बरेली। शुक्रवार 18 दिसंबर को सूचना मिली कि साहित्य अकादमी (Sahitya Akademi) के अध्यक्ष डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी (Dr. Vishwanath Prasad Tiwari) बरेली में हैं और भाजपा नेता दीप्ति भारद्वाज के घर ठहरे हैं। पिछले दिनों बढ़ती असहिष्णुता के विरोध में दर्जनों लेखकों ने अकादमी अवार्ड वापस कर अपना विरोध जताया था। इस पर एक देशव्यापी बहस छिड़ गई थी। ऐसे में साहित्य अकादमी के अध्यक्ष से लंबी नहीं तो एक छोटी मुलाकात और बातचीत तो बनती ही थी।

दीप्ति भारद्वाज से मैंने बात कर मुलाक़ात फिक्स की और समय पर उनके घर पहुँच गई। दीप्ति भारद्वाज बोलीं भाई साहब (डॉ. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी) बस 10 मिनट में पहुँच रहे हैं। और ये कहते हुए वे मुझे अपने मेहमानखाने में ले गईं।

वहाँ पहले से ही दो सज्जन बैठे हुए थे। दीप्ति भारद्वाज ने उनसे मेरा परिचय कराया। उसमें एक हिंदू जागरण के पदाधिकारी थे और दूसरे संघ के प्रचारक। जब उन्हें पता चला कि मैं तिवारी जी का इंटरव्यू करने आई हूँ तो उनमें से एक ने मेरे साहित्य ज्ञान की परीक्षा लेते हुए पूछा- एक बहुत बड़े साहित्यकार हुए हैं, आप जानती हैं उन्हें!

प्रश्न का सर-पैर मेरे पल्ले नहीं पड़ा। मैंने अपने अज्ञान के लिए उनसे क्षमा माँगी और पूछा, कौन हैं वो ‘महान साहित्यकार’। अटल बिहारी वाजपेयी- वे सज्जन तपाक से बोले।
उत्तर सुनकर मेरे अंदर अनेक भाव उमड़े। लेकिन, मैंने अपने चेहरे के भावों को यथावत बनाए रखा।

अरे! अटल जी को कौन नहीं जानता, माफ कीजिए नाम ध्यान से उतर गया था। मैंने मुस्कान बिखेरकर अपना महा अज्ञान छिपाने की कोशिश की। तिवारी जी का इंटरव्यू करने आई थी, और यहाँ मेरा ही इंटरव्यू शुरू हो चुका था।

दूसरे सज्जन शायद मेरी महा अज्ञानता से ज्यादा ही हर्ट हो गए थे। उन्होंने रूखी आवाज में सवाल दागा। तो आप अमर उजाला में रिपोर्टर हैं!

जी हाँ- मैंने कहा। कितने मुसलमान रिपोर्टर हैं आपके यहाँ!

अब मैं नेताजी के हर्ट होने का असली कारण समझ गई थी।

मैंने कहा- तीन हैं, बताइए कोई खास बात, क्या कोई सर्वे कर रहे हैं आप लोग!

बोले, नहीं बस ऐसे ही पूछ लिया और कड़वा सा मुंह बनाते हुए दोनों ने दीप्ति भारद्वाज और मुझसे विदा ली।

मैंने चैन की सांस ली। चलो मेरा इंटरव्यू तो खत्म हुआ, लेकिन उनके दो ही सवालों ने बहुत कुछ कह दिया था।

शाम के छह बज गए थे। मुझे वापस ऑफिस भी पहुंचना था। मैंने दीप्ति भारद्वाज से पूछा- तिवारी जी के आने में और कितनी देर है। उन्होंने तुरंत तिवारी जी को फोन लगाया- भाई साहब, कितनी देर लगेगी! मीडिया वाले आ गए हैं। फोन रखते हुए बोलीं- बस आ रहे हैं।

मैंने पूछा, हैं कहाँ तिवारी जी।

दीप्ति भारद्वाज ने बताया, भाई साहब पीएचडी का एक वायवा लेने आए हैं। अब वायवा के बाद कैंडिडेट खाना-वाना, डिनर-विनर कराने होटल तो ले ही जाते हैं। वहीं से लौट रहे हैं। (यह हमारी शिक्षा व्यवस्था पर एक गंभीर सवाल है! जो वायवा लेने आए, जो जिमाओ, घुमाओ-फिराओ, खुश करो, ताकि सब-कुछ ओके रहे....)। इस पर विस्तार से फिर कभी।

पाँच मिनट नहीं बीते होंगे कि तिवारी जी आ गए। साथ में वह कैंडिडेट लड़की रि**, जिसका वायवा था और उनके पिताश्री भी थे। वायवा सचमुच बढ़िया हुआ होगा, यह मुझे दिख भी रहा था।

दीप्ति भारद्वाज ने सबसे मेरा औपचारिक परिचय कराया। टाइम कम था, मैं भी दो-चार औपचारिक बातों के बाद मुद्दे पर आ गई।

मैंने तिवारी जी से पूछा, इस बार अकादमी के पुरस्कारों पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं। कहा जा रहा है कि पुरस्कार एक विचार विशेष के लोगों दिए जा रहे हैं। इससे पहले कि तिवारी जी कुछ बोलते, उनके साथ आई वायवा कैंडिडेट के पिताश्री भड़क गए और जोर से बोले- इससे पहले जब काशीनाथ सिंह, अशोक वाजपेई आदि तमाम लोगों को पुरस्कार मिला, तब विचार विशेष पर सवाल खड़े नहीं हुए, अब सवाल खड़े हो रहे हैं।

तिवारी जी ने हड़बड़ाते हुए उन्हें तुरंत रोका- आप मत बोलिए, आप चुप रहिए, मैं जवाब देता हूँ और फिर साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के श्रीमुख से एक संयत, संतुलित, सरकारी टिप्पणी निकली- देखिए, साहित्य अकादमी हर भाषा, हर उस व्यक्ति को पुरस्कार देती है, जो इसके लायक होता है, इसमें कोई विचार नहीं देखा जाता- सरकारी टिप्पणी समाप्त हुई।

इस बीच अन्य अखबारों के हमारे साथी संवाददाता भी आ चुके थे। एक संवाददाता ने पूछा, पुरस्कार लौटाकर (Award return) क्या ये लेखक राजनीति कर रहे हैं, इस पर आपको क्या कहना है।

तिवारी जी बोले, इस पर तो बहुत बोला जा चुका है, बहुत बहस हो चुकी है, इस पर अब और क्या बोला जाए।

हम समझ गए। तिवारी जी किसी भी बात का सीधा जवाब देने के मूड में नहीं हैं।

एक दूसरे संवाददाता ने बात को घुमाकर पूछा, असहिष्णुता के मुद्दे पर ये पुरस्कार बिहार चुनाव से पहले ही क्यों लौटाए गए, इसके बाद क्यों नहीं!

यह सुनकर तिवारी जी के चेहरे पर ऐसे भाव आए, जैसे उनके ही मन की बात कह दी गई हो। तिवारी जी बोले, अब आप खुद सारे सवाल का जवाब दे रहे हैं, तो मैं क्या बोलूं।

मैं समझ गई अध्यक्ष महोदय अवार्ड वापसी पर बढ़ती असहिष्णुता का प्रतिकार नहीं, राजनीतिक स्टंट (political stunt) ही मानते हैं।

अब मेरी बारी थी। मैंने कहा- अकादमी के अध्यक्ष नहीं तो बतौर लेखक ही बता दीजिए, कि आज की परिस्थितियों को आप कैसे देखते हैं। सवाल सुनकर वह मौन साध गए।

मैं सोच में पड़ गई फिर कोई सरकारी टिप्पणी न आ जाए। लेकिन तिवारी जी ने मौन तोड़ा और बोले, देखिए, मैं दलगत प्रतिबद्धताओं में कभी नहीं पड़ा। दलगत प्रतिबद्धताओं को निभाने में उसके खिलाफ बोलने लिखने की आजादी नहीं रहती।

मैंने कहा, मतलब लेखक को विपक्ष में ही रहना चाहिए।

तिवारी जी बोले, हाँ, लेखक को शाश्वत विपक्ष की भूमिका में रहना चाहिए। (मैंने सोचा, तो फिर लेखकों ने अवार्ड वापस क्या गलत किया। उन्हें लगा कि असहिष्णुत बढ़ रही है, या उसे सुनियोजित हवा दी जा रही है और सरकार खामोश तो उन्होंने सरकार तो चेताने के लिए यह कदम उठाया। इसमें क्या गलत है।) खैर मैं इंटरव्यू को पसर्नल नहीं बनाना चाहती थी। इसका वह जवाब पहले ही दे चुके थे।

समय कम था, मैंने अंतिम प्रश्न किया- अकादमी पर यह आरोप भी लगा कि वह एमएम कलबुर्गी की हत्या पर खामोश रही।

तिवारी जी ने सफाई दी, कर्नाटक में अकादमी के सदस्यों ने शोक सभा की थी। अकादमी के अध्यक्ष उसमें नहीं गए, मैंने पूछा। तिवारी जी को यह सवाल शायद अच्छा नहीं लगा। बोल, इतना बड़ा देश है, मैं गोरखपुर में रहता हूँ। इतनी दूर कैसे जाता।

अच्छा तो शोक सभा के बाद अकादमी ने क्या किया, मैंने फिर पूछा।

बोले, बाद में सभी सदस्यों ने कर्नाटक मुख्यमंत्री से मुलाकात की। इसके बाद ही सीबीआई जांच के आदेश दिए गए। मैंने कहा- सीबीआई जांच के आदेश तो लेखकों के प्रदर्शनों के दबाव में दिए गए थे। अब चाहे जो हो, सीबीआई जांच तो हो ही रही है- अध्यक्ष महोदय की खीझ साफ दिखाई दे रही थी।

मैंने मन ही मन सोचा। अध्यक्ष महोदय भाजपा नेता के यहाँ ठहरे हैं, भले ही परिचित करीबी हों, शायद इसीलिए खुलकर नहीं बोल रहे हैं। तो क्या अकादमी की चुप्पी के भी कुछ ऐसे ही कारण थे। सवाल और भी थे, जिनके उत्तर माहौल से भी मिल गए। अब समय भी नहीं था। मैंने तिवारी जी और दीप्ति भारद्वाज का धन्यवाद किया और विदा ली। ऑफिस पहुंचकर खबर भी बनानी थी।

शालिनी वाजपेई