अच्छे दिन- 17000 सरकारी स्कूलों को बंद करने का फरमान
अच्छे दिन- 17000 सरकारी स्कूलों को बंद करने का फरमान
कौशलेंद्र प्रपन्न
तकरीबन 5 लाख प्राथमिक स्कूली शिक्षकों की कमी से हमारा प्राथमिक स्कूल जूझ रहा है। स्कूलों में शिक्षकों की रिक्त पदों को भरने के लिए अनुबंधित, शिक्षा मित्रों, पैरा टीचर आदि की मदद ली जा रही है ताकि शिक्षकों की कमी का असर हमारे बच्चों पर न पड़े। अफसोस की बात है कि सबसे खस्ता हाल हमारे प्राथमिक स्कूलों का ही है। क्योंकि इन स्कूलों में न तो पर्याप्त शौचालय, पीने का पानी, खेल का मैदान, शिक्षक आदि हैं और न शिक्षा की गुणवत्ता। ऐसे में हमारे बच्चों को साथ स्कूल छीन कर यह कैसा भद्दा मजाक किया जा रहा है। गौरतलब है कि पूरे देश में कम से कम 7 करोड़ से भी ज्यादा बच्चे प्राथमिक शिक्षा से बेदख़ल हैं। उन्हें किस प्रकार बुनियादी तालीम मुहैया कराई जाए इस ओर चिंता करने की बजाए राजस्थान से ख़बर आई है कि वहां तकरीबन 17 हजार स्कूलों को बंद कर दिया जाएगा। तर्क यह दिया जा रहा है कि इन स्कूलों को चलाने में राज्य सरकार सक्षम नहीं है। जिन 17 हजार स्कूलों में ताला लगाया जा रहा है उन स्कूलों के बच्चों को स्थानीय अन्य स्कूलों में समायोजित किया जाएगा। ज़रा कल्पना कीजिए जिन स्कूलों में पहले से ही क्षमता से ज्यादा बच्चे हैं उस पर और अतिरिक्त बच्चों को किस प्रकार कक्षा में स्थान उपलब्ध कराया जाएगा। ध्यान रहे कि पहले से ही शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के प्रावधानों की अवहेलना की जा रही है उस पर तुर्रा यह कि अब उन्हीं कक्षाओं में 30 से ज्यादा बच्चे बैठेंगे। गौरतलब है कि आरटीइ एक कक्षा में तीस एक अनुपात में शिक्षक/बच्चों की वकालत करती है। लेकिन देश के किसी भी सरकारी स्कूलों में झांक लें वहां एक कक्षा में 50 और 70 बच्चे तो आम देखे जा सकते हैं। क्या एक शिक्षक से यह उम्मीद करना कि वह तमाम बच्चों पर समुचित ध्यान दे पाएया? क्या वह शिक्षण कार्य में गुणवत्ता ला पाएगा।
यह महज सवाल नहीं है, बल्कि उससे भी बड़ी चिंता की बात यह है कि जिन बच्चों को दूसरे स्कूल में भेजा जाएगा क्या वह स्कूल उन बच्चों के घर के करीब होंगे? क्या बच्चों की बढ़ी संख्या के हिसाब से कक्षा में परिवर्तन किए जाएंगे? क्या अतिरिक्त शिक्षकों की भर्ती की जाएगी? आदि। एक तो पहले से ही राज्य में शिक्षकों की कमी है उस पर स्कूलों को बंद किया जाना सीधे-सीधे आरटीइ की अवहेलना तो है ही साथ बाल अधिकारों की भी अनदेखी है। स्कूल के बंद होने से स्थानीय लोगों की ओर से क्या कोई मांग या आवाज उठी है? यदि नहीं तो यह एक गंभीर मसला है। वह इसलिए भी कि जो थोड़ी सी भी अच्छी स्थिति में हैं जो निजी स्कूलों की फीस वहन कर सकते हैं उनके लिए यह घटना कोई खास मायने नहीं रखती। लेकिन हमारे समाज में एक बड़ा तबका ऐसा भी है जो सरकारी स्कूलों पर ही टिका है। अपनी रोजी रोटी से अपने बच्चे की महंगी शिक्षा का बोझ नहीं उठा सकते। उनकी भी इच्छा होती है कि उनका बच्चा पढ़-लिख जाए। लेकिन कल्पना कर सकते हैं कि जब उनके स्थानीय सरकारी स्कूल घर से दूर हो जाएंगे तब क्या वे अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल भेजने के अतिरिक्त खर्चे को उठा पाएंगे।
राजस्थान से लेकर देश के अन्य राज्यों में भी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के तर्ज पर स्कूल चल रही हैं। यह अलग विमर्श का मुद्दा है कि उन स्कूलों में आम जनता की कितनी शैक्षिक चिंता है। क्या उन स्कूलों में आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के साथ बरताव में कोई फांक है? यदि गहराई से पड़ताल करें तो यह अंतर स्पष्ट दिखाई देगा। विभिन्न राज्यों से इस तरह के भेदभाव की खबरें भी आती रही हैं जहां ऐसे बच्चों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है। किसी के बाल काट दिए जाते हैं तो किन्हीं बच्चों को गृहकार्य नहीं दिया जाता। उन बच्चों को कक्षा में पीछे बैठाया जाता है ताकि इन बच्चों की पहचान की जा सके।
सरकारी स्कूलों को बंद किया जाना निश्चित ही दुखद घटना है। बजाए कि हम अपने सरकारी स्कूलों की हैड होल्डिंग करें उन्हें नकारा साबित कर बंद करने पर आमादा हैं। गौरतलब है कि सब के लिए शिक्षा यानी एजूकेशन फॉर ऑल के लक्ष्य का हासिल करने की अंतिम तारीख 2015 है। हम जिस रफ्तार से चल रहे हैं उसे देखते हुए उम्मीद की रोशनी भी बुझती नजर आ रही है। एक ओर विकास और आधुनिकीकरण के नाम पर न केवल राजस्थान में बल्कि पूरे देश में मॉल, फ्लाइओवर, मेटो रेल आदि का निर्माण किया जा सकता है वहीं दूसरी ओर शिक्षा की बुनियादी जमीन को दलदल बनाना कहां की सभ्य समाज की पहचान है। सरकारी स्कूलों को दुरूस्त करने और उसे मजबूत करने की बजाए बंद करना किसी भी सूरत में उचित कदम नहीं माना जा सकता। केंद्र सरकार जहां एक ओर बच्चों से संवाद कर उन्हें बेहतर कल के सपने दिखा रही हैं वहीं दूसरी ओर उनसे स्कूल बंद कर किस तरह के हकीकत से रू-ब-रू करा रही है।
कौशलेंद्र प्रपन्न, शिक्षा सलाहकार एवं भाषा विशेषज्ञ टेक महिन्द्रा फाउंडेशन
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