अमर शहीद बिरसा मुंडा 19 वीं सदी के अंतिम दशक में हुए स्वतंत्रता आंदोलन के महान लोकनायक थे। उनका ‘उलगुलान’ (आदिवासियों का जल-जंगल-जमीन पर दावेदारी का संघर्ष) भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास का महत्वपूर्ण अध्याय (Tribal contribution in freedom struggle) है। इस आंदोलन ने आधे दशक से भी अधिक समय तक अंग्रेजी हुकूमत के दाँत खट्टे कर दिये थे। जिस ब्रिटिश साम्राज्य में कभी सूर्यास्त नहीं होता था, उसके खिलाफ़ इतने लंबे समय तक उलगुलान को टिका लेना कोई आसान कार्य नहीं था। बावजूद इसके लिखित इतिहास में इसे एक प्रमुख अध्याय के रूप में स्थान देने के बजाय महज ‘फुटनोट’ तक ही सीमित कर दिया गया।
इतिहास लेखन पर साम्राज्यवादी शक्तियों के साथ-साथ ‘दिकू’ (गैर-आदिवासी) वर्चस्व के कारण ही संभवतः ऐसा देखने में आता है। यही कारण है कि आज बिरसा मुंडा के बारे में हमारे पास बहुत सीमित जानकारी है।
Birsa Munda (बिरसा मुंडा) का जन्म 15 नवम्बर 1875 को वर्तमान झारखंड राज्य के रांची जिले में उलिहातु गाँव में हुआ था। उनकी माता का नाम करमी हातू और पिता का नाम सुगना मुंडा था। बीरसा पढ़ाई में बहुत होशियार थे इसलिए उनका दाखिला चाइबासा के जर्मन मिशन स्कूल में कराया गया।
उस वक्त ईसाई मिशन स्कूल में दाखिला लेने हेतु उनका धर्म अपनाना जरूरी हुआ करता था तो बीरसा का नाम परिवर्तन कर बीरसा डेविड रख दिया गया।
कुछ दिनों तक उन्होंने उस मिशन स्कूल में पढ़ाई की किन्तु उन्होंने महसूस किया कि मुंडाओं के प्रति ईसाई मिशनरी का
बिरसा मुंडा की गिरफ्तारी और शहादत : Birsa Munda's arrest and martyrdom
बीरसा को अंग्रेजों की पुलिस और फौज गिरफ्तार करने में नाकाम सिद्ध हो रही थी। तब अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें पकड़वाने के लिए 500 ₹ (वर्तमान में लगभग 5 लाख ₹) के इनाम की घोषणा की तो किसी अपने ही व्यक्ति ने उनके ठिकाने का पता अंग्रेजों को बता दिया। परिणाम स्वरूप बीरसा गिरफ्तार कर लिए गए।
जेल की यातनाप्रद जिंदगी से उनकी सेहत गिरती जा रही थी, अंग्रेजी हुकूमत भी उन्हें मिटा देने पर ही तुली हुई थी। जेल में उन्हें किसी से मिलने तक नहीं दिया जाता था।
इसी बीच अंततः 9 जून 1900 को बीरसा की रांची के कारागार में मौत हो गई। उनकी मौत का कारण हैजा बताया गया। किन्तु कुछ लोगों का मत है कि उन्हें धीमा ज़हर देकर मारा गया। इसलिए अंग्रेजों ने उनकी लाश परिजनों को सौंपने व मुंडा परंपरा के तहत दफनाने के बजाय आनन-फानन में दाह संस्कार कर दिया था। इसी कारण बीरसा को अमर शहीद कहा जाता है।
मात्र 25 वर्ष के छोटे से जीवन काल में बीरसा ने न सिर्फ आदिवासी चेतना को जागृत किया बल्कि सभी आदिवासियों को एक छतरी के नीचे एकजुट करने में सफल रहे थे।
उलगुलान की पृष्ठभूमि : Ulugulan background
बीरसा के उलगुलान का केंद्र छोटानागपुर का इलाका था। अंग्रेजी राज में यह क्षेत्र बंगाल प्रेसीडेंसी के अंतर्गत आता था। इस क्षेत्र को मुंडा आदिवासियों ने ही अपने खून-पसीने से सींचकर आबाद किया था। बावजूद इसके उन्हें लगातार जंगल व जमीन से बेदखल किया जा रहा था। जबकि छोटानागपुर क्षेत्र के जंगलों पर आदिकाल से आदिवासियों का ही एकाधिकार था। जंगल उनके लिए अधिकार की वस्तु न होकर माँ के समान था। छल-कपट रहित इन सीधे-साधे आदिवासियों से जमींदार जबरन लगान वसूलते, उन्हें प्रताड़ित करते थे। उनके घर उजाड़कर जंगलों से उन्हें खदेड़ा जा रहा था। सूदखोर महाजन व साहूकार भी उनके शोषण में पीछे नहीं थे। इन सबको अंग्रेजी हुकूमत का खुला संरक्षण हासिल था। अंग्रेजी न्यायालय ने भी उन आदिवासियों के इंसाफ का रास्ता बंद कर रखा था। अन्याय-अत्याचार के खिलाफ मुंह खोलने वाले निर्दोष मुंडा आदिवासियों को जेलों में डाल दिया जाता।
छोटानागपुर में गांवों की परती जमीन को सरकार ने भारतीय वन कानून 1878 के माध्यम से संरक्षित वन के दायरे में लाकर उसपर नियंत्रण कर लिया। जंगलों पर सरकारी कब्जा कर लिया गया। लकड़ी पर कर लगा दिया गया। इसने आदिवासियों के जीवन-जीविका को गहरे तौर पर प्रभावित किया था। इस वन कानून के द्वारा पहली बार वन को तीन वर्गों- आरक्षित वन, ग्रामीण वन व संरक्षित वन में बांटा गया। इस कानून ने आदिवासियों को महाजनों की चक्की में पिसने और भुखमरी की मौत मरने को बेबस कर दिया। वर्ष 1879 में मुंडा सरदार न्यायालय की शरण में गए और जंगल-जमीन पर अपने पुश्तैनी अधिकार का दावा जताया, किन्तु वहाँ से भी उन्हें खाली हाथ ही लौटना पड़ा।
बिरसा के उभार के पूर्व मुंडा सरदारों ने कानूनी तरीके से छोटानागपुर क्षेत्र पर अपना दावा जताया था, किन्तु इसका कोई परिणाम नहीं आया। आदिवासियों ने अपनी जमीन, घर-बार, गाय-बैल- सब एक-एक कर खो दिये थे। अब उनके पास अंग्रेजी हुकूमत की गुलामी कबूल करने अथवा इसके खिलाफ़ बगावत करने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं था।
बिरसा ने समय की इस नब्ज को पकड़ा और उलगुलान का आह्वान किया। 1831 के कोल विद्रोह और 1855-56 के संथाल हूल के बाद बिरसा मुंडा का यह उलगुलान सबसे प्रमुख आंदोलनों में से एक था। इस आंदोलन का विस्तार छोटानागपुर क्षेत्र के रांची, सिंहभूम, चक्रधरपुर के तकरीबन एक हजार वर्ग किलोमीटर तक फैला हुआ था। इस आंदोलन में भारी तादाद में मुंडा आदिवासियों ने शिरकत की थी।
ईसाई मिशनरी से मोह भंग : Distraction from Christian Missionaries
इस क्षेत्र में ब्रिटिश एवं जर्मन ईसाई मिशनरियों का धर्मांतरण अभियान चरम पर था। शोषण-उत्पीड़न और भुखमरी से संरक्षण पाने के लिए मुंडा आदिवासी बड़ी तादाद में ईसाई मिशनरियों की शरण में जाते, किन्तु वहाँ भी इनके साथ भेदभाव किया जाता। ईसाई मिशनरियाँ भी इन्हें संरक्षण देने के बजाय अंतिम तौर पर ब्रिटिश सत्ता की ही कठपुतली की भूमिका में रहती थी। बीरसा के माता-पिता और रिश्तेदार ईसाई हो गए थे। किन्तु जल्द ही उनका इससे मोह भंग हो गया।
बिरसा मुंडा का सामाजिक व धार्मिक योगदान : Social and religious contribution of Birsa Munda
बीरसा महान समाज सुधारक व धर्म सुधार के अग्रणी नेता थे। उन्होंने आदिवासी समाज में व्याप्त अंधविश्वास व कुरीतियों को दूर करने की भी मुहिम चलाई। भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र, जादू-टोना, डायन आदि अंधविश्वासों पर उन्होंने चोट किया। उन्होंने बलि प्रथा, हँडिया पीना आदि पर रोक लगाया। हैजा, चेचक आदि महामारी से बचने हेतु उन्होंने आदिवासियों को साफ-सुथरा रहने, पानी उबाल कर पीने आदि की सीख दी। वह जड़ी-बूटियों से भी तरह-तरह की बीमारियों का ईलाज करने में सिद्धहस्त हो गए थे। बीरसा ने अपने आपको भगवान घोषित किया था। वह धरती का आबा यानी बाप बन गया। परंपरागत देवता सिंबोङ्गा अब आदिवासियों की रक्षा नहीं कर पा रहा था। उन्हें यीसू भी संरक्षण नहीं दे पा रहा था। इसलिए ‘वे नया भगवान चाह रहे थे, जो भगवान केवल जादू और भूत-प्रेत और अभिशाप का प्रपंच दिखा कर उन्हें भुलावे में न रखे। जो देवता भूखे लोगों से किंगडम ऑफ हेवन की बात न कहे! जो देवता कहे : भूत-प्रेत को नहीं, दिकू और सरकार को समाप्त करो!’ (देवी, महाश्वेता. 1979. जंगल के दावेदार, नई दिल्ली : राधाकृष्ण प्रकाशन, पृ. 94.) इस उलगुलान में स्त्री और पुरुष दोनों शामिल थे। बीरसा ने शोषण मुक्त व समतामूलक समाज बनाने के लिए लड़ते हुए वीरगति प्राप्त की।
अबुआ दिशुम अबुआ राज
बिरसा ने ‘अबुआ दिशुम अबुआ राज’ अर्थात ‘हमारा देश, हमारा राज’ का नारा दिया था। उनके आह्वान पर आदिवासी, जंगल और जमीन पर अपना पुश्तैनी दावा पेश करने हेतु इकट्ठे हो गये। अंग्रेजी सरकार के पांव उखड़ने लगे और भ्रष्ट जमींदार व महाजन उनके नाम से भी कांपते थे। बीरसा ने अपने अनुयायियों को उनकी बर्बादी के कारकों की पहचान करना सिखाया। बीरसा अपने सफल रणनीति व अथक परिश्रम के बदौलत बिना किसी संगठित संसाधन के उलगुलान को बड़े दायरे में फैलाने में सफल रहे। आदिवासियों के परंपरागत वाद्य यंत्रों-बांसुरी, नगाड़े व संदेश पहुंचाने के अन्य प्रतीकों- आग जलाने, पेड़ के पत्ते भेजने आदि का उलगुलान के प्रचार-प्रसार के लिए बखूबी इस्तेमाल किया। उसने सैकड़ों सभाएं की और आदिवासियों को उलगुलान के लिए प्रशिक्षित किया।
एक सफल नेतृत्वकर्त्ता की भांति बीरसा अपने अनुयायियों को अपना राज-आदिवासियों का राज-सामुदायिक राज के सपने दिखाने में कामयाब रहा। बीरसा द्वारा प्रतिपादित धर्म में अन्याय-शोषण के खिलाफ जनचेतना निर्माण प्रधान था। सभी अनुयायियों को शोषण-उत्पीड़न के जिम्मेदार कारकों एवं इससे मुक्ति के रास्तों की पूरी समझ पैदा करने पर ज़ोर दिया जाता था। बीरसा “प्राचीन जड़ता, अंधे कुसंस्कारों से मुंडाओं को मुक्त कर आज की दुनिया में, आधुनिक युग में उसने ले आना चाहा है। लेकिन वह एक ऐसी ‘आधुनिक’ श्रृष्टि भी करना चाहता है जिसके ‘वर्तमान’ में अंग्रेजों का बनाया समाज या शासन नहीं रहे। बिरसा मुंडा लोगों को लाखों बरसों के अंधकार को एकाएक पार करवा के आधुनिक काल में ले आना चाहता है, किन्तु ऐसे आधुनिक काल में जहां पहुँचकर मुंडा लोग अपनी आदिम सरलता, न्यायबोध, साम्य की नीति को अटूट रख सकें-एक नए मानव-धर्म में आश्रय पा सकें।” (देवी, महाश्वेता. 1979. वही, पृ. 188.) उनका यह उलगुलान आदिवासी स्वाभिमान, स्वतंत्रता और संस्कृति को बचाने का भी संग्राम था।
उलगुलान का परिणाम :
तात्कालिक तौर पर भले ही उलगुलान और उसके नेता बिरसा मुंडा का बर्बरतापूर्वक दमन करने में अंग्रेजी हुकूमत सफल रही। किन्तु उलगुलान का दूरगामी असर हुआ। इसने आदिवासियों में मुक्ति की जिस चेतना का संचार किया, उसका असर लंबे समय तक दिखाई पड़ता है। बिरसा मुंडा के उलगुलान का ही परिणाम था कि वर्ष 1908 में अंग्रेजी हुकूमत को बाध्य होकर आदिवासियों के जल, जंगल एवं जमीन के संरक्षण हेतु छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट बनाना पड़ा था। देश की स्वतंत्रता के सात दशक बाद भी आदिवासियों को देश-समाज की मुख्यधारा से जोड़ा न जा सका है और आर्थिक-राजनैतिक सत्ता पर ‘दिकू वर्चस्व’ ही बना हुआ है। आज कानूनी तौर पर आदिवासियों को वनों पर सामुदायिक अधिकार तो दिया गया है किन्तु दूसरी तरफ अभ्यारण्य, विभिन्न परियोजनाओं, विकास योजनाओं और खनिज संसाधनों के दोहन के नाम पर आदिवासियों की जल, जंगल, जमीन, जीविका और संस्कृति से बेदखली का सिलसिला बदस्तूर जारी है। बीरसा के संघर्ष की विरासत मौजूदा समय में भी हमें आदिवासियों के मुद्दे, उनके संघर्षों व अस्मिताई सवालों को समझने की समृद्ध अंतरदृष्टि प्रदान करता है। साथ ही यह जल, जंगल, जमीन, खनिज संसाधनों व प्रकृति-पर्यावरण तथा विकास के आधुनिक मॉडल की समीक्षा करने की भी प्रेरणा देता है।
डॉ. मुकेश कुमार
- रिसोर्स पर्सन, अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन, धमतरी, छत्तीसगढ़,
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