अख़लाक़ की हत्या भी राजनीतिक हत्यारों ने ही की, भीड़ तो इस गुनाह में शरीक हुई
अख़लाक़ की हत्या भी राजनीतिक हत्यारों ने ही की, भीड़ तो इस गुनाह में शरीक हुई
अख़लाक़ की हत्या के बाद अल्पसंख्यकों का पलायन
बेहतर हो कि जनसमुदाय संगठित होकर मुकाबला करे, खुली अदालत में सार्वजनिक सुनवाई व इन्साफ की मांग करे।
- डॉ. अनिल पुष्कर
महाभारत में लिखा है कि ब्राह्मण गोमाँस खा गये पर पितरों को समर्पित था इससे उन्हें कुछ भी पाप न हुआ।
जो सच पूछो तो दोष कुछ भी नहीं है चाहे पूजा करके खाओ चाहे वैसे खाओ।
‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ -भारतेंदु हरिश्चंद्र
सोचिये सदियों पहले ये बातें कही जा चुकी थीं। जो तबका साम्राज्य की ताकत और हैसियत से धार्मिक क्रूरता के बल पर हिंसक हुआ। उसने धार्मिक प्रपंच की आड़ में बलि और नरसंहार को भी उचित ठहराया। और आज भी ठीक वैसे ही दादरी इलाके में धर्म को ढाल बनाकर गोमांस की अफवाह फैलाकर अल्पसंख्यक तबके के एक सदस्य को बेरहमी से कत्ल कर दिया गया। इस घटना के बाद तमाम सवाल खड़े हुए हैं। जिन्हें समझना और हल करना बेहद जरूरी हो गया है।
अख़लाक़ की बेरहमी से ह्त्या के बाद दादरी में आतंक का जो माहौल बना, उससे मुल्क में बसे हर समुदाय को मजबूती से लड़ने की जरूरत वाकई में महसूस नहीं हो रही है? जरूरी है कि दादरी के बहुसंख्य और अल्पसंख्यक बिरादरी के लोग एकजुट होकर इस नृशंस हत्या के खिलाफ सरकार के सामने इन्साफ के लिए गंभीर चुनौतियों का मुकाबला करें। इकट्ठे होकर खड़े हों और गाँव में बसे मुसलमान परिवार जो कि वहां से पलायन कर रहे हैं उन्हें रोकने की कोशिश करें। पलायन किसी भी तरीके से इस संकटपूर्ण हालात का सही फैसला कतई नहीं है।
आखिर ये तबका पलायन करके कहाँ बसेंगे? इसी मुल्क में, यानी हिन्दुस्तान के किसी अन्य इलाके में, जहां कोई न कोई बस्ती और आबादी पहले ही पीढ़ियों से रह रही है। फिर वहां उनकी हिफाजत कौन करेगा? जो समुदाय अपनी हिफाजत पुश्तैनी जगह में नहीं कर सके। जिनकी हिफाजत राज्य नहीं कर सका। उनको हिफाजत कौन देगा?
वायुसेना प्रमुख राहा ने कहा है कि यह स्टाफ का मामला है वायुसेना के अधिकारी अपने स्टाफ की हिफाजत करेंगे। क्या यह मामला मात्र वायुसेना से जुड़ा हुआ है? वायुसेना के अधिकारी ने कहा कि पीड़ित परिवार को सुरक्षित जगह पर रखा जाएगा।
क्या इस घटना से केवल एक परिवार को ही असुरक्षा महसूस हुई है? ऐसा होता तो पुलिस, पीएसी और धारा 144 का क्या मतलब है? क्या एक परिवार को बचाने के लिए इतनी हुज्जत की जा रही है?
भला यह कौन बतायेगा कि लोकतंत्र में कौन सी जगह ऐसी है जो पूरी तरह आम आदमी के लिए सुरक्षित है?
क्या लोकतंत्र को वायुसेना का प्रशासन और आलाधिकारी चला रहे हैं?
क्या वायुसेना राज्य को संचालित करता है?
अगर ऐसा नही है तो यह मामला कहीं से भी वायुसेना स्टाफ का केवल नहीं है। यह देश में हो रही निरंकुश तरीके से साम्प्रदायिक हिंसा और हत्या का मामला है। इसमें वायुसेना की भूमिका की जरूरत अगर राज्य सरकार को लगेगी तो वह उसे आधिकारिक तौर से जनहित में बुलाती। मगर राज्य सरकार ने ऐसा कोई आदेश नहीं दिया है। वायुसेना का मन्तव्य ठीक उसी जुमले की तरह है कि ‘दिल बहलाने को ग़ालिब ये ख्याल अच्छा है।’
दूसरी बात, इस हत्या के बाद महापंचायत करने की इजाजत किसने दी? महापंचायतें करने का अधिकार कानून की किस धारा में उल्लेख है? महापंचायत के बाद मीडियाकर्मी और पीड़ित परिवार से बात करने पहुंचे राजनेताओं को वार्ता करने से क्यों रोका गया?
इस देश में खाप पंचायत और महापंचायत सरकार के आदेश के बिना जो कुछ भी करे वह सब कुछ असंवैधानिक प्रक्रिया है। किसी भी मामले के निबटाने के लिए कानून है, पुलिस-प्रशासन है, राज्य सरकार है।
यह महापंचायत करने वाले लोग कौन हैं? यह तो लोकतंत्र में सीधे ताकतवर लोगों की गुंडागर्दी है। इस महापंचायत में जो नेता शरीक हुए उन्हें अब तक गिरफ्तार नहीं किया गया। और न ही उन्हें असंवैधानिक तरीके से सार्वजनिक मीटिंग या जमावड़ा इकट्ठा करने के लिए दण्डित किया गया।
तीसरी बात, पीड़ित परिवार ने जिन पांच लोगों का नाम लिया है उनमें भीड़ को भडकाने वाला युवक विशाल जो कि स्थानीय बीजेपी कार्यकर्ता संजय राणा की औलाद है। इस एक युवक के पीछे छिपे हत्या की राजनीति को समझना होगा। उसको हिम्मत और हिफाजत देने वाले राजनीतिक हत्यारों के नाम भी उजागर होने चाहिए।
यह युवक तो केवल हत्या में उपयोग किया गया है। इसे सजा दिलवा भी दें तो भी असल गुनहगार बचे रह जायेंगे। इसके जरिये ही ताकतवर और कुटिल रणनीति बनाने वालों तक पहुंचा जा सकता है दंगाइयों की राजनीति और मजहबी उन्माद पैदा करने वाली असलियत को समझा जा सकता है।
जाहिर है विशाल के पिता को भी गिरफ्त में लिया जाय और इनसे कड़ी सुरक्षा में सार्वजनिक तौर पर सच की तह तक पहुंचा जाय। इस मामले को केवल पुलिस और अदालत के हवाले करके रहस्यमय न बनाये रहना ठीक नहीं है।
दूसरा खतरा यह है चूंकि इस घटना में पुलिस की भूमिका भी संदिग्ध है, गाँव के प्रधान की भूमिका भी संदिग्ध है, मंदिर के पुजारी की भूमिका भी संदिग्ध है। गाँव के चंद ताकतवर और अपराधी किस्म के दबंगों के होने की आशंका भी है। अतः इस मामले को केवल बंद कोर्ट में तय करना ठीक नहीं है। यकीनन अदालत पर भी ताकतवर लोगों का दबाव साफ़ तौर से जरूर पड़ेगा। ऐसे में इन्साफ मिलेगा भी या नहीं। इस बात पर संदेह है।
यह भी सुना जा रहा है कि एसडीएम ने मुस्लिम समुदाय को धमकी दी है अगर ये लोग बीजेपी के खिलाफ कुछ भी बोलेंगे तो अंजाम भुगतने के लिए तैयार रहें।
क्या वास्तव में यह राजनीतिक साजिश अब भी नहीं लगती? ऐसे बयान पर एसडीएम को किसी तरह का कोई नुकसान नहीं हुआ। गुस्साए लोगों ने कत्ल नहीं किया। गनीमत ही समझिये। यहाँ एक बात बिलकुल साफ़ है भीड़ क़त्ल नहीं कर सकती, वरना एसडीएम के इस बेहूदे बयान पर जाने क्या से क्या हो जाता।
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यह बात इस माने में कही जा रही है कि अख़लाक़ का कत्ल भी राजनीतिक हत्यारों ने ही किया है इसमें केवल भीड़ को दोषी ठहराना गलत होगा। भीड़ इस गुनाह में शरीक हुई। इसमें कोई दोराय नहीं है। अगर जनभावना के आहत होने पर भीड़ इकट्ठा हो सकती है तो फिर कत्ल की राजनीति के कुछ अंश जब सामने आ रहे हैं तब यही जनभावना कहाँ गई? इससे साफ़ जाहिर होता है कत्ल करने वाले कद्दावर ताकतवर कातिल हैं जिनसे स्थानीय जनसमुदाय भयभीत है। इसीलिए एक खामोशी एक चुप्पी अब भी फिजाँ में घुली हुई है।
यह बात इसलिए कही जा रही है चूंकि याकूब मेमन के मामले में जब सुप्रीम कोर्ट आधी रात को खुली अदालत में फैसला दे सकती है और मुम्बई विस्फोट में मारे गये लोगों के पक्ष में यह फैसला लाइव कवरेज किया जा सकता है। तो दादरी में हुई हत्या के मामले में यह प्रक्रिया क्यों नहीं अपनाई जा सकती है? सही मायने में जब गाँव वालों के सामने उन्मादी भीड़ के बीचोचीच चंद हत्यारे गोमांस की अफवाह फैलाकर खुलेआम उजाले में हत्या कर सकते हैं तो फिर फैसला भी दिन के उजाले में ही सार्वजनिक तरीके से अदालत को करना चाहिए। यह अधिक न्यायसंगत होगा क्योंकि इसमें पर्सनल रायवलरी का मामला हरगिज़ नहीं है। यह बात साफतौर से देखी जा चुकी है। ‘हत्या की राजनीति’ और ‘धर्म की आड़ में साम्प्रदायिक राजनीति’ करने वालों ने बड़ी शातिराना तरीके से आपसी साझेदारी निभाते हुए निचले तबके के अल्पसंख्यक परिवार की हत्या करने की साजिश रची ताकि बर्षों से शांत इलाके में हिंसा, हत्या के जरिये देशभर में दंगे कराए जा सकें और इसके बाद राजनीतिक गहमागहमी के जरिये ऊलजुलूल बयानों की बौछार करके राजनीतिक फायदा लिया जा सके।
यह लड़ाई न तो हिन्दू के पक्ष में है और न ही मुसलामानों के पक्ष में है। यह युद्ध धर्मोन्मादी हत्यारों की सोची-समझी राजनीति है जिसमें जनभावना को भडकाने का प्रयास ही नहीं किया गया बल्कि एक ख़ास समुदाय को डराने और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने का भी कम किया गया है। यह ठीक उसी तरह है जैसे -
“इस धर्म के आगे तो सब धर्म तुच्छ हैं और जो मांस न खाय वह तो हिन्दू नहीं जैन है। वेद में सब स्थानों पर बलि देना लिखा है। ऐसा कौन सा यज्ञ है जो बिना बलिदान का है और ऐसा कौन देवता है जो मांस बिना ही प्रसन्न हो जाता है, और जाने दीजिए इस काल में ऐसा कौन है जो मांस नहीं खाता? क्या छिपा के क्या खुले खुले, अँगोछे में मांस और पोथी के चोंगे में मद्य छिपाई जाती है। उसमें जिन हिंदुओं ने थोड़ी भी अंगरेजी पढ़ी है वा जिनके घर में मुसलमानी स्त्री है उनकी तो कुछ बात ही नहीं, आजाद है।” (तृतीय अंक, वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति)
इस हकीकत से भी अतीत में कहीं न कहीं हिन्दू कहने वाले समुदाय का वास्ता धार्मिक तौर से रहा है। इससे धर्म की राजनीति करने वालों की कुंठित मानसिकता समझ में आती है। नरभक्षी लोगों का वास्ता केवल और केवल हत्या से है। जाहिर है अख़लाक़ की हत्या को अंजाम देने के पीछे जो मकसद रहा वह बिलकुल साफ़ था।
यह षड्यंत्र जिन घृणित हिन्दू कहने वाली राजनीतिक ताकतों ने मिलकर रचा है उनकी छुपी रणनीति और जनभावना को आहत करने के इरादों को सामने लाना जरूरी है। पुलिस, अदालत पर जनता को आँख मूंदकर भरोसा करना कतई उचित नहीं मालूम होता। क्योंकि इस तरह पुनः असली गुनहगारों तक पहुँचने और उन्हें बचाने की सोची समझी करतूत रणनीति के कारण और तनिक सी चूक होते ही देश के लोग सच जानने से महरूम रह जायेंगे।
अदालतें जनसमुदाय को अगर भरोसा दिलाना चाहती है तो अच्छा हो कि सुनवाई सार्वजनिक जगह पर ही की जानी चाहिए।
यह जनतंत्र को इस बात का भी भरोसा दिला पाने में सही कदम इस लिहाज से भी साबित होगा कि कानून और अदालत ने किसी भी तरह का कोई पक्षपात नहीं किया है। अगर इस फैसले से राज्य या केंद्र सरकार पर किसी तरह की कोई मिलीभगत या धार्मिक राजनीति उजागर होती है तो हो जाय। इस बहाने हत्या करने वाली शक्तियों/संगठनों/संस्था की सच्चाई सामने आ जायेगी। जिससे जनता में धर्म और राजनीति को लेकर एक समझदारी जरूर पैदा हो सकेगी।
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साम्प्रदायिक कत्ल के इस मामले में असली अपराधियों तक पहुँचने का एक ही माकूल तरीका है। पूरे गाँव के सामने मंदिर के पुजारी, ग्राम प्रधान, स्थानीय बीजेपी नेता, उसका बेटा और अन्य अपराधियों को खुली अदालत में पेश किया जाय। मीडिया के सामने सार्वजनिक तौर से सभी के बयान लिए जाएँ और जुर्म की स्याह करतूत की असलियत को जनसमुदाय के सामने लाया जाय, ताकि देशवासियों को मालूम हो सके कि दंगे, साम्प्रदायिक हिंसा, हत्या की राजनीति और साजिश क्यों और कैसे रची जाती है? कौन लोग हैं जो खुद को हिन्दू कहते हैं और हिन्दू होने का नकाब ओढ़े हुए इस बहाने बेकुसूरों का कत्ल करते हैं।
अख़लाक़ के जिस बेटे ने यह कहा है कि वह देशभक्त परिवार से है। यह बात इस ओर इशारा नहीं करती कि मुल्क में क्या सिर्फ एक कौम को, यानी मुसलमान को देशभक्ति का सुबूत देना होगा। ऐसा न होने पर हत्या होना तय है। और उसे कानूनी जामा पहनाकर जायज ठहरा दिया जाएगा।
दरअसल यह मुसलमानों के भयाक्रांत होने की वजह है। क्या भारतीय होना काफी नहीं है। क्या किसी सवर्ण हिन्दू को कभी देशभक्त होने का प्रमाण देना पड़ा है?
अगर आज वाकई में हालात यहाँ तक खराब हो चुके हैं कि कुछएक ख़ास तबके और कौम की पहचान का संकट है जिसके कारण बेगुनाह जाने ली जानी हैं। मजहब की राजनीति इस कदर हत्या तक पहुँच चुकी है कि मुसलमान होने के कारण उन्हें मुल्कपरस्ती का सुबूत देना पड़े तो इससे ज्यादा शर्मनाक और कुछ नहीं है। क्या मुल्क की सरकारें और मुल्क में रहने वाले लोग मुसलमानों को हिफाजत और भरोसा देने में सक्षम नहीं हैं।
यहाँ एक खतरा उभरता है अगर किसी मुसलमान परिवार में कोई भी सदस्य सेना या अन्य किसी देशसेवा वाली नौकरी में नहीं है तब क्या होगा? क्या ऐसे मुसलमानों का कत्ल कर दिया जाएगा? या इस तरह के कत्ल को मांस, मजहब और राजनीतिक मकसद के कारण वाजिब ठहराया जा सकता है? क्या उन्हें देशद्रोही करार दिया जाएगा? अगर ऐसा है तो राज्य को मुल्क के हर बाशिंदे के लिए देशभक्त और देशद्रोही होने का राजपत्रित घोषणा-पत्र भी देना होगा।
अगर देश में इतनी अराजकता और गैरबराबरी फैलाई जा चुकी है तो राज्य की क्या जिम्मेदारी होनी चाहिए?
क्या किसी एक कौम या मजहब के लोग मजहबी करतूतों के चलते मारे जाते रहेंगे देशद्रोही और आतंकवादी कहे जायेंगे?
हिन्दू की धर्मध्वजा लहराने वाले साम्प्रदायिक हमलावर अल्पसंख्यकों और कमज़ोर तबके को किसी न किसी बहाने धार्मिक उन्माद फैलाने वाला घोषित करके सार्वजनिक हत्या का जश्न मनाएंगे? अगर मजहब के नाम पर होने वाली हिंसा हत्या और अपराध रोकना है तो हमें हिन्दू मुसलमान की ग्रंथियों बंदिशों से बाहर आकर राज्य और मजहब के भीतर हत्या करने वालों की पहचान करनी होगी। यह काम धार्मिक वितंडावाद और रूढ़ियों से मुक्त होकर ही हो सकता है।
सत्तातंत्र तो हमेशा से ही ताकतवर और हिंसक राजनीति, धर्म के पक्षधर कट्टर समुदाय की हिफाजत करता रहा है। और कमजोर जनसमुदाय को किसी न किसी बहाने कत्ल किया जाता रहा है। चाहे वह दलित, मुसलमान, आदिवासी, शोषित महिला वर्ग हो, या फिर कमजोर जातियाँ। फिलवक्त जिस तरह का तनावपूर्ण माहोल दादरी में हुए मजहबी हमले और कत्ल के बाद पूरे मुल्क में बना हुआ है इस मसले में तो यही कहा जा सकता है -
कौवे मांस खा रहे हैं/
गिद्ध मांस खा रहे/
आदम ने आदम का गोश्त कभी चखा नहीं /
जात-धरम की माला जपते सभ्य, कुलीन/
नरभक्षी हुए जा रहे हैं।
-अनिल पुष्कर


