आंकड़ों और परिभाषाओं से जब अर्थव्यवस्था में सुधार हो सकते हैं, तो बजट की कवायद आखिर क्यों है और जब नीतिगत घोषणाएं बजट से पहले हो जाती है तो संसद में बजट पेश करने का औचित्य नवधनाढ्यों को मामूली राहत देने और पूंजी को हर संभव छूट और रियायत देने के अलावा क्या हो सकती है?
पलाश विश्वास
भारत में अब सत्ता की भाषा विज्ञापनी सौंदर्यशास्त्र और व्याकरण के मुताबिक है।
इसी इस तरह से समझें, बॉलीवुड के बादशाह आजकाल पुरुषों को गोरा बनाने के एक विज्ञापन के लिए माडलिंग कर रहे हैं। पूर्व पीएमईएसी चेयरमैन सी. रंगराजन की अध्यक्षता वाली एक समिति ने देश में गरीबी के स्तर के तेंदुलकर समिति के आकलन को खारिज कर दिया है और कहा है कि भारत में 2011-12 में आबादी में गरीबों का अनुपात कहीं ज्यादा था और 29.5 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा के नीचे थे। रंगराजन समिति के अनुसार, देश में हर 10 में से 3 व्यक्ति गरीब है। रंगराजन साहेब ने जैसे ही तेंदुलकर साहेब के प्रतिमानों और आंकड़ों में थोड़ा फेरबदल किया तो दस करोड़ लोग और गरीबी रेखा के नीचे चले आये। इसका मतलब यह हुआ कि तेंदुलकर साहेब ने मंटेक राज के दौरान गरीबी रेखा की परिभाषा बदलकर बिना कुछ किये एक झटके से दस करोड़ लोगो को गरीबी के भूगोल से बाहर निकाल दिया था। जाहिर है कि अच्छे दिन आ गये हैं तो इन दस करोड़ के साथ बाकी गरीबों का कल्याण भी हो जायेगा।
भारत में गोरा बनने की ललक पहले महिलाओं में थी, गोरा न होकर भी पुरुष वर्चस्व और पुरुषतांत्रिक सामंती समाज व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं आया है।
हालांकि बेरोजगारी और अंधेरे भविष्य के मद्देनजर अब युवा समाज को सेक्स और नशे के नेटवर्क में कैद कर लेने का चाकचौबंद इतजाम हो चुका है, जिसके तहत वर्च्युअल सेक्स यानी बिना शारीरिक संबंध के तकनीकी सेक्स का कारोबार चल रहा है।
पुरुषों की उत्कट सौंदर्य चेतना अब स्त्रियों को भी लज्जित कर सकती है।
सुगंध, तेल और कंडोम का कारोबार तो था ही, अब गोरा बनाने का कारोबार भी चल निकला है।
अब एक पुरुषों को गोरा बनाने का एक प्रोडक्ट लाँच हुआ है, जिसमें बादशाह सीना ठोककर कह रहे हैं कि संघर्ष के दिनों में इस उत्पाद को हमेशा साथ रखने में ही उनकी कामयाबी का राज है।
अब जो प्रोडक्ट अभी अभी लाँच हुआ है, दो दशक पहले उसे संघर्ष के दिनों में वे कैसे साथ रखते हैं, यह सवाल कोई पूछ नहीं रहा है।
अच्छे दिन का सौंदर्यशास्त्र भी गोरा बनाने के कारोबार का सौंदर्यशास्त्र है।
बजट के दिनों में आंकड़ों की कलाबाजी कुछ ज्यादा ही निखर जाती है। आंकड़ों के मार्फत नीतिगत घोषणाएं होती हैं और योजनाएं भी उसी मुताबिक बनती है। विकास दर का आंकड़ा ग्लोबीकरण समय में विकास और सभ्यता के प्रतिमान हैं तो सेंसेक्स की उछाल अर्थव्यवस्था की सेहत का वेदर क्लाक हैं।
भारत की राजनीति अस्मिताओं के मुताबिक चलती हैं, यह तो सारे लोग बूझ ही गये हैं।
बूझी हुई पहले गरीबी भी है।
एक रेखा खींच देने से ही जब गरीब खत्म हो जाती है, तो गरीबी उन्मूलन की इतना घोषणाओं और कार्यक्रमों की क्या जरूरत है, समझ से बाहर हैं। तेंदुलकर साहेब ने गरीबी घटा दी थी और नई परिभाषा गढ़कर रंगराजन ने गरीबी बढ़ा दी। मजा तो यह है कि आर्थिक नीतियों की निरंतरता बनी हुई है और जनसंहारक सुधारों का दूसरा चरण निर्माय़क निर्ममता से जारी है।
तो सवाल है कि जिन नीतियों के चलते यह गरीबी बढ़ी और जिसे छुपाने का काम परिभाषा और आंकड़ों से हुआ, उन्हीं नीतियों से यह बढ़ी हुई गरीबी कैसे दूर होगी और कैसे आयेंगे अच्छे दिन।
अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञ जमीनी हकीकत से जुड़ने के लिए शीत ताप नियंत्रित महलों से बाहर नहीं निकलते तो हमारे निर्वाचित जन प्रतिनिधि करोड़पति कम से कम हैं और थोक दरों पर अरबपति भी बन रहे हैं। लेकिन इंदिरा समय से बिना कृषि या औदोगिक उतापादन प्रणाली में सुधार किये सिर्फ परिभाषाओं और आंकड़ों से गरीबी उन्मूलन का यह महती कार्यक्रम इंदिरा समय से चला आ रहा है। रंगराजन रपट से इस अनंत धारा में कोई बदलाव के आसार नहीं है।
उत्पादक शक्तियों की इस देश की अर्थव्यवस्था में कोई भूमिका नहीं है। नई सरकार के श्रम कानून संशोधन एजेंडा से साफ जाहिर है। तो अतिरिक्त दस समेत आंकड़ों में मौजूद गरीबों की गरीबी दूर करने का ठेका फिर वही बिल्डर प्रमोटर कारपोरेट राज, क्रययोग्य अनुत्पादक सेवा उपभोग क्षेत्रों, अबाध पूंजी प्रवाह के लिए विनियमन, विनिवेश, निवेशकों की अटल आस्था और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के भरोसे पर ही अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का उपक्रम है। सारे कानून बदलकर पूरे देश को आखेटगाह बनाकर और औद्योगीकरण के नाम पर मुक्तबाजार के मेगा कत्लगाहों, कत्ल गलियारों के निर्माण जरिये अंधाधुध शहरीकरण और जल जंगल जमीन आजीविका नागरिकता मानवाधिकार नागरिक अधिकार से बेदखली का फिर वही निरंतर जारी धर्मोन्मादी खेल।
फिर वही धर्म राजनीति और पूंजी का संहारक गठजोड़। आर्थिक अंग्रेजी अखबारों की तो कहिये मत, भाषाई मीडिया में बजट पूर्व प्राथमिकताओं में कारपोरेट लाबिइंग की धार देख लीजिये और इस त्रिभुज में बढ़ते धर्मोन्मादी तड़की की गंध समझ लीजिये। अमित शाह और जावड़ेकर कम पड़ गये, देश की राजनीति दुरुस्त करने के लिए राम माधव का आवाहन है।
समांतर सत्ता चलाने वाले कारपोरेट मीडिया का गरीबों से कोई वास्ता नहीं है।
अब यह भी समझने वाली बात है कि इस मुक्त बाजारी अश्वमेध की जो अवैध संतानें हैं, अकूत धन संपत्ति बिना किसी उत्पादन या बिना किसी लागत या बिना किसी पूंजी के यूं ही हासिल कर रहे हैं जो लोग, जो मलाईदार तबका बनकर तैयार है और जो लोग इस नवधनाढ्य समय में उड़ते हुए नोटों के दखल खेल में निष्णात हैं, आजादी, दूसरी आजादी और क्रांति,समता और सामाजिक न्याय की उदात्त घोषणाओं के बावजूद व्यवस्था परिवर्तन में उनकी क्या दिलचस्पी हो सकती है, समझने वाली बात है।
विश्व के इतिहास में जनविद्रोहों और क्रांतियों के इतिहास को देखें तो समझा जा सकता है कि व्यवस्था के शिकार लोग जब सड़कों और खेतों, कारखानों, जंगलों और पहाड़ों में गोलबंद होकर प्रतिरोध करते हैं, तभी परिवर्तन होता है।
नेतृत्व भी उन्हीं तबकों से उभर कर आता है।
मौजूदा व्यवस्था को यथावत रखने या उसको और ज्यादा जनसंहारक तत्व परिवर्तन के पक्षधर कैसे हो सकते हैं, यह समझने वाली बात है।
देश में उत्पादक और सामाजिक शक्तियों के मौजूदा तंत्र के विरुद्ध लामबंद होने की हलचल नहीं है।
जनांदोलन विदेशी वित्त पोषित कार्यक्रम है और सब्जबाग संजोकर, मस्तिष्क नियंत्रण मार्फत राजकाज और नीति निर्धारण की तमाम सूचनाओं को सिरे से अंधेरे में रखकर विज्ञापनी भाषा में जो सत्ता की राजनीति चल रही है, देश का हर तबका, विंचिक निनानब्वे फीसद जनता भी उसी आभासी ख्वाबगाह के तिलिस्म में कैद है।
अर्थशास्त्री तेंदुलकर और अर्थशास्त्री रंगराजन के दोनों मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था के महान प्रवक्ता हैं, दूसरी तमाम रपटों और आंकड़ों को जारी करने वालों की तरह। रंगराजन की यह रपट बल्कि केसरिया समय की पहल है, जिसका मुख्य कार्यभार इस गरीबी का ठीकरा पर्ववर्ती सरकार के मत्थे डालना है, गरीबी उन्मूलन का कतई नहीं।
देश में हालात लगातार बदतर होते जा रहे हैं।
न कृषि और न औद्योगिक उत्पादन में कोई चाम्कारिक वृद्धि हुई है।
अर्थव्यवस्था की बुनियाद में भी कोई बेसिक परिवर्तन नहीं हुआ है, विदेशी रेटिंग और सेनसेक्स की बढ़त के अलावा।
कोई परिवर्तन हुआ नहीं है विदेशी निवेशकों की आस्था मुताबिक धर्मोन्मादी जनादेश माध्यमे बिजनेस फ्रेंडली सरकार के अलावा।
कोई परिवर्तन हुआ नहीं है चुनी हुई सरकार और सत्ता पार्टी, संसद के हाथों से सत्ता संघ परिवार में केंद्रित होने के अलावा।
कोई परिवर्तन हुआ नहीं है दूसरे चरण के नरमेधी राजसूय को रिलांच करने के अलावा।
प्रतिमानों में फेरबदल भी खास नहीं है लेकिन गरीबी की परिभाषा से ही दस करोड़ लोगों की गरीबी खत्म हो गयी। तो परिभाषा बदलकर दस करोड़ लोगं को और गरीब बता दिये जाने से, तमाम कायदे कानून खत्म कर दिये जाने से, दूसरे चरण के आर्थिक सुधारों से यह बड़ीहुई गरीबी दूर हो जायेगी, ऐसा किस अर्थशास्त्त्र में लिखा है, इसके पाठ के संदर्भ तो डॉ.मनमोहन सिंह, मंटेक सिंह आहलूवालिया, राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी और चिदंबरम जैसे लग दे सकते हैं, जिनके बीस साल के किये धरे को खारिज किया जा रहा है।
बुनियादी मसला तो यह है कि आंकड़ों और परिभाषाओं से जब अर्थव्यवस्था में सुधार हो सकते हैं, तो बजट की कवायद आखिर क्यों है और जब नीतिगत घोषणाएं बजट से पहले हो जाती है तो संसद में बजट पेश करने का औचित्य नवधनाढ्यों को मामूली राहत देने और पूंजी को हर संभव छूट और रियायत देने के अलावा क्या हो सकती है, गैर अर्थ विशेषज्ञों के लिए समझना मुश्किल है।
लेकिन इस जनविरोधी, जनसंहारक सर्वनाशी अर्थ शास्त्र के तिलिस्म को समझे बिना उत्पादक और सामाजिक शक्तियों की गोलबंदी पीड़ितों और वंचितों की अगुवाई में असंभव ही है।
पलाश विश्वास।लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना। पलाश जी हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।