कल सीबीआई ने पुणे कोर्ट में यह स्पष्ट शब्दों में कहा है कि उसने गौरी लंकेश, नरेन्द्र दाभोलकर, गोविंद पानसारे और एम एम कलबुर्गी के हत्यारों के आपसी संपर्कों के प्रमाण पा लिये हैं। इन सभी बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, विवेकवादी सुधारकों और पत्रकारों की हत्याएं सुनियोजित ढंग से एक ही जगह से की गई थी। इनको मारने वालों के संपर्क सनातन संस्था नामक हिंदू राष्ट्र की स्थापना के उद्देश्य से काम करने वाले एक आतंकवादी संगठन से जुड़े हुए हैं।
2015 के अगस्त महीने में कर्नाटक के साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त साहित्यकार एम एम कलबुर्गी की जब हत्या की गई थी, उसी समय हिंदी के साहित्यकारों में इन हत्याओं के पीछे के षड़यंत्र के बारे में संदेह पैदा हो गया था। खास तौर पर जब कलबुर्गी के मारे जाने पर उन्हें पुरस्कृत करने वाली साहित्य अकादमी तक ने प्रतिवाद और शोक का एक शब्द भी नहीं कहा था, तभी यह आशंका हो गई थी कि इन हत्याओं के पीछे हो न हो, ऐसे हिंदू कट्टरपंथियों का हाथ है जिन्हें मोदी सरकार का भी प्रत्यक्ष या प्रच्छन्न समर्थन मिला हुआ है और सरकार के इशारों पर ही साहित्य अकादमी का विश्वनाथ तिवारी की तरह का बिना रीढ़ की हड्डी वाला अध्यक्ष शोक जाहिर करने तक से कतरा रहा है।
तभी, हिंदी के प्रमुख कथाकार और साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता उदय प्रकाश ने सबसे पहले साहित्य अकादमी की उस अपराधपूर्ण चुप्पी के विरोध में अपने पुरस्कार को लौटाने की घोषणा की। इसके बाद ही साहित्य अकादमी के पुरस्कार को लौटाने का एक पूरा आंदोलन शुरू हो गया, जिसे हम तमाम लोग जानते
उन दिनों हिंदी कुछ ऐसे दलाल लेखक भी सड़क पर उतरे थे जो पुरस्कारों को लौटाने का विरोध करने के नाम पर प्रकारांतर से लेखकों के हत्या का ही समर्थन कर रहे थे। दुर्भाग्य की बात यही कि इन अपराधी लेखकों के साथ तब नामवर सिंह ने भी अपनी आवाज मिलाई थी। मोदी सरकार ने इन अपराधियों में से कइयों को नाना प्रकार से पुरस्कृत भी किया है।
आज जब इन सभी लेखकों की साजिशाना हत्याओं के तथ्य सामने आ चुके हैं, तब साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी और नामवर सिंह सहित जिन छुटभैया लोगों ने भी लेखकों के उस प्रतिवाद आंदोलन का सक्रिय विरोध किया था, उन सबसे सार्वजनिक तौर पर माफी मांगने की मांग की जानी चाहिए।