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उज्ज्वल भट्टाचार्या

एकमुश्त तीन तलाक़ के मामले को सामयिक राजनीति की पैंतरेबाज़ी से अलग रखकर ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना पड़ेगा.

विश्व के अन्य हिस्सों की तरह भारत में भी सांप्रदायिक वैधानिकता थी. आधुनिक राज्य व समाज का विकास सांप्रदायिक वैधानिकता से उदारवादी समावेशी वैधानिकता तक की यात्रा है.

इस प्रक्रिया में संवैधानिक प्रणाली सांप्रदायिक वैधानिकता को निरुपित करेगी. यह निरुपण समुदाय या संप्रदाय की सहमति के बिना संभव नहीं है.

व्यावहारिक रूप से ऐसी सहमति समूचे समुदाय की नहीं होती है. ऐसे मसलों पर विमर्श या विवाद अलग-अलग संप्रदायों के बीच नहीं, बल्कि एक ही समुदाय में अनुदारवादी और उदारवादी ताकतों के बीच होता है. आधुनिक राज्य उभरती उदारवादी ताकतों के समर्थन के बल पर समुदाय के नियमों में परिवर्तन लाते हुए उन्हें निरुपित करता है.

कंपनी के राज में जब सतीप्रथा को गैरकानूनी घोषित किया गया था, तो अनुदारवादी ताकतों का सबसे बड़ा तर्क यह था कि धार्मिक नियमों में राज्य को हस्तक्षेप का अधिकार नहीं होना चाहिये.

उस वक़्त हिन्दू समुदाय में सतीप्रथा के खिलाफ़ जितनी सहमति थी, आज भारत के मुस्लिम समुदाय में एकमुश्त तीन तलाक़ के खिलाफ़ उससे कहीं व्यापक सहमति है.

सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला धार्मिक वैधानिकता और आधुनिक राज्य के हस्तक्षेप के अधिकार के विमर्श को आगे बढ़ाएगा. यह मुस्लिम समुदाय में उदारवादी ताकतों को मज़बूत करेगा, स्त्री विमर्श को आगे बढ़ाएगा.

सामयिक रूप से कुछ समस्यायें आ सकती हैं, लेकिन यह फ़ैसला एक ऐतिहासिक फ़ैसला है.

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