल यहीं तक हो तो अच्छा है, अल्पसंख्यक समुदाय के बीच यह संदेश नहीं जाना चाहिए कि उनके अधिकार क्षेत्र में अनावश्यक दखल दिया जा रहा है। महिलाओं के अधिकार और सम्मान की रक्षा हर हाल में होनी चाहिए, लेकिन इसकी आड़ में अल्पसंख्यकों के अन्य हकों पर वार नहीं होना चाहिए।
तीन तलाक के मुद्दे पर मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की बात तो हुई, लेकिन केंद्र सरकार, समाज और सभी धर्मों के गुरु अगर हर वर्ग, धर्म और जाति की महिलाओं के सम्मान को प्राथमिकता दे, उनकी अस्मिता की रक्षा को प्रमुख मुद्दा बनाएं, लैंगिक भेदभाव खत्म करने के लिए काम करें, तभी यह लड़ाई असल मायनो में जीती जाएगी।
एक आखिरी बात- हमारी न्यायव्यवस्था धर्मनिरपेक्षता के आधार पर काम करती है, तो न्यायाधीशों के धर्म या समुदाय के उल्लेख का क्या औचित्य?
तीन तलाक मुद्दे पर जिन पांच जजों की संविधान पीठ ने फैसला सुनाया, उनके बारे में बतलाया जा रहा है कि वे अलग-अलग धर्मो से हैं- चीफ जस्टिस जे एस खेहर सिख समुदाय से हैं, जस्टिस कुरियन जोसेफ ईसाई हैं, जस्टिस आर.एफ नरीमन पारसी हैं, जस्टिस यू.यू. ललित हिंदू और जस्टिस अब्दुल नजीर मुस्लिम समुदाय से हैं। हमारी न्यायव्यवस्था धर्मनिरपेक्षता के आधार पर काम करती है, तो न्यायाधीशों के धर्म या समुदाय के उल्लेख का क्या औचित्य? न्यायाधीशों के धर्म का जिक्र करने वालों को एक बार प्रेमचंद की पंच परमेश्वर कहानी पढऩी चाहिए।