अदालतें और हत्यारे
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दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू
हत्यारे आवेशित हो कर करते हैं हत्याएं
पर अदालतें बिलकुल भी नहीं करतीं ऐसा
वे आवेशित नहीं होती....
सम्पूर्ण शांति से
पूरी प्रक्रिया अपना कर
हर लेती है प्राण
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दोनों ही करते है हत्याएं
हत्यारे -गैर कानूनी तरीके से
मारते हैं लोगों को
अदालतें - कानूनन मारती हैं
सबकी सुनते दिखाई पड़ते हैं मी लार्ड
पर सुनते नहीं है..
फिर अचानक अपने पेन की
निब तोड़ देते हैं
इससे पहले सिर्फ इतना भर कहते हैं
तमाम गवाहों और सबूतों के मद्देनज़र
ताजिराते हिन्द की दफा 302 के तहत
सो एंड सो को सजा-ए- मौत दी जाती है .
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मतलब यह कि नागरिकों को
मार डालने का हुक्म देती हैं अदालतें
राज्य छीन सकता है
नागरिकों के प्राण
वैसे भी निरीह नागरिकों के प्राण
काम ही क्या आते हैं
सिवाय वोट देने के ?
अदालतें इंसाफ नहीं करतीं
अब सुनाती हैं सिर्फ फैसले
वह भी जनभावनाओं के मुताबिक
फिर अनसुनी रह जाती हैं दया याचिकायें
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हत्यारे, दुर्दांत हत्यारे, सीरियल किलर, मर्डरर
सब फीके हैं,
न्याय के नाम पर होने वाले
कत्लों के आगे
फिर इस तरह के हर कत्लेआम को
देशभक्ति का जामा पहना दिया जाता है !
....और अंध देशभक्त
नाचने लगते हैं
मरे हुये इंसानी जिस्मों पर
और जीत जाता है प्रचण्ड राष्ट्रवाद
इस तरह फासीवाद
फांसीवाद में तब्दील हो जाता है..
..और इसके बाद अदालतें तथा हत्यारे
फिर व्यस्त हो जाते हैं
क़ानूनी और गैर कानूनी कत्लों में ....
-भँवर मेघवंशी
< फांसीवाद (फासीवाद नहीं फांसीवाद ही पढ़ें) के दौर में एक कविता >
भँवर मेघवंशी, लेखक दलित आदिवासी एवं घुमन्तु वर्ग के प्रश्नों पर राजस्थान में सक्रिय हैं तथा स्वतंत्र पत्रकार हैं।