अंबरीश कुमार
जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार देशद्रोह के आरोप से जमानत (JNU Students' Union President Kanhaiya Kumar bail on charges of treason) पर रिहा हो गये हैं। गौर करें कि छतीसगढ़ में विनायक सेन और उत्तर प्रदेश में सीमा आजाद भी इसी तरह के आरोपों में घिरे तो उन्हें कितने दिन जेल में रहना पड़ा और किस तरह जमानत मिली।
कन्हैया को जमानत देने वाली जज ने जो टिप्पणी की है उस पर सोशल मीडिया में काफी कुछ लिखा जा रहा है। लगता है उन पर भी राष्ट्रवाद का असर है। यह अच्छी बात है। राष्ट्र की चिंता सभी को करनी चाहिये, पर साथ ही समाज पर भी नजर डालनी चाहिये।
देश के विभिन्न हिस्सों में लड़कियों के साथ आये दिन गैंग रेप की घटनायें होती है। किसी का खून नही खौलता। कई मामलों में तो पुलिस प्राथमिकी तक दर्ज नहीं करती। अखबारों में यह खबरें आती हैं पर बहुत कम ऐसा होता है कि अदालत स्वयं संज्ञान लेकर ऐसे मामलों में पहल करे।
देश के विभिन्न हिस्सों में आये दिन किसान ख़ुदकुशी करते हैं पर मीडिया में भी खानापूरी की जाती है तो ऐसे किसान परिवारों को कोई न्याय दिलाने के बारे में नहीं सोचता।
देश में दलितों के साथ किस तरह भेदभाव हो रहा है यह किसी से छुपा नहीं है। रोहित वेमुला उदाहरण है। कोई अदालत उसे न्याय नहीं दिला सकी। ये सब देशभक्त ही थे। पर लगता है अदालत भी अपने हिसाब से चलती है और उसकी प्राथमिकता में यह सब नहीं है।
कन्हैया कुमार
दूसरी बात, अदालत जो फैसले करती है उसकी समीक्षा क्यों नहीं हो सकती। मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशों को लेकर कई मीडिया संस्थान सुप्रीम कोर्ट का निर्देश नहीं मानते हैं। पर इस पर कोई चर्चा नहीं होती।
मंदिर मुद्दे पर इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने जो फैसला दिया उसे लेकर फौरन प्रतिक्रिया हुई थी। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उस पर रोक लगा दी। इसलिये यह कहना कि अदालत के फैसले की समीक्षा नहीं की जा सकती, उचित नहीं है। कई बार ऐसे फैसले हुये जिन्हें बदला भी गया। कन्हैया कुमार को जमानत देते समय जो टिप्पणी की गयी उसे लेकर बहस शुरू हो चुकी है।
Negative role of a section of media has been revealed
कन्हैया कुमार को लेकर देश भर में जो माहौल बनाया गया उसमें मीडिया के एक हिस्से की नकारात्मक भूमिका सामने आ चुकी है। देश में जो माहौल बनता है उससे समाज भी प्रभावित होता है और न्याय करने वाले भी इसी समाज से आते हैं। इसी माहौल का असर था कि कन्हैया कुमार को देश का हर आदमी नसीहत देता नजर आ रहा था। ज्यादातर यही कह रहे थे की उसने देश विरोधी नारे क्यों लगाये, जबकि कोई ऐसी रिपोर्ट सामने नहीं आयी कि उसने इस तरह के नारे लगाये। चैनल पर आडियो क्लिप में छेड़छाड़ कर यह सब दिखाया गया और कन्हैया कुमार को देशद्रोही के रूप में पेश किया गया।
यह सारा मामला राजनैतिक था और मीडिया के एक हिस्से ने ने इसमें आग लगाने का काम किया। बगैर किसी तथ्य के किसी छोटे से मामले को तूल देकर तिल का ताड़ बना देना इसी मीडिया का काम है। इससे मीडिया की साख बुरी तरह प्रभावित हुई है।
ताजा मामला उत्तर प्रदेश विधान सभा में कुछ वरिष्ठ पत्रकारों को तलब किये जाने का है। विधान सभा की जांच समिति ने इन्हें मुजफ्फरनगर दंगों से संबंधित फर्जी स्टिंग करने का दोषी पाया और कई गंभीर धाराओं में कार्यवाही करने की सिफारिश की है, इसमें धर्म और विभिन्न समूहों के बीच सौहार्द बिगाडऩे से लेकर गलत तथ्यों का प्रसारण आदि भी शामिल है। समिति ने सोलह फरवरी को विधान सभा में साढ़े तीन सौ पेज की रपट दी थी। यह मामला उत्तर प्रदेश के कैबिनेट मंत्री आजम खान से जुड़ा है। भाजपा को छोड़ बाकी सभी दलों ने इस फर्जी स्टिंग मामले की निंदा की है।
यह समय मीडिया के आत्ममंथन का भी है
साफ़ है जब भी मीडिया से जुड़ा कोई मुद्दा आयेगा इस रपट का हवाला दिया जाएगा। मीडिया के एक छोटे से हिस्से की वजह से समूचे मीडिया पर लोग सवाल उठा रहे हैं। यह समय मीडिया के मंथन का भी है। कन्हैया कुमार का मामला उदाहरण है। उसके पहले के भाषण देखें और रिहा होने के बाद उसने छात्रों को संबोधित करते हुए जो कहा उसे भी सुनें। क्या यह किसी देशद्रोही का भाषण लगता है?
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि जो चैनल उसे देशद्रोही बता रहे थे, उन्होंने वह भाषण नहीं दिखाया जिसमें उसने फिर कहा, हमें आजादी चाहिये भूख से, गरीबी से जातिवाद से और भारत को लूटने वालों से।