अकरम को अभी भी जीने की चाहत है, उसे खंजर से डर लगता है
अकरम को अभी भी जीने की चाहत है, उसे खंजर से डर लगता है
चंचल
साबरमती के किनारे तमाम इशरतों, जाफरियों, मकदूमों की रूहें कब्र से निकल कर दस्तक दे रही हैं, कातिल के घरों पर। कानून से तो बच सकते हो, लेकिन अपनी नजर से गिर कर कहाँ पनाह लोगे ? जवाब तो देना ही होगा। न आज सही, कल भी तो सामने खड़ा है।
पीढ़ियां आ रही हैं उनके पास सवाल हैं। किस जुर्म में एक अंग्रेज को उसके बच्चे के साथ जलाया गया, उसका जुर्म क्या था ? वंचित, अनुसूचित जन जाति को लबे सड़क नंगा कर के पीटा गया। ...क्यों कि वह तुम्हारी माँ का अंतिम क्रियाक्रम कर रहा था। महिलाओं की भावनाओं का कत्ल सरे आम होता रहा, महज इसलिए कि उनका लिबास आपके माप का नहीं रहा। चलती बस से भाई बहन को उतार कर जलील किया गया, क्यों कि उस दिन वेलेंटाइन डे था।
इन सवालों का जखीरा है नयी पीढ़ी के पास। अकरम ने मांस से तौबा कर लिया है, क्यों कि पंडित रामदीन, सियाराम ये सब आँख में लैब रखते हैं और अनुमान से बता देते हैं कि यह मांस गाय का है।
अकरम को अभी भी जीने की चाहत है। उसे खंजर से डर लगता है।
इस निजाम में मंत्री और ओहदेवाले ही गोमांस खा सकते हैं, अखलाकों के लिए पाबंदी है। कहीं से कोई जवाब नहीं मिल रहा है। सवाल खामोश है पर तैर रहा है, बहुत कुछ उजाड़ देगा।
सुल्ताना नाउ असीस रहा है या श्राप दे रहा है ? उसका दोनों हाथ ऊपर सूरज की ओर उठा है - का सूरज देव ! मियादी जर से उठा है कन्हैया, उसे दाल के पानी देना है, उहौ नसीब में ना रहा। ई दिन देखे के बदा रहा। यह आह है, अडानी।
चंचल जी की फेसबुक टाइमलाइन से साभार


